बिहार में बडबोली राजनीति की हार, सुशासन की नई सुबह

Defeat of loud politics in Bihar, a new dawn of good governance

ललित गर्ग

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की ऐतिहासिक एवं अनूठी जीत ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व, गृहमंत्री अमित शाह की चुनावी रणनीति और उनकी जनस्वीकार्यता आज भी भारतीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाती है। यह जीत सिर्फ एक गठबंधन की सफलता नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य की नई रूपरेखा का संकेत है। नीतीश कुमार के अनुभवी नेतृत्व, भाजपा की संगठनात्मक मजबूती और उभरते हुए युवा सितारे चिराग पासवान के प्रभावी प्रदर्शन ने मिलकर इस चुनाव को एनडीए के पक्ष में एक मिसाल बना दिया। एनडीए की जीत के पीछे उनके 10 प्रमुख वादे हैं जिनमें पंचामृत गारंटी, रोजगार सृजन, मुफ्त शिक्षा, महिलाओं के लिए योजनाएं, कृषि सुधार और बुनियादी ढांचे का विकास शामिल है। इस बार के चुनाव इसलिये भी ख़ास रहे क्योंकि 1951 के बाद बिहार में इस बार सबसे ज्यादा वोट पड़े।
इस बार बिहार में 67.13 प्रतिशत मतदान हुआ जो कि पिछले विधानसभा चुनाव से 9.6 प्रतिशत ज्यादा है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का मतदान 8.15 प्रतिशत ज्यादा रहा है। इस बार के मतदान में पुरुषों की हिस्सेदारी 62.98 प्रतिशत रही और महिलाओं की 71.78 प्रतिशत। बिहार में 3.51 करोड़ महिला वोटर हैं और 3.93 करोड़ पुरुष वोटर और कुल मतदाताओं की तादाद 7.45 करोड़ है। बिहार विधानसभा चुनाव के ताजा रुझानों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ( एनडीए ) के 200 सीटों के आंकड़े को पार कर रहा है, इस जनादेश में महिला मतदाताओं की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसा प्रतीत होता है कि एकतरफा बिहार की महिलाओं का विश्वास जीत गया है, एनडीए विजयी हुआ है, बिहार विजयी हुआ है और महागठबंधन का बड़बोलापन हारा है।

महागठबंधन की करारी हार अपने आप में कई सवाल छोड़ती है। चुनावी रैलियों में भीड़ जरूर इकट्ठी हुई, भाषणों में तीखे हमले भी हुए, लेकिन विपक्ष जनता का विश्वास जीतने में विफल रहा। नेतृत्व की अस्पष्टता, रणनीति की कमी, और विकास तथा सुशासन पर ठोस विजन की गैर-हाजिरी ने जनता को यह सोचने पर मजबूर किया कि सत्ता परिवर्तन से स्थिरता नहीं, बल्कि अनिश्चितता बढ़ सकती है। महागठबंधन बार-बार सामाजिक न्याय और पुराने नारों की दुहाई देता रहा, लेकिन आज का बिहार उन नारों से अधिक उम्मीदें रखता है-रोज़गार, सुरक्षा, कानून व्यवस्था और बुनियादी सेवाओं की निरंतरता। इन मुद्दों पर विपक्ष का स्पष्ट और भरोसेमंद खाका सामने नहीं आ सका। यही कारण है कि उसके नेताओं की बड़बोली बयानबाज़ी जनता पर असर नहीं डाल सकी, बल्कि कई जगह उलटा असर दिखा गई।

इसके विपरीत एनडीए ने अपने चुनाव अभियान को “स्थिरता $ विकास” के सूत्र में पिरोया। मोदी की राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता, केन्द्र सरकार की जनकल्याणकारी नीतियां-योजनाएं और नीतीश कुमार की सुशासन-छवि ने बिहार के मतदाता को यह भरोसा दिया कि यह गठबंधन अनुभव, विश्वास, विकास और नीतिगत दृढ़ता का सही मिश्रण है। नीतीश कुमार भले कई राजनीतिक मोड़ों के लिए आलोचित हुए हों, लेकिन जनता के मन में उनकी छवि एक ऐसे प्रशासक की बनी हुई है, जो लंबे समय से बिहार को कानून-व्यवस्था, महिला सशक्तिकरण, सड़क-निर्माण और शिक्षा सुधार जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ाने का प्रयास करता रहा है। इस छवि का लाभ एनडीए को व्यापक रूप से मिला। भाजपा की संगठनात्मक मशीनरी ने बूथ तक प्रभावी और लक्षित पहुंच बनाई, जिससे मतदाताओं में यह भरोसा मजबूत हुआ कि केंद्र व राज्य का समन्वय विकास की गति को और तेज करेगा।
इन चुनावों का एक बड़ा आकर्षण चिराग पासवान का उभार रहा। उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे किसी के “मोहरा” नहीं, बल्कि भविष्य के निर्णायक खिलाड़ी हैं। उनके आक्रामक और आत्मविश्वासी अभियान ने युवा और दलित वर्ग में नई ऊर्जा जगाई। एनडीए के भीतर उनकी भूमिका महज सांकेतिक नहीं थी, बल्कि वास्तविक जनाधार और असर से भरपूर रही। सीटों पर उनकी उल्लेखनीय पकड़ ने यह संदेश दिया कि वे आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित कर सकते हैं। यह भी सच है कि उनकी बढ़ती लोकप्रियता नीतीश कुमार के लिए संतुलन साधने की चुनौती भी बन सकती है, लेकिन यदि गठबंधन समन्वय बनाए रखता है, तो बिहार को इससे मजबूत नेतृत्व का लाभ मिल सकता है।

अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस ऐतिहासिक जीत के बाद बिहार किस दिशा में आगे बढ़ेगा। जनता की अपेक्षाएँ बहुत ऊँची हैं-सुरक्षित समाज, संवेदनशील प्रशासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और विकास की तेज रफ्तार। कानून-व्यवस्था बिहार की राजनीति का सबसे संवेदनशील मुद्दा रहा है। लोग चाहते हैं कि अपराध-नियंत्रण में सुधार हो, पुलिस प्रशासन आधुनिक और जवाबदेह बने, और न्यायिक प्रक्रियाओं में तेजी आए। एनडीए के पास केंद्र और राज्य दोनों के संसाधन और राजनीतिक सामर्थ्य है, इसलिए उससे उम्मीद यह है कि वह “सुशासन का दूसरा अध्याय” लिखने की दिशा में ठोस कदम उठाएगा। भाजपा न सिर्फ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, बल्कि जेडीयू के बगैर भी वह एनडीए के अन्य सहयोगियों के साथ जादुई आंकड़े को पार करती नजर आ रही है। ऐसे में नीतीश कुमार के लिए भाजपा के साथ किसी तरह का बिहार में बार्गेनिंग करना आसान नहीं रह गया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से यह बार-बार दोहराया गया है कि चुनाव के बाद भी परिणाम चाहे जो भी आएं, गठबंधन के चेहरे नीतीश कुमार ही बने रहेंगे। जेडीयू की ओर से भी यह बात दोहराई गई है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। फिलहाल इस पूरे चुनाव में महिला वोटर्स गेम चेंजर बताई जा रही हैं और ऐसा हुआ बिहार चुनाव से पहले महिला रोजगार योजना के तहत बिहार सरकार द्वारा महिलाओं के खाते में 10 हजार रुपये भेजे जाने से। वहीं चुनाव में महागठबंधन को बड़ा झटका लगा है।

निश्चित ही इन चुनाव परिणामों में बिहार का मतदाता अधिक सजग एवं विवेकशील दिखाई दिया हैं। वह जानता है कि सत्ता परिवर्तन से अधिक जरूरी है संस्कृति परिवर्तन, राजनीतिक शुचिता, विकास, कानून व्यवस्था और प्रशासनिक जवाबदेही। इस चुनाव ने केवल विधानसभा की सीटें तय नहीं की है, बल्कि यह तय किया है कि अब बिहार की जनता अपनी पुरानी परछाइयों से निकलकर प्रकाश की ओर बढ़ेगी। क्योंकि बिहार में पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार, अराजकता की चर्चा तो होती रही है, लेकिन इन जटिल से जटिलतर होती समस्याओं से बाहर निकलने के रास्ते दिखाई नहीं दिये। बिहार की जनता का मोदी के प्रति एक नये तरह का विश्वास जागा है। पिछली सरकारों केे दौर में बिहार बदहाली के दौर से काफी निकल चुका है और विगत दो दशक में यहां की स्थितियां काफी बदली है। इस बार बिहार चुनाव के परिणाम चौंकाने वाले इसलिये भी बने हैं कि इसकी आहट उन घोषणाओं से भी मिलती है, जो नीतीश सरकार ने की हैं। महिलाओं, दिव्यांगों और बुजुर्गों के लिए पहली बार इस पैमाने पर ऐलान किए गए हैं।

इस चुनावी जनादेश को केवल राजनीतिक वर्चस्व के चश्मे से नहीं, बल्कि जनविश्वास की कसौटी से देखना जरूरी है। यह जीत भाजपा, जेडीयू और एलजेपी (रामविलास) के लिए अवसर भी है और चुनौती भी। अब उन्हें यह साबित करना होगा कि चुनावी नारों की चमक शासन की रोशनी में भी कायम रह सकती है। बिहार की जनता ने महागठबंधन की ऊँची-ऊँची बातों, वंशवादी दावों और बड़बोले नेताओं की कटुता को नकारकर यह संदेश दिया है कि उन्हें स्थिरता, ईमानदार नेतृत्व और विकास का भरोसा चाहिए। इन चुनाव परिणामों ने एक बार फिर कांग्रेस को करारी हार दी है, जो पार्टी के लिये आत्ममंथन का बड़ा कारण है। एनडीए की यह जीत केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि बिहार के नए भाग्य का उदय है। अब देखते हैं कि यह उदय सच्चे अर्थों में उजाला बिखेरता है या सिर्फ राजनीतिक रोशनी भर साबित होता है।