दिल्ली के लाल किले के पास हुआ भयावह विस्फोट केवल राजधानी की शांति को नहीं बल्कि राष्ट्र की चेतना को भी झकझोर गया। यह केवल एक हादसा नहीं बल्कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर गहरा प्रश्नचिह्न है। आधुनिक तकनीक, खुफिया तंत्र और वर्षों की चौकसी के बावजूद यदि देश की राजधानी का सबसे संवेदनशील क्षेत्र इतनी सहजता से असुरक्षा के घेरे में आ जाए तो यह केवल सिस्टम की नाकामी नहीं चेतना की शिथिलता भी है। यह धमाका पूछ रहा है कि क्या हमने सुरक्षा को केवल औपचारिकता बना दिया है? क्या हमारी तैयारी केवल दस्तावेजों तक सीमित रह गई है?
योगेश कुमार गोयल
दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले के पास 10 नवंबर को हुए भयानक धमाके ने न केवल देश की राजधानी दिल्ली बल्कि राष्ट्रीय चेतना को झकझोर दिया। शाम के करीब सात बजे जब दिल्ली अपनी सामान्य चहल-पहल में डूबी थी, अचानक लाल किला मैट्रो स्टेशन के गेट नंबर-1 के पास एक तेज धमाका हुआ, जिसने पूरे इलाके को दहला दिया। कुछ ही पलों में कार जलते मलबे में बदल गई, आसपास खड़ी गाड़ियां आग की लपटों में घिर गई और घना धुआं आसमान में छा गया। यह दृश्य किसी युद्ध के बाद की तबाही जैसा था, आवाज इतनी भयावह कि चांदनी चौक से लेकर जामा मस्जिद तक सायरन और चीखों की गूंज फैल गई। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, एक सफेद हुंडई आई-20 कार में अचानक जबरदस्त विस्फोट हुआ। कार के परखच्चे उड़ गए और आग ने पास खड़ी गाड़ियों, ई-रिक्शा आदि को अपनी लपटों में ले लिया। कुछ ही सैकेंडों में पूरा इलाका दहशत के घेरे में था। विस्फोट की तीव्रता ने न केवल वाहनों को चूर-चूर किया बल्कि लाल किला और आसपास की इमारतों तक को हिला दिया, आसपास की दुकानों के शीशे टूट गए और लोगों के दिलों में एक बार फिर वही पुराना भय लौट आया, वह भय जो दिल्ली ने 2001, 2005, 2008 और 2011 के धमाकों के दौरान महसूस किया था। इस दर्दनाक हादसे में कम से कम 12 लोगों की मौत हुई है जबकि दर्जनों लोग गंभीर रूप से घायल हुए। आनन-फानन में जांच एजेंसियां यह पता लगाने में जुट गई कि वाहन में कौन सवार था और विस्फोट से पहले क्या गतिविधियां हुई। जांच एजेंसियों के हाथ कई अहम सुराग लगे हैं।
दिल्ली-एनसीआर और पुलवामा में लगातार छापेमारी से अलफलाह यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर आतंकी डॉ. उमर नबी दबाव में आ गया था। वह फरीदाबाद से जल्दबाजी में अधूरा तैयार आईईडी लेकर कार से निकला, जिससे धमाका हुआ। इसलिए धमाके का असर सीमित रहा और क्रेटर या छर्रे नहीं मिले। धमाके वाले दिन, आई20 कार लाल किला पहुंचने से पहले दिल्ली के कई इलाकों से गुजरी थी। कार दोपहर ढ़ाई बजे कनॉट प्लेस पहुंची और कुछ देर बाद वहां से निकल गई। पुलिस सूत्रों के अनुसार, कार में विस्फोट सामाग्री वही थी, जो फरीदाबाद से जब्त की गई है। यह मॉड्यूल जैश-ए-मोहम्मद और अंसार गजवत-उल-हिंद से जुड़ा है, जो जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और यूपी में सक्रिय है। इस मामले में गिरफ्तार फरीदाबाद आतंकी मॉड्यूल में शामिल डॉ. शाहीन शाहिद ने स्वीकार किया है कि वह अपने साथी आतंकी डॉक्टरों के साथ मिलकर देशभर में हमलों की साजिश रच रही थी। पूछताछ के दौरान उसने खुलासा किया कि वह पिछले दो सालों से विस्फोटक जमा कर रही थी।
लाल किला केवल एक राष्ट्रीय स्मारक नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र और अस्मिता का प्रतीक है। इसकी दीवारों पर हर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण गूंजता है। ऐसे पवित्र स्थल के समीप हुआ यह धमाका सुरक्षा व्यवस्था के सबसे गहरे स्तरों तक प्रश्न खड़े करता है। सवाल यह है कि इतनी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद राजधानी के दिल में यह घटना कैसे घट गई? दिल्ली पुलिस और खुफिया एजेंसियों की निगरानी में लाल किला सबसे उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्रों में शामिल है, जहां नियमित रूप से सीसीटीवी, ड्रोन और बीट पैट्रोलिंग की जाती है। फिर भी यदि इस स्तर का विस्फोट हो सकता है तो यह केवल तकनीकी विफलता नहीं बल्कि सुरक्षा मानसिकता की जड़ता का भी संकेत है। यह दर्शाता है कि हम अब भी उस सुरक्षित भ्रम में जी रहे हैं, जहां खतरे को हमेशा दूर मान लिया जाता है, जब तक कि वह हमारे दरवाजे पर दस्तक नहीं देता। इस धमाके की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी गूंज बहुत दूर तक सुनाई दी और आसपास के वाहनों में आग फैल गई, फायर ब्रिगेड ने बड़ी मुश्किल से आग पर काबू पाया।
दिल्ली में ऐसा धमाका करीब 13 वर्षों बाद हुआ है। फरवरी 2012 में इजराइली राजनयिकों को निशाना बनाकर हुए बम धमाके के बाद से राजधानी अपेक्षाकृत शांत रही थी। उससे पहले 7 सितंबर 2011 को दिल्ली हाईकोर्ट गेट नंबर-5 के पास हुए धमाके में 15 लोग मारे गए थे। 2008 के सिलसिलेवार धमाकों में तो दिल्ली का दिल ही दहल गया था, जब करोल बाग, कनॉट प्लेस और ग्रेटर कैलाश जैसे इलाकों में मौत और तबाही की कहानियां लिखी गई थी। उससे पहले 29 अक्तूबर 2005 को दीवाली से दो दिन पहले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने पहाड़गंज, गोविंदपुरी और सरोजिनी नगर में एक साथ तीन धमाके किए थे, जिनमें 60 से अधिक निर्दोष लोगों की जान चली गई थी। यह लंबा इतिहास बताता है कि दिल्ली हमेशा से आतंकवादियों के निशाने पर रही है क्योंकि यह न केवल सत्ता का केंद्र है बल्कि देश की आत्मा है।
लाल किले के पास हुआ यह विस्फोट उस समय हुआ, जब फरीदाबाद में करीब तीन हजार किलो संदिग्ध विस्फोटक बरामद हुआ था। एक कश्मीरी डॉक्टर के किराए के मकान से 360 किलो विस्फोटक, हथियार और टाइमिंग डिवाइस बरामद किए गए थे। इस मामले में कई लोगों की गिरफ्तारी हुई, जिनमें मेडिकल प्रोफैशनल्स और मौलवी भी शामिल बताए गए। इन दोनों घटनाओं के बीच कड़ियां जुडने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि कोई गहरी साजिश पनप रही थी, जिसे शायद पूरी तरह रोका नहीं जा सका। इस हादसे ने एक बार फिर सवाल उठाया है कि क्या हमारी खुफिया प्रणाली में समय रहते चेतावनी देने की क्षमता घट रही है? क्या सूचनाओं का साझा तंत्र अब भी कागजी प्रक्रियाओं में उलझा हुआ है? सुरक्षा केवल हथियारों, बुलेटप्रूफ जैकेटों या बड़ी टीमों से नहीं आती, यह निरंतर सतर्कता, सामुदायिक सहयोग और त्वरित इंटेलिजेंस साझा करने से बनती है। यदि फरीदाबाद जैसी घटनाओं के बाद तत्काल सतर्कता बढ़ाई जाती और वाहन जांच प्रणाली में रैंडम सर्च बढ़ाई जाती तो शायद यह विस्फोट टल सकता था।
बहरहाल, पीड़ितों के परिवारों के लिए यह दर्द केवल आंकड़ों का मामला नहीं बल्कि उनके लिए यह जीवन के उजाले का बुझ जाना है। अस्पतालों में घायल तड़प रहे हैं, कुछ ने अपने प्रियजनों को हमेशा के लिए खो दिया। प्रशासन के लिए यह करुणा और जिम्मेदारी की सबसे कठिन परीक्षा है। सरकार को त्वरित राहत, मुआवजा और पारदर्शी जांच सुनिश्चित करनी होगी।
अपराधियों को पकड़ने और दोषियों को सजा दिलाने में किसी भी तरह की देरी इस देश की न्यायिक साख पर सवाल उठाएगी।
हमारी प्राथमिकता इस समय तीन दिशाओं में होनी चाहिए, पीड़ितों के प्रति संवेदना, जांच में निष्पक्षता और भविष्य के लिए सबक। लाल किले के पास हुआ यह धमाका चेतावनी है कि सुरक्षा एक सतत प्रक्रिया है, जिसे हर नागरिक की जागरूकता, तकनीकी सशक्तता और प्रशासनिक दृढ़ता के साथ ही साकार किया जा सकता है। यह समय दोषारोपण का नहीं बल्कि आत्ममंथन का है, यह सोचने का कि क्या हम सुरक्षा के हर स्तर पर सचमुच उतने सजग हैं, जितना एक जिम्मेदार राष्ट्र को होना चाहिए। दिल्ली की हवा में आज केवल धुआं नहीं बल्कि चिंता और सवाल तैर रहे हैं और जब तक इन सवालों का जवाब तथ्यों, साक्ष्यों और न्याय की कसौटी पर नहीं मिलता, तब तक यह विस्फोट केवल एक हादसा नहीं रहेगा बल्कि हमारी सामूहिक चेतना पर लगी गहरी चोट की तरह याद किया जाएगा। देश उम्मीद कर रहा है कि जांच एजेंसियां सच्चाई को उजागर करते हुए दोषियों को बेनकाब करेंगी और दिल्ली फिर से वही शहर बनेगी, जो हर संकट के बाद और मजबूत होकर उठ खड़ी होती है।





