कर्नाटक की सियासत में अब डीके रहेंगे या सिद्धारमैया

Will DK or Siddaramaiah rule Karnataka politics now?

स्वदेश कुमार

कर्नाटक की राजनीति में इस समय एक बड़ा राजनीतिक घमासान चल रहा है, जिसका केन्द्र बिंदु उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार और मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर टकराव है। दोनों के बीच विवाद इतना गहरा हो गया है कि जिससे पार्टी के अंदर मतभेद साफ नज़र आने लगे हैं। कांग्रेस पार्टी के लिए यह परिस्थिति चुनौतीपूर्ण बन गई है क्योंकि दोनों नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं और राजनीतिक दबाव पार्टी की लाइन के खिलाफ जाकर संकट उत्पन्न कर रहे हैं। डीके शिवकुमार राजनीतिक रूप से कर्नाटक में अपनी पकड़ मजबूत करते आ रहे हैं। वे लंबे समय से पार्टी के मुख्य नेतृत्व में सक्रिय रहे हैं और उनकी पकड़ पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ताओं व नेताओं के बीच है। ऐसे में उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी के मामले में कोई समझौता करने का मन नहीं बनाया। शिवकुमार का मानना है कि उनके अनुभव, जनाधार, और राजनीतिक योगदान के कारण वे इस पद के लिए अधिक योग्य हैं। उन्होंने सीधे तौर पर यह भी संकेत दिया है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी से कम पर वे कभी सहमत नहीं होंगे।सिद्धरमैया, जो अभी प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, वे भी अपनी कुर्सी छोड़ने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। उनकी भी पार्टी में अपनी पकड़ है और वे भी इस पद के लिए पूरी तरह तैयार हैं। सिद्धरमैया के समर्थक भी उनकी सरकार को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं और किसी भी तरह की बगावत को पार्टी हित के खिलाफ मानते हैं। इसलिए उनके लिए यह कुर्सी छोड़ना कोई आसान फैसला नहीं है।इस बीच, पार्टी के आलाकमान के लिए स्थिति काफी पेचीदा हो गई है। दोनों नेताओं के बीच हो रहे इस टकराव ने कांग्रेस के रणनीतिक कमजोरियों को उजागर कर दिया है। बगावत इतनी बढ़ चुकी है कि अगर पार्टी नेतृत्व समय पर सही और संतुलित निर्णय नहीं लेता है तो इसका असर विधानसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है। खासकर जब पार्टी को कर्नाटक में अपनी पकड़ और संगठन को मजबूत करने की जरूरत है।

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की राय में अगर कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस विवाद को शांति से नहीं सुलझाते हैं, तो पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह टकराव आज केवल मुख्यमंत्री पद का नहीं रहा, बल्कि दोनों के समर्थक भी अलग-अलग मोर्चे पर खड़े हो गए हैं। बताया जा रहा है कि शिवकुमार के समर्थक तो यहां तक कि बीजेपी से भी संपर्क करने में गुरेज नहीं कर रहे, जो कांग्रेस पार्टी के लिए चिंताजनक स्थिति है। यह संकेत है कि अगर पार्टी आलाकमान ने समय रहते स्पष्ट निर्देश या मध्यस्थता नहीं की, तो शिवकुमार के नेतृत्व में पार्टी के भीतर अलगाव या विघटन की संभावना भी जताई जा रही है।पार्टी नेतृत्व ने फिलहाल इस मामले में चुप्पी साध रखी है, लेकिन खबरों के अनुसार राहुल गांधी ने पक्षों की बात सुननी शुरू कर दी है। इसके बाद ही कोई अंतिम निर्णय लिया जाएगा। परंतु इधर दोनों पक्षों के खेमे भी अपनी-अपनी दलीलों को पार्टी अध्यक्ष तक पहुँचा चुके हैं। दोनों ओर से इसकी उम्मीद जताई जा रही है कि जो भी फैसला आएगा, वह उनके लिए स्वीकार्य होगा। लेकिन राजनीतिक धरातल पर देखा जाए तो ऐसा होना मुश्किल लगता है क्योंकि दोनों नेताओं की महत्वाकांक्षाएं इतनी मजबूत हैं कि वे दोनों ही कम समझौता करने को तैयार नहीं हैं।इस विवाद की वजह से कांग्रेस पार्टी के अंदर सशक्त नेतृत्व की कमी उजागर हो रही है। ऐसी स्थिति में पार्टी के लिए जरूरी होगा कि वह जल्द से जल्द इस मुद्दे का समाधान निकाले ताकि आगे बढ़कर चुनाव तैयारी और संगठन के विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। यदि लंबे समय तक यह विवाद बना रहा तो इससे पार्टी के कार्यकर्ता भी निराश हो सकते हैं और विरोधी दलों को भी यह मौका मिलेगा कि वे इसका राजनीतिक लाभ उठाएं।

यह मुद्दा कर्नाटक की राजनीति में भी हलचल मचा रहा है। विपक्षी दल इसे कांग्रेस में अंदरुनी फूट के रूप में दिखा रहे हैं और अपनी ताकत बताने का मौका तलाश रहे हैं। यदि कांग्रेस ने इस विवाद को संभाला नहीं तो कर्नाटक में उसकी सरकार खतरे में पड़ सकती है। ऐसे हालात में पार्टी नेतृत्व के सामने चुनौती यह है कि वे दोनों प्रमुख नेताओं के बीच सामंजस्य बनाएं और पार्टी की एकजुटता को बनाये रखें। राजनीतिक जमावट और नेताओं के बीच सत्ता की होड़ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर रही है कि कांग्रेस के लिए समय रहते सही निर्णय लेना बेहद जरूरी हो गया है।कर्नाटक की राजनीति में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए यह लड़ाई अब केवल पद की नहीं बल्कि भविष्य की दिशा तय करने वाली भी हो गई है। पार्टी आलाकमान की भूमिका इस मामले में निर्णायक साबित होगी और राहुल गांधी की मंशा पर सभी की नजरें टिकी हैं। अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि राहुल गांधी किस तरह का निर्णय लेंगे और वह कैसे दोनों पक्षों को संतुष्ट करेंगे। लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस के लिए अब यह मामला केवल नेतृत्व का नहीं, बल्कि समूचे संगठन की स्थिरता का प्रश्न बन चुका है। प्रदेश की राजनीति में जो भी हो, उसका असर राष्ट्रीय स्तर पर भी देखे जाने की संभावना है, क्योंकि कर्नाटक हमेशा से कांग्रेस की महत्वपूर्ण राजनीतिक जंग का मैदान रहा है।इस समय कांग्रेस नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह गणना से काम लेकर विवाद को जल्द से जल्द समाप्त कराए। तभी पार्टी अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित कर सकेगी और आगामी चुनावों में बेहतर स्थिति में नजर आएगी।