आतंक पर निर्णायक सख़्ती ज़रूरी

Decisive action against terrorism is necessary

सुरक्षा, कानून और नागरिक चेतना—तीनों मोर्चों पर एक साथ बड़े बदलाव की आवश्यकता

भारत को आतंकवाद से निर्णायक रूप से निपटने के लिए तकनीक, क़ानून और नागरिक सहभागिता—तीनों स्तरों पर तेज़ बदलाव की आवश्यकता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित राष्ट्रीय निगरानी तंत्र और आधुनिक डिजिटल जाँच प्रयोगशालाएँ सुरक्षा की मजबूत आधारशिला बन सकती हैं। त्वरित न्यायालय और कठोर दंड व्यवस्था न्याय प्रक्रिया को गति देंगे। गुप्त इंटरनेट, आभासी मुद्राओं और संदिग्ध धन-प्रवाह पर विशेष निगरानी भविष्य के खतरों को रोकने के लिए आवश्यक है। साथ ही नागरिक सहायता-सेवा, शीघ्र प्रतिक्रिया दल और दलगत राजनीति से ऊपर उठी साझा राष्ट्रीय सुरक्षा नीति ही एक सुरक्षित और सक्षम भारत का मार्ग प्रशस्त करेगी।

डॉ प्रियंका सौरभ

भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ आतंकवाद का स्वरूप बदलकर और भी जटिल और खतरनाक हो चुका है। राजधानी दिल्ली से लेकर देश के विभिन्न शहरों में हाल की घटनाएँ केवल हिंसक वारदातें नहीं, बल्कि यह चेतावनी हैं कि हमारी सुरक्षा संरचनाओं में अभी भी जितनी मजबूती और तत्परता होनी चाहिए, वह नहीं है। हर विस्फोट केवल एक दुर्घटना नहीं, बल्कि यह प्रश्न भी है कि एक उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में भारत क्या अपनी आंतरिक सुरक्षा को उसी गंभीरता से देख रहा है, जैसी दुनिया के विकसित राष्ट्र देखते हैं? अमेरिका ने 9/11 की भयावहता के बाद आतंकवाद को एक ऐसे खतरे के रूप में लिया, जिसने उसके पूरे सुरक्षा तंत्र, कानून व्यवस्था और राजनीतिक दृष्टिकोण को बदलकर रख दिया। भारत को भी अब उसी स्तर की संवेदनशीलता और निर्णायकता की आवश्यकता है।

यह स्वीकार करना होगा कि आतंकवाद अब पुरानी सीमाओं से निकलकर नई तकनीकी दुनिया में प्रवेश कर चुका है। पहले जहाँ उसका संबंध बंदूक, प्रशिक्षण शिविर और सीमा पार से आने वाले गुरिल्ला नेटवर्क से होता था, वहीं अब उसका संचालन सोशल मीडिया, डार्क वेब, एन्क्रिप्टेड चैट, क्रिप्टो करेंसी और फर्जी पहचान के माध्यम से हो रहा है। आज एक अकेला व्यक्ति, जिसे ‘लोन-वुल्फ’ कहा जाता है, दुनिया में बैठे किसी भी संगठन से निर्देश पा सकता है और मिनटों में घटना को अंजाम दे सकता है। क्राउड-रैडिकलाइज़ेशन की प्रक्रिया इतनी तेज़ और गहरी हो चुकी है कि एक वीडियो, एक पोस्ट, या एक उग्र भाषण ही कई युवाओं को गलत दिशा में धकेल सकता है। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि आतंकवाद को केवल सीमापार से आने वाला खतरा माना जाए, वास्तविकता से आँख मूँद लेने जैसा है।

दिल्ली के नेहरू प्लेस जैसी घटनाओं ने फिर यह सामने ला दिया कि आतंक की तकनीक चाहे बदल जाए, पर हमारी कमियाँ वही पुरानी हैं। निगरानी कैमरों की संख्या सीमित है, उनकी गुणवत्ता अपर्याप्त है, और उनमे से भी कई खराब रहते हैं। कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में AI-आधारित निगरानी की व्यवस्था अब तक लागू नहीं है। यह भी एक कटु सत्य है कि जाँच एजेंसियों की क्षमता के मुकाबले घटनाओं की जटिलता कई गुना बढ़ गई है। आधुनिक दुनिया में जहाँ एक छोटे से डिवाइस में असंख्य डिजिटल प्रमाण छिपे हो सकते हैं, वहाँ हमारी फॉरेंसिक लैब्स की संख्या और आधुनिकता अभी भी सीमित है। सवाल यह भी है कि हम कब तक इन पुरानी कमजोरियों के साथ एक बदलती हुई दुनिया का सामना करेंगे?

एक आधुनिक राजधानी में 24×7 इंटेलिजेंट सर्विलांस सिस्टम होना चाहिए, जहाँ हर भीड़भाड़ वाला इलाका, हर बाजार, हर सार्वजनिक स्टेशन और हर संवेदनशील संस्थान AI से जुड़े कैमरों की निगरानी में हो। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल ने वर्षों पहले यह सुनिश्चित कर लिया कि आतंकियों के लिए कोई अंधेरा कोना न बचे। भारत को भी अब निगरानी को प्राथमिकता देनी चाहिए। कानून व्यवस्था की मजबूती केवल पुलिस की संख्या बढ़ाने से नहीं आएगी, बल्कि यह तकनीक, डेटा और तेजी से काम करने वाले नेटवर्क से आएगी।

यह भी एक गंभीर पहलू है कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में हमारी न्यायिक प्रक्रिया उतनी तेज़ नहीं है जितनी होनी चाहिए। वर्षों तक चलने वाली सुनवाई, गवाहों का मुकर जाना, कमजोर अभियोजन और डिजिटल साक्ष्यों की जटिलता—ये सब आतंकियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुँचाते हैं। जबकि अमेरिका ने 9/11 के बाद स्पष्ट कर दिया कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में न देरी स्वीकार्य है, न ढिलाई। भारत को भी यह संदेश देना चाहिए कि आतंकवाद के मामलों में न्याय शीघ्र और दृढ़ होना चाहिए। यह केवल कानूनी आवश्यकता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की अनिवार्यता है।

आतंकवाद को रोकने में नागरिक चेतना की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी एजेंसियों की। एक साधारण नागरिक की एक छोटी-सी सूचना कई बड़े हमलों को रोक सकती है। लेकिन अक्सर लोग पुलिस से संपर्क करने में संकोच करते हैं, उन्हें प्रक्रिया लंबी और जटिल लगती है, या वे यह सोचते हैं कि “यह मेरा काम नहीं।” यह मानसिकता बदलनी होगी। सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जहाँ नागरिक आसानी से सूचना दे सकें, और तत्काल प्रतिक्रिया तंत्र मौजूद हो। मोहल्ला-स्तर तक चौकसी को मजबूत किया जाना चाहिए। नागरिक जब जागरूक होते हैं, तब आतंक के लिए जगह अपने आप कम होती जाती है।

दुर्भाग्य यह है कि भारत में सुरक्षा नीति अक्सर राजनीतिक बहसों में उलझ जाती है। किसी घटना को विपक्ष सत्ताधारी दल की विफलता बताता है, और सत्ता दल उसे सिर्फ ‘आतंकी षड्यंत्र’ कहकर जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करता है। लेकिन आतंकवाद का कोई राजनीतिक रंग नहीं होता। वह न किसी विचारधारा का मित्र है, न शत्रु; वह सिर्फ राष्ट्र और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाता है। इसलिए यह अनिवार्य है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीति से ऊपर रखा जाए। अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर दोनों दल एकजुट रहते हैं; भारत में भी यह संस्कृति विकसित होनी चाहिए।

तकनीक इस युग की नई सुरक्षा दीवार है। भारत को अगले कुछ वर्षों में एक व्यापक तकनीक-आधारित सुरक्षा मॉडल बनाना होगा। AI आधारित CCTV नेटवर्क, चेहरे की पहचान प्रणाली, रीयल-टाइम डेटा इंटरलिंकिंग, आधुनिक डिजिटल फॉरेंसिक लैब, साइबर विशेषज्ञों की नियुक्ति, संदिग्ध वित्तीय लेनदेन की निगरानी और डार्क वेब पर नज़र रखने वाली विशेष टास्क फोर्स—ये सभी कदम अत्यंत आवश्यक हैं। यह समझना होगा कि आतंकवाद को केवल बंदूक और बम से ही नहीं, बल्कि डेटा और तकनीक से भी हराया जा सकता है।

आतंकवाद केवल मानव जनहानि का कारण नहीं बनता, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरे घाव देता है। हर विस्फोट निवेश को डराता है, पर्यटन को कमजोर करता है और व्यापार पर सीधा असर डालता है। एक असुरक्षित राजधानी विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की भूमिका को नुकसान पहुँचा सकती है। इस कारण सुरक्षा केवल नागरिक जीवन का ही नहीं, बल्कि भारत के आर्थिक भविष्य का भी प्रश्न है।

भारत अब एक निर्णयकारी मोड़ पर है। समय आ गया है कि हम आतंकवाद के खिलाफ एक स्पष्ट, कठोर और आधुनिक नीति बनाएं—जिसमें कानून की ताकत, तकनीक की सटीकता, नागरिकों की जागरूकता और सरकार की इच्छाशक्ति—सभी एक साथ कार्य करें। 9/11 के बाद अमेरिका ने जो उदाहरण रखा, वह बताता है कि निर्णायक कदम लेने पर परिणाम बदलते हैं। भारत को भी यही सख़्ती दिखानी होगी। क्योंकि राष्ट्र की सुरक्षा किसी भी प्रकार के समझौते की वस्तु नहीं हो सकती। यह एक ऐसी जिम्मेदारी है, जिसमें देरी की कोई गुंजाइश नहीं है।