डॉ विजय गर्ग
भारत में सदियों से छह ऋतुओं (बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर) का अपना एक क्रम रहा है। हर ऋतु अपने विशिष्ट सौंदर्य, मौसम और जीवनशैली के साथ आती थी। लेकिन आज, बढ़ते प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण यह प्राकृतिक क्रम टूट रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रदूषण रूपी दानव हमारी प्यारी ऋतुओं को धीरे-धीरे निगलने लगा है।
ऋतुओं के परिवर्तन का बिगड़ता स्वरूप
अब उत्तर भारत में, विशेषकर, छह की बजाय केवल तीन मुख्य मौसम ही अनुभव किए जाते हैं: सर्दी, गर्मी और बरसात। और वे भी अपने निश्चित समय पर नहीं आते।
- विलुप्त होती हेमंत और शिशिर (शीत): पहले अक्टूबर के अंत तक हल्की ठंड महसूस होने लगती थी (हेमंत), जो दिसंबर-जनवरी में भीषण शीत (शिशिर) में बदल जाती थी। अब, वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग) के कारण मानसून का विस्तार होता जा रहा है। अक्टूबर-नवंबर तक भी मानसूनी बारिश होती रहती है, और अचानक से तापमान गिर जाता है, जिससे हेमंत ऋतु का सुखद एहसास लगभग समाप्त हो गया है। ठंड का समय भी कम हो गया है।
- गायब होती बसंत बयार: बसंत ऋतु (मार्च-अप्रैल) को सुहावना मौसम माना जाता था। लेकिन अब बीते कुछ वर्षों से, मार्च-अप्रैल से ही हीट वेव (अत्यधिक गर्मी) शुरू हो जाती है। परिणामस्वरूप, बसंत की बयार महसूस नहीं होती और सीधे गर्मी का ताप झेलना पड़ता है।
- अनियमित वर्षा: प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से मानसून का पैटर्न भी बदल गया है। कहीं अत्यधिक बारिश से बाढ़ आ रही है, तो कहीं कम बारिश से सूखा पड़ रहा है, जिससे कृषि कैलेंडर पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया है।
प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग का सीधा असर
इस बदलाव का मुख्य कारण मानवजनित प्रदूषण और उससे उपजा ग्लवार्मिंग है।
- वायु प्रदूषण (स्मॉग): सर्दियों में शहरों पर छाने वाली जहरीली धुंध (स्मॉग) सूर्य के प्रकाश को धरती तक पहुँचने से रोकती है। इससे रात का तापमान तो कम होता है, लेकिन दिन में ठंड का वह प्राकृतिक एहसास नहीं हो पाता, जिससे शीत ऋतु का आनंद बाधित होता है।
- ग्रीनहाउस गैसें: जीवाश्म ईंधन जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों का स्तर खतरनाक दर से बढ़ा है। ये गैसें पृथ्वी के चारों ओर एक परत बनाकर गर्मी को बाहर जाने से रोकती हैं, जिससे औसत वैश्विक तापमान बढ़ रहा है। यही बढ़ा हुआ तापमान ऋतुओं के समय और तीव्रता को बिगाड़ रहा है।
- ओजोन रिक्तीकरण: वायु प्रदूषण समतापमंडल में ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाता है, जिससे पृथ्वी पर जीवन के लिए खतरा बढ़ता है और मौसमी संतुलन बिगड़ता है।
स्वास्थ्य और कृषि पर गंभीर परिणाम
ऋतुओं के इस विघटन का सीधा असर हमारे जीवन पर पड़ रहा है:
- स्वास्थ्य संकट: अचानक बढ़ता-घटता तापमान, स्मॉग और दूषित पानी से श्वसन संबंधी बीमारियाँ (अस्थमा), एलर्जी, हृदय रोग और डेंगू, मलेरिया जैसे संक्रामक रोग बढ़ रहे हैं।
- कृषि का नुकसान: अनियमित वर्षा और तापमान में वृद्धि से फसलों का चक्र टूट रहा है। धान, गेहूँ और कपास जैसी महत्वपूर्ण फसलें प्रभावित हो रही हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा पर खतरा मंडरा रहा है।
मौसम का गड़बड़ाता चक्र
प्रदूषण, विशेषकर वायु में बढ़ता पार्टिकुलेट मैटर और ग्रीनहाउस गैसें, तापमान को लगातार बढ़ा रही हैं। इसका सीधे-सीधे असर मौसम चक्र पर पड़ा है। गर्मी लंबी और तीखी होने लगी है, जबकि सर्दी छोटी और अनियमित। बरसात कभी अपेक्षा से अधिक, कभी अत्यंत कम और असमय होने लगी है। अब ऋतुएँ कैलेंडर नहीं, बल्कि प्रदूषण के स्तर के अनुसार बदल रही हैं।
- धुंध ने निगल ली सुबहें और शामें
सर्दियों की धुंध, जो कभी सौंदर्य का प्रतीक मानी जाती थी, अब स्मॉग का रूप ले चुकी है। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर भारत के अधिकांश शहरों में स्मॉग की मोटी चादर सूरज की रोशनी तक को छिपाने लगी है। ऐसे में शरद और हेमंत की महीन ठंड का आनंद गायब होने लगा है। लोगों को मौसम कम और प्रदूषण ज्यादा महसूस होने लगा है।
- प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है
प्रदूषण के कारण तापमान में असामान्य बदलाव पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के जीवन चक्र को प्रभावित कर रहा है। फल-फूल अपने निर्धारित समय पर नहीं खिल रहे। परिंदे अपनी पारंपरिक प्रवास-यात्राएँ बदलने लगे हैं। फसलों की बुआई और कटाई का समय भी अव्यवस्थित होता जा रहा है। यह असंतुलन आने वाली खाद्य सुरक्षा और पारिस्थितिक स्थिरता के लिए खतरा है।
- ऋतु–संवेदनाओं का खो जाना
बचपन की यादों में बसंत के फूलों की महक, पीली सरसों का सौंदर्य, सावन की खुशबू, शरद की उजली धूप शायद हमेशा के लिए धुंधली पड़ने लगी है। आज की पीढ़ी मौसम का सुख नहीं, प्रदूषण का दंश अधिक महसूस कर रही है। ऋतुएँ अब अनुभव नहीं, आंकड़ों और चेतावनियों का विषय बन गई हैं।
- समाधान की दिशा
अगर हम अभी नहीं जागे तो आने वाले समय में ‘ऋतु’ केवल किताबों में ही रह जाएँगी। इसके लिए जरूरी है—
- वायु प्रदूषण के स्रोतों पर सख्त नियंत्रण
- पराली प्रबंधन के लिए तकनीकी समाधान और किसानों को सहयोग
- वाहनों और उद्योगों के उत्सर्जन में कमी
- बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण
- जनता में पर्यावरणीय जागरूकता
- समाधान सामूहिक प्रयासों से ही संभव है, क्योंकि प्रदूषण भी सामूहिक समस्या है।
उपसंहार
प्रदूषण ने हमारी जीवन–शैली ही नहीं, बल्कि प्रकृति के प्राणवायु रूपी मौसमचक्र को भी जकड़ लिया है। ऋतुओं का विलुप्त होना केवल पर्यावरण का नहीं, हमारी संस्कृति और अस्तित्व का भी संकट है। यदि हम अभी कदम नहीं उठाएँगे तो आने वाली पीढ़ियाँ बसंत, शरद और हेमंत को केवल कहानियों में ही पढ़ेंगी।
समाधान: एक सामूहिक प्रयास
यह संकट अब केवल महानगरों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे भारत की हवा और पानी को विषाक्त कर चुका है। इस पर तत्काल कार्रवाई आवश्यक है:
प्रदूषण नियंत्रण: व्यक्तिगत और सरकारी स्तर पर वायु, जल और भूमि प्रदूषण को कम करने के लिए सख्त उपाय अपनाना।
नवीकरणीय ऊर्जा: जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करके सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों को अपनाना।
वन संरक्षण और वृक्षारोपण: वनों की कटाई को रोकना और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना, क्योंकि पेड़ वातावरण को शुद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
प्रकृति का दिया हुआ यह अनमोल उपहार—हमारी ऋतुएँ—हमें बचाना होगा। अगर हमने अभी सजगता नहीं दिखाई, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल किताबों में ही बसंत की बयार और हेमंत की सुखद दस्तक के बारे में पढ़ पाएंगी।





