प्रमोद भार्गव
बिहार चुनाव में राश्ट्रीय जनता दल की करारी हार के बाद दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव के परिवार में वर्चस्व का संग्राम छिड़ गया है। लालू की बेटी रोहिणी आचार्य ने तेजस्वी यादव के करीबी संजय यादव और रमीज खान को चुनाव में हार के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया है। परिवार के सदस्यों में मानसिक विकृति किस हद तक होती है, इसका उदाहरण देते हुए रोहिणी ने कहा है कि ‘मुझे गालियां देते हुए कहा गया कि मैं गंदी हूं और मैंने अपने पिता को अपनी गंदी किडनी लगवा दी। इसके बदले में मैंने करोड़ों रुपए और चुनावी टिकट लिए। मुझे अब अपनी उदारता पर पछतावा हो रहा है। मेरा देश की सभी बेटियों से अनुरोध है कि जब आपके मायके में कोई बेटा या भाई हो तो भूलकर भी अपने पिता को नहीं बचाएं।‘ लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव भी रोहिणी के समर्थन में खुलकर सामने आ गए हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया है कि ‘यदि बहन रोहिणी का माता-पिता ने किसी भी भी तरह का मानसिक उत्पीड़न दिया है तो उसकी जांच होनी चाहिए।‘ तेजप्रताप ने यहां तक कह दिया कि जयचंदों को जमीन पर दफन कर देंगे। राज और राजनीतिक वंशों में देखने में आया है कि जब तक वे प्रगति कर रहे होते हैं, तब तक उनमें एकता बनी रहती है, लेकिन पतन के समय ये कुनबे बिर जाते हैं। कुदरत का यह ऐसा जाल है कि वह वंशों के डीएनए में ही अलगाव के बीच बो देता है।
भारतीय लोकतंत्र की जमीन पर जड़ें जमाते राजनीति के वंश-वृक्ष देश की संवैधानिक संप्रभुता की जड़ां में मट्ठा घोलने का काम कर रहे हैं। कांग्रेस समेत हरेक क्षेत्रीय राजनीतिक दल में राजनीतिक उत्तराधिकार और वंशवाद को राजनीति के फलक पर स्थापित करने की होड़ लगी है। भाजपा में भी वंशवाद का रोग पनपा हुआ है। वामदलों को जरूर हम अपवाद के रूप में देख सकते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जरूर परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे दलों की मानसिकता पर कुठाराघात करते हुए उन्हें लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना का विरोधी बताते हुए हमेशा हमलावर रहे हैं। उन्होंने इस प्रवृत्ति को सामंतशाही की संरक्षक और लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के लिए घातक बताया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि विकृत वंशवादी मनोवृत्ति के चलते बहुदलीय षासन प्रणाली, एकतंत्रीय व्यक्तिवाद की गिरफ्त में आती जा रही है। इस नाते देश के प्रमुख राश्ट्रीय दल संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था को एकध्रुवीय बनाने की कोशिश में लगे रहे हैं। कांग्रेस ने तो समूची राजनीति को राहुल गांधी और क्षेत्रीय दलों ने परिवार के मुखियाओं पर केंद्रित कर दी है। जबकि संवैधानिक व्यवस्था बहुदलीय है। लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने का यह खेल न तो देश की बुनियादी समस्याएं भूख, अन्याय और असमानता से लड़ने में कामयाब हो सकती हैं और न ही सीमाई संप्रभुता व आंतरिक समस्याओं से निपटने में दो-चार हो सकती हैं ? दरअसल आसानी से मिला राजनैतिक उत्तराधिकार का वैभव व्यक्ति की मानसिकता को सुविधा-भोगी और व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षा को बढ़ाने का काम करता हैं। वह राजसी भोग-विलास में भी लग जाता है। प्रजातंत्र में यह स्थिति अपरोक्ष रूप से सामंती मूल्यों को स्थापित करने वाली है।
स्वतंत्रता के बाद अस्तित्व में आए संविधान में समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आदर्शों के साथ देश को एक मजबूत राश्ट्र में गूंथने की परिकल्पना की गई थी। किंतु जब 1952 में स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव हुआ तो संविधान में दर्ज आदर्श को पलीता लगाने का काम कांग्रेस समेत अनेक राजनीतिक दलों ने धर्म और जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन और वोट मांग कर किया। अब आजादी के 78 साल बाद भी धर्म और जाति तो अपनी जगह कायम हैं ही, खरपतवार की तरह वंशवादी ऐसे बरगदी वृक्ष भी उग आए हैं,जो प्रजातांत्रिक मूल्यों और भावनाओं को ठेंगा दिखाने का काम कर रहे हैं। बुंदेलखंण्ड में एक कहावत प्रचलित है कि चंबल नदी की गहराई एक दर्जन खाटों की बान से भी नहीं नापी जा सकती ? लेकिन प्रजातंत्र की मिट्टी में वंशवाद की जड़ें जितनी गहरी होती जा रही हैं,उन्हें तो दो दर्जन खाटों के बान से भी नहीं नापा जाना मुश्किल है ?
राजनैतिक वंशवाद का वास्ता ग्वालियर क्षेत्र में सिंधिया राजघराने से आज भी मजबूती से जुड़ा है। आजादी की लड़ाई में असहयोग के बावजूद राज-परिवार की जडं़े इतनी मजबूत हैं कि वंशवाद से नाता टूटने की फिलहाल कोई उम्मीद ही नहीं हैं। विजयाराजे सिंधियां से षुरू हुआ वंशवादी यह जीवाणु उनके बेटे माधवराव सिंध्यि और बेटियों वसुंधरा राजे व यशोधरा राजे के बाद इनकी तीसरी पीढ़ी ज्योतिरादित्य और दुश्यंत सिंह के जरिए भी अवतरित होता चला गया है। अब ज्योतिरादित्य अपने पुत्र महाआर्यमन को मध्यप्रदेश क्रिकेट ऐसोशिएशन के जरिए राजनीति की सीढ़ियां चढ़ाने में लगे है। एक समय इस वंश की खूबी यह रही कि यह देश के दोनों प्रमुख राश्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस में समान रूप से स्थापित रहा, लेकिन अब ज्योतिरादित्य के भाजपा में आने के बाद पूरा कुनबा भाजपाई हो गया है।
इन दो वंश-वृक्षों से उत्प्रेरित होकर कालांतर में कई राजनेताओं के परिवार इस डगर पर चल निकले हैं। इसमें वे लोहियावादी भी शामिल हैं,जो कई दशकों तक विवाद को कोसते हुए इन्हें लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरा बताते रहे। लेकिन क्षेत्रीय दलों के प्रमुख बनने और सत्ता की बागडोर हाथ में आते ही लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और रामविलास पासवान इसके प्रमुख उदाहरण हैं। लालू को जब चारा घोटाले के मामले में बिहार का मुख्यमंत्री रहते हुए जेल जाने की नौबत आई,तो उन्हें अपना राष्ट्रीय जनता दल में ऐसा एक भी होनहार नेता नहीं दिखाई दिया जो मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने की काबिलियत रखता हो ? आखिरकार यह योग्यता उन्हें अपनी निरक्षर धर्मपत्नी रावड़ी देवी में ही दिखाई दी। अंततः लालू ने प्रजातांत्रिक राज्यसत्ता रावड़ी को मनोनीत करके हस्तांतरित कर दी। स्वतंत्र भारत में राज्यसत्ता के पारिवारिक उत्तराधिकारी को ही हस्तांतरित किए जाने की यह मनोवृति सबसे षर्मनाक स्थिति रही है। बाद में लालू के दो पुत्र और दो पुत्रियां राजनीति में सीधे दखल देने लग गईं। किंतु 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद लालू कुनबे की कलह सड़क पर आ गई।
मुलायम सिंह यादव की कहानी भी लालू जैसी ही है। इनके पूरे कुनबे ने ही राजनीति में हस्तक्षेप करके गांधी और सिंधिया परिवार को पीछे छोड़ दिया है। मुलायम के भाई शिवगोपाल और रामपाल राजनीति में हैं। बेटा अखिलेश उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। अब समाजवादी पार्टी उन्हीं की मुट्ठी में है। अखिलेश की पत्नी डिपंल भी सांसद हैं। भतीजे धर्मेन्द्र और अक्षय भी सक्रिय राजनीति में हैं। रामविलास पासवान के भाई रामचंद्र तो पहले से ही राजनीति में थे अब उनकी मृत्यु के बाद पुत्र चिराग की मुट्ठी में लोक जनशक्ति पार्टी की कमान है। रामविलास पासवान 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण राजग से अलग हो गए थे। उन्होंने इन दंगों का ठींकरा नरेंद्र मोदी पर फोड़ा था, लेकिन 2014 में जब मोदी का राजनैतिक वर्चस्व देश की राजनीति पर छा गया था, तब चुनाव के पूर्वानुमान ताड़ते हुए वे चिराग के कहने पर राजग गठबंधन के सहयोगी बन गए थे। ये चिराग वही हैं, जो राजनीति में आने से पहले फिल्मों में किस्मत आजमा रहे थे, लेकिन वहां प्रतिभा का कमाल दिखा नहीं पाए तो राजनीति में चले आए। परिवारवाद के चलते राजनीति में तो बिना प्रतिभा के भी कामयाबी हाथ लग जाती है, फिर पिता की विरासत साथ हो तो षंका की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती। हालांकि अब चिराग और उनके चाचा पाराश के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई है।
दक्षिण में भी वंश-वृक्ष खूब फल-फूल रहे हैं। आठ दशक पुराने क्रांतिकारी द्रविड आंदोलन और हिन्दी के विरोध की कोख से जन्मी द्रविड मुनेत्र कशघम यानी द्रमुक भी वंशवाद की राह पर है। एम करुणानिधि की राजनैतिक विरासत का वास्तविक उत्तराधिकारी कौन है, इस सवाल को लेकर उनके दोनों बेटों में खूनी जंग भी छिड़ चुकी है। हालांकि बड़े बेटे एमके अलागिरी की बजाए करुणानिधि ने छोटे बेटे एमके स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोशित किया था, इसलिए पार्टी, तमिलनाडू और राज्य सत्ता की कमान स्टालिन के हाथ है। उनकी बेटी कनिमोझी भी सासंद हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में वे जेल भी जा चुकीं हैं। हालांकि करूणानिधि और उनका दल साम्यवाद से प्रभावित रहा है। मार्क्स का जो ऐतिहासिक भौतिकवाद है, वह प्रजातंत्र में कुनबापरस्ती का विरोध करता है, लेकिन करुणानिधि का वंश इसी कुनुबापरस्ती की गिरफ्त में है। तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी और समाजवादी पार्टी की सुप्रीमो मायावती अविवाहित हैं, बावजूद वंशवादी मानसिकता के चलते अपने भतीजों को आगे बढ़ा रही हैं।
तेलंगाना में केसीआर का उत्तराधिकारी कौन हो इसे लेकर भाई-बहन आपस में टकरा रहे हैं। बेटी कविता 2023 के षराब घोटाले में गिरफ्तार हुई तो भीतर का संघर्श सड़क पर आ गया। महाराश्ट्र में उद्वव ठाकरे और उनके चचेरे भाई राज ठाकरे के अलग होने के बाद 2022 में शिंदे की बगावत ने शिवसेना के दो फाड़ कर दिए। इस अलगाव की वजह से बाल ठाकरे की विरासत कमजोर हुई तो भाजपा सत्ता के सिंहासन पर जा बैठी। आंध्र प्रदेश में वाईएसआर की मौत के बाद 2023-24 में पैतृक संपत्ति पर अधिकार को लेकर जगन और उर्मिला के बीच विवाद सामने आया और दोनों अलग-अलग दलों में पहुंच गए। महाराष्ट्र में शरद पवार की राजनीतिक विरासत पर रस्साकशी के बाद 2023 में अजीत पवार भाजपा-शिंदे सरकार में शामिल हो गए, जिसके चलते पार्टी दो हिस्सों में विभाजित हो गई, इस विभाजन के साथ ही महाराष्ट्र में कई सीटों पर कांग्रेस-शिवसेना और अन्य गठबंधनों के साथ समीकरण बदल गए। जिसका नतीजा कांग्रेस षरद पवार और शिवसेना को भुगतना पड़ा।
आज देश में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह निर्मित हो गई है कि एक जमाने में वंशवाद के जो प्रबल विरोधी थे और जिन्हें गांधी परिवार फूटी आंख भी नहीं सुहाता था, वे इसके समर्थक व निश्ठावान अनुयायी हो गए हैं। इसी कारण राजनीतिक वंशवाद ने अब एक ब्रांड का रूप धारण कर लिया है। आम जनता को इससे सचेत होने की जरूरत है। ब्रिटेन के लोकतंत्र का उल्लेख करते हुए दार्शनिक रूसो ने कहा था,‘इग्लैंण्ड की जनता समझती है कि वह आजाद है,तो यह उसका भ्रम है। जनता की आजादी केवल वहीं तक है,जहां तक वह माननीय सांसदों का चुनाव करती है। चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने के बाद जनता को गुलाम कैसे बनाए रखा जाए, इस दूषित मानसिकता का दुश्चक्र तुरंत घूमना शुरू हो जाता है‘। भारत में यह कथन सत्य के निकट है।
प्रमोद भार्गव





