नरेंद्र तिवारी
राजनितिक समझदारी से लबरेज बिहार राज्य में विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण रुप से सम्पन्न हुए। एनडीए गठबंधन ने अपेक्षाकृत अधिक सफलता अर्जित की इसके विपरीत इंडिया गठबंधन को शर्मनाक चुनावी पराजय का सामना करना पड़ा। इस चुनाव में नये नवेले राजनैतिक दल जन सुराज के गुब्बारे की भी हवा निकल गयी, जिसके आसमानी दावों ने बिहार सहित सम्पूर्ण देश में जन सुराज और प्रशांत किशोर की अभूतपूर्व सफलता का तात्कालिक भ्रम पैदा कर दिया था, जैसे अपने पहले प्रदर्शन में ही जन सुराज स्थापित राजनैतिक दल के रुप में बिहार की जनता के मन मस्तिष्क पर अंकित हो गया हो, किंतु बिहार के चुनावी परिणामो ने इस भ्रम को दूर किया। इस परिणाम ने जन सुराज के संस्थापक एवं देश के सफलतम चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ़ पीके को यह संकेत भी दिया की अभी दिल्ली दूर है और यह भी की एक रणनीतिकार का राजनीतिज्ञ के रुप में स्थापित हो जाना इतना आसान नही है।
इससे पहले की देश के सफलतम चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ़ पीके के सबंध में बात शुरू की जाए सफल राजनितिक रणनीतिकार की महत्ता को जान लेना जरुरी है। बात 1992 की है अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटन ने राष्ट्रपति पद संभाला और रिपब्लिक पार्टी के शासन का अंत हुआ। इस उपलब्धि में रणनीतिकार जेम्स कार्विल का बड़ा योगदान था। जिन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बिल क्लिटन के लिए चुनावी रणनीति बनाई थी। उन्होंने क्लिटन के लिए आर्थिक रणनीति तैयार करते हुए अमेरिकी जनता को आकर्षित करने वाले लेख लिखें ऐसी स्पीच भी तैयार की थी।
चुनावी रणनीति या प्रबंध वर्तमान डिजिटल युग में तकनिकी भी हो गया है, किंतु भारत जैसे देश में चुनावी रणनीति का प्रचलन प्रशांत किशोर के बाद ही अधिक प्रचलन में आता दिखाई दिया है। भारत के आम चुनाव में तो नारे श्लोगन ही देश में चुनावी माहौल निर्मित कर देते थै। जैसे लालबहादुर शास्त्री द्वारा दिया नारा ‘जय जवान जय किसान, फिर इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा देश में क्रांति लेकर आया और कांग्रेस को इस नारे से चुनावी सफलता भी प्राप्त हुई। अटल जी ने शास्त्री के नारे जय जवान जय किसान को आगे बढ़ाते हुए जय जवान जय किसान और जय विज्ञान का नारा देकर प्रगति में विज्ञान की महत्ता को बढ़ाया था। इन नारों में कांग्रेस का हाथ आम नागरिक के साथ, इंडिया शाइनिंग और फिर सबका साथ सबका विकास बेहद प्रचलित नारे रहे है। इन नारो के निर्माण में भी प्रबंधकीय विधा की आवश्यकता से इंकार नही किया जा सकता है। इनमे बहुत से नारे बेहद प्रभावी होकर चुनाव जिताऊ नारे बनकर इतिहास में अंकित हो गए है।
जिस प्रकार नारे नेता और दल की मंशा को प्रकट करते थै, वैसे ही चुनावी रणनीतिकार नेता और दल की इमेज को बढ़ाने के लिए कार्य करते है। प्रशांत किशोर भारत के सफलतम राजनितिक रणनीतिकार मानें जाते है जिन्होंने 2012 में गुजरात चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव हेतु भाजपा के लिए प्रबंधकीय भूमिका निभाई थी। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की छवि को जनता के अनुकूल और आकर्षक बनाने का प्रयास भी किया। बिहार में नितीश हो या बंगाल में ममता प्रशांत के चुनावी प्रबंधन का लाभ लेकर चुनाव जितने में कामयाब हुए है। अब सवाल यह उठता है की देश के ख्यातनाम चुनावी रणनीतिकार पीके स्वयं की पार्टी जन सुराज के लिए रणनीति क्यों नही बना पाए? क्यों पीके के होते हुए भी जन सुराज अपने पहले चुनाव में चुनावी सफलता अर्जित करने में विफल रहे ?
प्रशांत किशोर की चुनावी असफलता को एक चुनावी रणनीतिकार की असफलता मानना जल्दबाजी भरा फैसला होगा और जन सुराज और प्रशांत किशोर के साथ अन्याय भी। दरअसल नए दल और नेता को स्थापित करने में समय लगता है। एक राजनैतिक दल जो बिहार 2 अक्टूम्बर 2025 को अस्तित्व में आया हो, जिसके नेता ने प्रबंधकीय विधा से राजनितिक क्षेत्र में कदम रखा हो, जिसने चुनावी प्रबंधक के शूटबूट से खादी के गणवेश धारणकर गांधी की जयंती पर बिहार में अपनी राजनितिक पारी का आगाज किया हो। फिर बिहार जैसे राज्य में चुनावी सफलता प्राप्त करना आसान भी नही माना जा सकता है। इसके विपरीत बिहार जैसे बड़े राज्य में प्रथम विधानसभा चुनाव में 238 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का प्रबंधन जन सुराज और पीके के बेहतर भविष्य का संदेश है। बिहार चुनाव अभियान के दौरान पीके का मिडिया प्रबंधन राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों से बेहतर दिखाई दिया। उन्होंने बिहार की समस्याओं को दमदारी से उठाया, राज्य से होने वाले प्रदेशवासियों के पलायन की बात की जोरदार तरीके से मतदाताओं के समक्ष रखी, बिहार में शिक्षा, चिकित्सा जैसी मुलभुत सुविधाओं की बात को जनता के मुद्दे बनाने का प्रयास किया। उन्होंने बिहार को विकसित प्रदेश बनाने की बात कहते हुए बदलाव का नारा बुलंद किया। उनके मिडिया प्रबंधन ने साल भर पहले जन्मे दल को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया है। बरसो से स्थापित दलों के सामने एक नए नेवले राजनितिक दल का बिहार की राजनीति में चर्चा में आना यह प्रशांत किशोर की राजनितिक सफलता की और इशारा करती है। चुनावी पराजय को आदर के साथ स्वीकार करना, फिर जनता की अदालत में जाना की बातें प्रशांत किशोर के आगामी समय की रणनीतिक समझ का हिस्सा माना जा सकता है।
बिहार के चुनावी महासमर में महज बिहार ही नही देश की जनता में भी ईमानदार छवि के नेताओं को चुनावी मैदान में उतारने जैसे विषयों पर बात हुई। राजनीति के अपराधीकरण पर जोरदार बहस हुई जनमानस से यह विषय रूबरू हुए। यह एक नये दल और उसके नेता की राजनितिक उपलब्धि के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। वर्तमान दौर की राजनीति में जनता को तात्कालिक आर्थिक लाभ देकर चनावी सफलता प्राप्त करने का चलन बढ़ता जा रहा है। बिहार चुनाव में सफलता पर सवार एनडीए भी इसी तात्कालिक आर्थिक लाभ पर सवार होकर विजय का जश्न बना रही है। उन्हें जीत की ख़ुशी मनाने का अधिकार है। किंतु बिहार में प्रशांत किशोर की राजनितिक आमद का प्रभाव पड़ रहा है आगामी समय में जन सूराज एवं उसके नेता प्रशांत किशोर बिहार की जनता को प्रभावित करेगी ऐसा दिखाई दे रहा है। बिहार में गांधी की शैली पर चलने वाला एक नेता उदय हो रहा है। जो चुनावी पराजय के बाद भी मौन व्रत रखकर जनता से जुड़ने की बात कह रहा है, जो अपनी 90 फीसदी सम्पति दान करने की बात कर रहा है। बिहार की उपजाऊ जमीन ने देश को कई राजनैतिक चरित्र दिए है। प्रजातंत्र को मजबूत करने वाली लड़ाई का केंद्र भी बिहार रहा। सफलता संघर्षो से मिलती है प्रशांत किशोर बिहार के राजनैतिक जगत के धूमकेतु सिद्ध होंगे। उनकी असफलता को एक अच्छी शुरुवात के नजरिए से देखने की आवश्यकता है।





