प्रमोद भार्गव
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी यात्रा एक उत्तेजक वैचारिक यात्रा रही है। मनुष्य की शारीरिक खुराक रोटी-पानी और हर हाथ को रोजगार के बाद जो सर्वाधिक जरूरी है, वह है मानसिक वैचारिक खुराक! इस खुराक में सब अस्मिताएं दर्ज हैं, जो किसी भी राष्ट्र के जीवंत रहने को प्रमाणित करती हैं। इसमें राश्ट्र की सीमाएं और उसमें आलोड़ित धर्म एवं संस्कृति के वे मूल्य अंतर्निहित रहते हैं, जिनमें भाशा, वेशभूशा, खान-पान और रीति-रिवाज पारंपरिक रूप में गतिशील रहते हैं। इन भारतीय अिर्स्मतावादी मूल्यों पर सबसे पहला बड़ा प्रहार इस्लामी आक्रांताओं ने किया, तो दूसरा प्रहार अंग्रेजों ने किया। इन प्रहारों ने सनातन संस्कृति के उन सब मूल्यों पर प्रबल आघात किए जो वैदिककाल से लेकर वर्तमान तक न केवल वर्चस्व बनाए हुए हैं, बल्कि अपनी संस्कृति के मूल स्रोतों से आज भी आंदोलित हो रहे हैं। सांस्कृतिक राश्ट्रवाद के यही अक्षुण्ण मूल्य भारत की अखंडता के आधार स्तंभ हैं। अतएव इस परिप्रेक्ष्य में बैंग्लूरू में सरसंघ चालक मोहन भागवत ने ठीक ही कहा है कि भारत में कोई भी अहिंदु नहीं हो सकता, क्योंकि सबका मूल हिंदुत्व है। तथाकथित सांस्कृतिक मार्क्सवाद की अस्मिता के लिए यह बड़ा प्रतिकार है। यह एक ऐसा क्षितिज है, जो भारत विभाजन और मतांतरण की पड़ताल करता है।
16 अक्टूबर 1905 को बंगाल के विभाजन और 30 दिसंबर 1906 को ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का गठन हुआ। इसके बाद से ही दो राश्ट्रों के रूप में भारत विभाजन की सुगबुगाहट आरंभ हो गई थी। ज्यादातर कांग्रेस नेता इन सुगाबुगाहटों से या तो निशि्ंचत थे या फिर नजरअंदाज कर रहे थे। किंतु दूरदर्शी स्वतंत्रता सेनानी तथा कांग्रेस सदस्य डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने अपने कानों में इस अनुगूंज को अनुभव किया और भारत की तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के आकलन के उपरांत इस निश्कर्श पर पहुंचे कि विभाजन की संभावना को टालने के लिए हिंदू समाज को न केवल संगठित करने की जरूरत है, अपितु राश्ट्रीय चेतना को जागृत करने की भी जरूरत है। हिंदुओं में परस्पर एकता का अभाव और जातीय अस्मिता को बनाए रखने वाली सुप्त पड़ी चेतना के कारण बड़े हिंदू समाज में आंतरिक विखंडन और आत्मगौरव का क्षरण निरंतर बढ़ रहा है। हिंदुओं की लाचार मनस्थिति और मुस्लिम लीग का इस्लाम के आधार पर बढ़ते विस्तार की पृश्ठभूमि में 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन, मात्र 50 स्वयंसेवकों के साथ हेडगोवार ने राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रख दी। राश्ट्र और भारतीय समाज के निर्माण में लगे इस संघ की आयु अब सौ वर्श हो गई है। आज संघ अपने पुनीत उद्देश्य के साथ संपूर्ण समाज को संगठित बनाए रखने का मूल-मंत्र देते हुए भारत को एक सशक्त और परम वैभवशाली राश्ट्र बनाने की ओर अग्रसर है। इस मंत्र की अवधारणा के चरित्र में राष्ट्रीय संस्कारों के बीजारोपण के साथ समरसता और स्वदेशी के भावों को परिपक्व करना है।
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में एक अवचेतन मन होता है। यह हमारे दिमाग का वह हिस्सा है, जो हमारी चेतन जागरूकता के नीचे काम करता है। यह हमारे मस्तिष्क में दर्ज विचारों, भावनाओं और अंतक्रियाओं की पृष्ठभूमि में रहते हुए अंतर्चेतना को प्रभावित करता है। जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटने के बाद कांग्रेस नेता और मंत्री रहे गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि ‘इस्लाम का उद्भव तो मात्र 1500 वर्श पहले हुआ है, अतएव भारत में कोई भी बाहरी नहीं है। हम सभी मुसलमान इसी देश के वासी हैं। मूल रूप में वे हिंदू ही हैं। बाद में उनका मतांतरण हुआ। कश्मीर में सभी मुसलमान कश्मीरी पंडितों से धर्मांतरित हुए हैं। अतएव सभी का जन्म सनातन हिंदू धर्म में ही हुआ है।‘ आजाद ने यह बात डोडा के चिरल्ला गांव में 9 अगस्त 2023 को एक सभा में कही थी। बाद में यह वीडियो खूब वायरल हुआ था। फारुख अब्दुल्ला भी भगवान राम को सबके भगवान कहने के साथ अपने मूल में हिंदू होने को स्वीकार चुके हैं।
सनातन संस्कृति की अवचेतन में आंदोलित हो रही जागृति की यह बात मजबूती से पाकिस्तान के प्रखर सिंधी राष्ट्रवादी नेता रहे जीएम सैयद ने बहुत तार्किक ढंग से उठाई थी। वे एक विद्वान लेखक थे। उन्होंने ही सिंधि पहचान के लिए वैचारिक आधार तैयार किया और सिंधुदेश आंदोलन की नींव रखी थी। वे 1937 में सिंध विधानसभा के सदस्य चुने गए और 1940 में शिक्षा मंत्री बने थे। इन्होंने ही 1946 में कट्टरवादी मुस्लिम लीग से अलग होकर ‘प्रोगेसिव मुस्लिम लीग‘ की स्थापना की थी। 1970 के दशक में उन्होंने ही ‘जय सिंध मुत्ताहिदा महाज‘ एक सिंधी राष्ट्रवादी दल बनाया जिसका लक्ष्य सिंध को पाकिस्तान से पृथक कर स्वतंत्र देश का निर्माण था। आज भी पाकिस्तानी सेना की दमनकारी नीतियों के विरोध में जय सिंध मुत्ताहिदा महाज़ और जय सिंध कौमी महाज जैसे संगठन स्वतंत्र सिंधुदेश की मांग का अलख जगाए हुए हैं।
अवचेतन में निहित इसी सांस्कृतिक जागरण के परिप्रेक्ष्य में जीएम सैयद ने कहा था, ‘मैं पाकिस्तानी तो मात्र 43 साल से हूं, जबकि मुसलमान 700 साल से हूं। परंतु सिंधी पांच हजार वर्ष से हूं।‘ यानी वैदिक काल से। अवचेतन में बैठी अपनी संस्कृति के आत्मबोध की यह स्वीकारता, उसी ऋग्वैदिक भू-सांस्कृतिक वैचारिकता का उद्घोष है, जिसे आज संघ ‘हिंदुत्व‘ या सनातन हिंदुत्व कह रहा है। सांस्कृतिक पहचान का यह आत्मबोध प्रत्येक उस धर्मांतरित हिंदू के अवचेतन में अंगड़ाई ले रहा है, जो आक्रांताओं की तलवार की नोक पर लाचारी की अवस्था में अपने धर्म से विमुख हुआ। कालांतर में जैसे-जैसे आत्मबोध के भाव जागृत होंगे, वैसे-वैसे घर वापसी में तेजी आएगी ?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपनी शताब्दी यात्रा पर है। एक सदी की यह यात्रा केवल संगठन एवं अपने अनुषांगिक संगठनों का विस्तार या उन्हें कट्टर हिंदू बनाना भी नहीं है, बल्कि भारत में रहने वाले सभी जाति एवं धर्म समुदायों के बीच समावेशी सद्भाव विकसित करना है। यह यात्रा सामाजिक जीवन में रचनात्मक बदलाव के लिए राष्ट्रीय चेतना का पुनर्जागरण है। यही वह भाव है, जिसका उद्घोश जीएम सैयद ने किया था और अब गुलाम नबी आजाद कर रहे हैं। इसी समावेशी भाव को पुरातत्वशास्त्री केके मोहम्मद ने समझते हुए इस्लामिक कट्टरता का परिचय दिए बिना अयोध्या के विवादित ढांचे के गर्भ में समाए अवशेशों को आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए राम मंदिर के साक्ष्य बताया। उनका मानना है कि ‘हिंदू आस्था के स्रोत काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की षाही ईदगाह हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। क्योंकि इन स्थलों से मुस्लिमों की कोई भावना नहीं जुड़ी है। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी समावेशी भाव के अनुगामी थे। जिस राष्ट्र की मूल वैदिक संस्कृति की सांस्कृतिक अवधारणा में संपूर्ण मानव जाति के लिए समावेशी जीवन-दर्शन के भाव हैं, वह वैशिष्ट्य अन्य संस्कृतियों में कहीं नहीं है।
इसी परिप्रेक्ष्य में मोहन भागवत ने कहा है, ‘भारत एक हिंदू राष्ट्र है।‘ हिंदू राश्ट्र की अवधारणा का अर्थ किसी को बाहर करना नहीं है, अपितु सभी समुदायों और आस्थाओं का इसमें समावेशन करना है, क्योंकि भारत सभी का है। इसीलिए भारत में अब जातिगत बाधाओं को जड़-मूल से खत्म करने के लिए एक कुआं, एक मंदिर और एक षमशान की भावना से काम करना है। इस संदर्भ में वास्तव में हिंदू राश्ट्र और भारतीय राश्ट्रवाद एकभाव हैं। अटलबिहारी वाजपेयी भी हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा के प्रखर पक्षधर थे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-5 में नागरिकता की जो परिभाषा दी गई है, वह भी इसी तरह के भारतीय राष्ट्रवाद की पोषक है। परंतु घुसपैठियों की नागरिकता का समर्थन नहीं करती है। इस परिभाषा में रेखांकित है कि भारत में रहने वाले, भारत में जन्मे या जिनके माता-पिता भारत में पैदा हुए, ऐसे सभी लोगों को भारत का नागरिक माना जाएगा। संविधान में पाकिस्तान का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कहा है कि यदि किसी व्यक्ति के जनकों में से कोई भारत शासन अधिनियम 1935 (यथा मूलतः अधिनियमित) में परिभाषित भारत में जन्मा था या फिर वह 1948 की जुलाई के 19 दिन से पूर्व प्रव्रजन (पलायन/विस्थापन) कर आया है, तब वह भारतीय नागरिक कहला सकता है। अतएव राष्ट्रीय नागरिक पत्रक (एनआरसी) के तहत जो अभियान असम राज्य सरकार ने चलाया हुआ है, वह नागरिकों की वैध पहचान के उद्देश्य से चलाया गया है। 1971 और उसके बाद बांग्लादेश तथा म्यांमार से घुसपैठियों के रूप में आकर बसे लोगों को भारत की वैध नागरिकता नहीं दी जा सकती है ? कालांतर में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इसे पूरे देश में लागू करने की इच्छुक है।
मूल संविधान में उल्लेखित नागरिकता को लेकर एक अत्यंत रोचक पहलू है कि यह अध्याय वैदिक काल के एक चित्र से आरंभ होता है, जो किसी आश्रम के गुरुकुल का है। जिसका परिवेश प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण है। सृष्टि से तालमेल बनाए रखते हुए इस चित्र में घर और मार्ग हैं। प्रकृति अथवा परमात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मंदिर हैं। प्रकृति के रहस्य के साथ, जीवन के रहस्य को जानने की जिज्ञासा को आतुर विद्यार्थी हैं और जिज्ञासा की पूर्ति के लिए दक्षता प्राप्त अनुभवी गुरु हैं। यानी भारत बोध के आदर्श से प्रणीत गुरुकुल! संविधान के इस अध्याय का मूल विषय है नागरिकता! योग्य नागरिक ही नागरिकता की गरिमा को स्थापित कर सकता है ? घुसपैठिए नहीं। साफ है, संविधान सनातन संस्कृति और भारतीय की उत्प्रेरणा देने वाली संहिताओं से व्याख्यायित है। हिंदू, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र या फिर भारतीय राष्ट्र के समावेशी चरित्र पर अभिमान स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद सरस्वती, बकिमचंद चटर्जी, महर्षि अरविंद, रमन महर्षि और आचार्य विनोबा भावे तक करते रहे हैं। इस परंपरा की अनूठी देन यह है कि यह न केवल हिंदुओं में हिंदुत्व पर गर्व करती है, बल्कि जो गैर हिंदू राष्ट्रभक्त भारतवासी हैं, उन पर भी गर्व करती है। अतएव हिंदुत्व के अस्मिता बोध में जो सांस्कृतिक प्रवाह निहित है, उसके जागरण की गूंज न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में गुंजाने की जरूरत है। यही गूंज एक दिन भारत को विश्वगुरु के पायदान पर ला खड़ा करेगी।





