बिहार का फैसला: NDA की बड़ी जीत और विपक्ष की नई चुनौती

Bihar verdict: Big win for NDA and new challenge for the opposition

मुस्लिम मतदाताओं की नई चेतना और विपक्ष की पराजय का सबक

रितेश सिन्हा

बिहार चुनाव के नतीजों ने भारतीय राजनीति को गहराई से झकझोर दिया है। यह परिणाम सिर्फ एक राज्य की राजनीति नहीं, बल्कि पूरे देश की दिशा बताने वाला संकेत है। NDA की “भव्य सफलता” केवल सीटों की संख्या की जीत नहीं है, बल्कि एक लंबे समय से बनाई जा रही रणनीति का परिणाम है। इस जीत से यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा केवल सत्ता हासिल करने वाली पार्टी नहीं, बल्कि देश की राजनीतिक संस्कृति को भी नया रूप दे रही है।

इस पूरे बदलाव का सबसे अहम पहलू मुस्लिम मतदाताओं की बदलती सोच है। अब पहले जैसी बात नहीं रही कि मुसलमान हमेशा भाजपा के खिलाफ ही वोट देंगे। बिहार के नतीजे दिखाते हैं कि मुस्लिम समाज अब अपनी राजनीतिक पहचान खुद तय करना चाहता है। असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी एआईएमआईएम का उभार इसी बदलाव का संकेत है। मुसलमान महसूस कर रहे हैं कि पारंपरिक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने सिर्फ उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन उनके असली मुद्दों की अनदेखी की।

कई दशकों से मुसलमानों के लिए शिक्षा, रोजगार, कारोबार, सुरक्षा और राजनीतिक हिस्सेदारी जैसे मुद्दे पीछे छूट गए थे। वे हमेशा चुनाव के समय याद किए जाते थे, लेकिन नीतियों और फैसलों में उनकी असली भागीदारी नहीं थी। यही वजह है कि समुदाय में असंतोष बढ़ा और ओवैसी जैसे नेताओं को सुनवाई मिली। यह बदलाव विपक्ष के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि मुस्लिम वोटों में आई दरार ने विपक्षी एकता को कमजोर कर दिया है।

भाजपा ने इस बदलाव को मौके के रूप में देखा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों ने यह समझ लिया था कि अगर विपक्ष के पारंपरिक वोट बैंक में दरार डाली जाए तो उसके परिणाम लंबे समय तक भाजपा के पक्ष में रहेंगे। भाजपा का ध्यान विकास की राजनीति पर रहा है—“सबका साथ, सबका विकास” का संदेश इसीलिए दिया गया। मोदी सरकार की कोशिश यह दिखाने की रही कि सरकारी योजनाएं सभी के लिए हैं, किसी एक समुदाय के लिए नहीं।

अमित शाह की रणनीति हमेशा सामाजिक गणित पर आधारित रही है। उनका मानना है कि अगर किसी समाज में नई उम्मीदें या असंतोष पनप रहा है, तो उस भावनात्मक परिवर्तन को पहचानकर राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है। बिहार के चुनावों में यही हुआ। भाजपा ने विकास योजनाओं को गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्गों तक सफलतापूर्वक पहुंचाया। नतीजा यह हुआ कि इन समुदायों के कुछ हिस्सों ने भाजपा को भी स्वीकार किया।

विपक्ष ने सबसे बड़ी गलती यह की कि उसने मुस्लिम मतदाताओं को स्थायी समर्थनकर्ता मान लिया। उसे लगा कि चाहे कुछ भी हो, मुसलमान हमेशा भाजपा के विरोध में ही वोट देंगे। इसी सोच ने उसकी नीतियों और नेतृत्व को जड़ बना दिया। न युवाओं को जगह मिली, न महिलाओं को, और न ही शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दों पर काम हुआ। परिणाम यह हुआ कि मतदाता विकल्प खोजने लगे।

बिहार में मुस्लिम वोटों के बंटने ने विपक्ष का गणित बिठा दिया। भाजपा को इसका पूरा फायदा मिला। उसने अपने पारंपरिक वोटरों को तो मजबूत रखा ही, साथ ही विपक्ष के मतदाताओं में भी सेंध लगाई। भाजपा की नीतियों ने यह दिखाया कि जब गरीबी, पिछड़ापन और विकास जैसे मुद्दे सीधे नागरिकों की जिंदगी बदलते हैं, तो धर्म और जाति की राजनीति कमजोर पड़ जाती है। यह भाजपा की दीर्घकालिक रणनीति की जीत थी।

विपक्ष के पास अब सिर्फ भाजपा-विरोध की राजनीति बची थी, जो अब जनता को आकर्षित नहीं करती। लोग भावनात्मक भाषणों से ज्यादा नतीजे देखना चाहते हैं। मुसलमान, दलित, युवा और महिलाएं अब नारे नहीं, ठोस कदम चाहते हैं। विपक्ष के लिए जरूरी है कि वह अपने संगठन, संवाद और नेतृत्व में गहरे बदलाव करे।

विपक्ष को यह समझना होगा कि गठबंधन सिर्फ सीटों का जोड़ नहीं होता, बल्कि साझा विचारों का मेल होता है। अगर आपस में भरोसा नहीं है और कोई ठोस रणनीति नहीं बनती, तो गठबंधन टिक नहीं सकता। आज जरूरत इस बात की है कि विपक्ष सामाजिक न्याय की बात को सिर्फ भाषणों से निकालकर जमीन पर उतारे और हर वर्ग को सम्मानजनक प्रतिनिधित्व दे।

भाजपा की जीत के साथ कुछ सवाल भी जुड़े हुए हैं। “सबका साथ, सबका विकास” के बावजूद कई मौकों पर उसका रवैया मुस्लिम समुदाय के लिए आश्वस्तकारी नहीं रहा। सामाजिक ध्रुवीकरण, मॉब लिंचिंग और नागरिकता विवाद जैसे मुद्दों ने सुरक्षा और समावेशिता को लेकर चिंता बढ़ाई है। भाजपा का संदेश भले ही विकास केंद्रित हो, लेकिन राजनीति में “हम बनाम वे” की रेखा अब भी स्पष्ट दिखाई देती है।

विपक्ष के पास यहाँ नैतिक और राजनीतिक बढ़त हासिल करने का बड़ा अवसर था, जिसे वह भुना नहीं सका। यदि विपक्ष ठोस नीतिगत विकल्प प्रस्तुत करता, शिक्षा, रोजगार और अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर ठोस योजनाएँ रखता, तो जन समर्थन की दिशा बदल सकती थी। आज विपक्ष नेतृत्व संकट, विचारहीनता और पुराने नारों के सहारे संघर्ष करता दिख रहा है।

इसी बीच मुस्लिम समाज में उभरती नई राजनीतिक सोच भारतीय लोकतंत्र के लिए सकारात्मक संकेत है। समुदाय अब सवाल पूछ रहा है—विकास कहाँ है? सुरक्षा की गारंटी कौन देगा? युवाओं के लिए शिक्षा और रोज़गार के अवसर कौन उपलब्ध कराएगा? ये प्रश्न अब केवल भाजपा पर नहीं, बल्कि हर राजनीतिक दल पर दबाव बना रहे हैं। यही लोकतंत्र की असली ताकत है।

भाजपा के लिए चुनौती यह है कि वह लगातार सत्ता में बने रहने के साथ-साथ सामाजिक सामंजस्य और समानता की राजनीति को भी सुनिश्चित करे। यदि विकास का लाभ हर वर्ग तक समान रूप से नहीं पहुँचेगा, तो असंतोष पैदा होना तय है। “सबका विकास” तभी सार्थक होगा जब इसमें हर समुदाय को बराबरी और सम्मान की अनुभूति हो।

विपक्ष के लिए अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीति केवल “विरोध” से नहीं, बल्कि “विकल्प पेश करने” से चलती है। जनता अब सिर्फ भाजपा-विरोध नहीं, बल्कि ठोस समाधान चाहती है। विपक्ष को अपनी पुरानी सेक्युलर राजनीति की परिभाषा और रणनीति दोनों को नए सिरे से गढ़ना होगा—जो डर नहीं, भरोसा पैदा करे; जो नारे नहीं, नीतियाँ दे।

मतदाता बदल रहा है, जागरूक हो रहा है, और अपने हितों को लेकर अधिक मुखर हो रहा है। मुस्लिम समाज की नई राजनीतिक चेतना इसी बदलाव की सबसे मजबूत मिसाल है। संदेश साफ है—हमें न डर चाहिए, न प्रतीकात्मकता; हमें बराबरी, पहचान और विकास चाहिए। जो दल इस संदेश को समझ लेगा, वही भारत की राजनीति का नया अध्याय लिखेगा।

बिहार का चुनाव यह भी बताता है कि किसी भी लोकतंत्र में कोई वोट बैंक स्थायी नहीं होता। समाज लगातार बदल रहा है। कोई भी समुदाय हमेशा एक ही पार्टी का साथ नहीं देता। अगर किसी दल की नीतियां उसकी आकांक्षाओं से मेल नहीं खातीं, तो मतदाता दिशा बदल लेता है। यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, जिसे भाजपा ने अच्छी तरह समझा है।

भाजपा ने यह दिखाया कि विकास आधारित राजनीति लंबी दूरी तय करती है। उसके लाभार्थी वर्ग अब एक नए राजनीतिक पहचान समूह की तरह उभर रहे हैं, जो खुद को धर्म या जाति से ऊपर रखता है। जब लोगों को लगता है कि सरकार उनकी ज़िंदगी में बदलाव ला रही है, तो वे पार्टी के साथ जुड़ते हैं। यही भाजपा की स्थायी सफलता की जड़ है।

अब राजनीति का भविष्य उन्हीं दलों का होगा जो जनता की बदलती सोच को समझेंगे और उसके हिसाब से खुद को ढालेंगे। भाजपा ने इस दिशा में ठोस तैयारी कर ली है—उसके पास संगठन, रणनीति और सामाजिक विस्तार का मजबूत ढांचा है। विपक्ष अब भी विचार निर्माण और आत्ममंथन की प्रक्रिया में है। अगर उसने जल्दी कदम नहीं उठाए तो उसकी स्थिति और कमजोर हो जाएगी।

बिहार का फैसला एक बड़ा सबक देता है—राजनीति में स्थायी कुछ भी नहीं होता। पुराने समीकरण बदलते रहते हैं और जो दल इन परिवर्तनों के साथ खुद को नहीं ढालते, वे पीछे छूट जाते हैं। जो भी दल जनता की आकांक्षाओं को समझ लेगा और उसे पूरा करने की कोशिश करेगा, वही आगे बढ़ेगा। भाजपा ने यही रास्ता अपनाया है और फिलहाल वह बढ़त पर है।