ललित गर्ग
भारत का लोकतंत्र आज जिस निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, वहां उसकी विश्वसनीयता और मजबूती का सवाल पहले से कहीं अधिक गंभीर हो गया है। चुनावों की पारदर्शिता, मतदाता सूची की शुचिता और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से मतदाता पहचान की सत्यता को बनाए रखना केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को सुरक्षित रखने का मूल तत्व है। विशेष गहन पुनरीक्षण अर्थात एसआईआर इसी उद्देश्य से प्रारंभ की गई वह अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मतदाता सूची में मौजूद संदिग्ध, दोहरे या अवैध प्रविष्टियों की पहचान और सत्यापन किया जा सके। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस कार्य को लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक कदम माना जाना चाहिए, उसे कुछ विपक्षी दल अपने राजनीतिक हितों के चश्मे से देख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में जिस प्रकार के उतावले, भावनात्मक और अक्सर तथ्यहीन तर्क प्रस्तुत किए गए, उससे यही प्रतीत होता है कि यह विरोध किसी तर्क या सिद्धांत का नहीं, बल्कि वोट-बैंक की चिंता का परिणाम है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर बेतूका राष्ट्र-विरोधही अड़ंगा लगाने वालों को आईना ही दिखाया कि बिहार में तो एक भी व्यक्ति यह शिकायत करने नहीं आया कि उसका नाम वोटर लिस्ट से हटा दिया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार में एसआईआर के समय कुछ खास लोगों के वोट काटे जाने का आरोप उछालने वाले भी ऐसे कथित पीड़ित लोगों के उदाहरण का साक्ष्य नहीं दे सके थे। हालांकि बिहार में एसआईआर पर विपक्षी दलों को मुंह की खानी पड़ी, लेकिन वे बाज नहीं आ रहे हैं और अब 12 राज्यों में जारी एसआईआर की प्रक्रिया को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष खड़े हैं।
यह तब है, जब एसआईआर वाले राज्यों में करीब 65 प्रतिशत फार्म भरे जा चुके हैं। इसका मतलब है कि लोग इस प्रक्रिया में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं। एसआईआर होना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि मतदाता सूचियों में भारी त्रुटियां एवं विसंगतियां है, बड़ी संख्या में ऐसे लोगों के नाम दर्ज हैं, जिनकी मृत्यु हो गई है या फिर जो अन्यत्र चले गए हैं। इसके अलावा ऐसे भी लोग हैं, जिनके पास दोहरे मतदाता पहचान पत्र हैं। चुनाव आयोग एसआईआर के जरिये इन्हीं विसंगतियों को दूर कर रहा है, लेकिन विपक्षी दलों को पता नहीं क्यों यह रास नहीं आ रहा है। वे मतदाता सूचियों में गड़बड़ी की शिकायत भी कर रहे हैं और एसआईआर भी नहीं होने देना चाहते है। लोकतंत्र की जड़ों में सबसे बड़ा विष तब घुलता है जब मतदाता सूची अवैध हस्तक्षेपों, बाहरी घुसपैठियों और राजनीतिक संरक्षण के सहारे खड़ी प्रविष्टियों से दूषित होने लगती है। भारत लंबे समय से विदेशी घुसपैठ की समस्या से जूझ रहा है। राज्यों के बीच असंतुलित प्रवासन, सीमावर्ती क्षेत्रों में बेतरतीब आबादी का फैलाव, राजनीतिक शरण और संरक्षण के नाम पर अवैध बसेरों का निर्माण-ये सब ऐसी वास्तविकताएं हैं जिन्हें अनदेखा करना राष्ट्रहित से खिलवाड़ है।
एसआईआर की प्रक्रिया इसीलिए आरंभ की गई कि मतदाता सूची को अद्यतन, शुद्ध, विश्वसनीय, पारदर्शी और तथ्यों पर आधारित बनाया जा सके। यह प्रक्रिया किसी समुदाय, क्षेत्र या वर्ग के खिलाफ नहीं, बल्कि व्यक्तिगत पहचान के सत्यापन पर आधारित है। यह समान रूप से हर उस मतदाता की जांच करती है जो कानूनन इस प्रक्रिया का हिस्सा है। इसके बावजूद विपक्ष द्वारा इसे अधिकारों पर हमला, राजनीतिक भेदभाव या अविश्वास की राजनीति से जोड़ना केवल दुष्प्रचार एवं भोलेभाले लोगों को गुमराह करना है। यह सवाल इसलिए उठता है कि जब प्रक्रिया सबके लिए समान है, सभी क्षेत्रों पर लागू है और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में संचालित हो रही है, तो किस आधार पर इसे लोकतंत्र विरोधी कहा जा सकता है? वास्तव में विपक्ष इस प्रश्न का ठोस, तथ्यपूर्ण उत्तर देने में असफल रहा है। यह आशंका निराधार नहीं कि बंगाल जैसे राज्यों में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठिए मतदाता बन बैठे हैं। उनके बांग्लादेश लौटने से इसकी पुष्टि भी होती है। यह ठीक है कि पहचान पत्र के रूप में आधार भी मान्य है, लेकिन उसे भी फर्जी तरीके से बनवाया गया हो सकता है। ऐसे में चुनाव आयोग को दस्तावेजों के सत्यापन का अधिकार मिलना ही चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत विपक्षी तर्कों का विश्लेषण करें, तो उनमें वास्तविक तथ्यों एवं आंकड़ों का अभाव है। भावनात्मक अपीलें, आशंकाओं का जानबूझकर सृजन, प्रशासनिक प्रक्रिया को अविश्वसनीय बताने का प्रयास, और तथ्यों से अधिक आरोपों का शोर-ये सब इस बात की ओर संकेत करते हैं कि उद्देश्य लोकतंत्र की रक्षा नहीं बल्कि अपनी राजनीतिक जमीन को बचाना है। यदि मतदाता सूची वास्तव में त्रुटिरहित है, यदि घुसपैठियों का प्रश्न बिना आधार का है, यदि किसी वर्ग की वैधता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं, तो फिर सत्यापन से भय क्यों? सत्यापन तो वही व्यक्ति या समूह टालेगा, जो स्वयं को संदेह के घेरे में पाता हो। जो स्वच्छ, वैध और तथ्यपूर्ण हैं उन्हें कभी डर नहीं होता कि जांच उनके लिए समस्या बन जाएगी। इसलिए यह विरोध लोकतंत्र की चिंता नहीं बल्कि लोकतंत्र का उपयोग करके अपने हित साधने की कोशिश प्रतीत होता है। भारत की चुनाव प्रणाली में वर्षों से यह शिकायत उठती रही है कि मतदाता सूची में दोहरी प्रविष्टियां, मृत व्यक्तियों के नाम, काल्पनिक मतदाता और बाहरी लोगों की अवैध प्रविष्टियां बढ़ती जा रही हैं। इनमें से अधिकांश समस्याएं प्रशासनिक लापरवाही का परिणाम हैं, लेकिन एक बड़ा हिस्सा ऐसे राजनीतिक हितों का भी है जो ऐसी प्रविष्टियों को बनाए रखने में खुद को लाभान्वित देखते हैं।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि भारत के अनेक राज्यों में स्थानीय राजनीतिक तंत्र विदेशी घुसपैठियों के लिए न केवल छत्रछाया प्रदान करता रहा है, बल्कि उन्हें वोट-आधारित पहचान और सुविधाओं तक पहुंच भी दिलाता रहा है। इन परिस्थितियों में एसआईआर जैसी प्रक्रिया न केवल उचित है, बल्कि अत्यंत आवश्यक है। यह प्रक्रिया जितनी देर से लागू होगी, लोकतंत्र पर उतना ही खतरा बढ़ेगा। एसआईआर के विरोध का एक और पक्ष भी है, और वह है विपक्ष का यह डर कि यदि मतदाता सूची शुद्ध कर दी गई, तो उनका चुनावी गणित प्रभावित होगा। यह राजनीति का वह पक्ष है जिसमें आदर्शवाद के लिए बहुत कम जगह है। राजनीतिक दल अक्सर यह मानकर चलते हैं कि जहां संख्या उनके पक्ष में है, वहां सुधार का कोई हस्तक्षेप उनकी स्थिति को कमजोर कर सकता है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की आत्मा के विरुद्ध है, क्योंकि लोकतंत्र केवल सत्ता प्राप्त करने का माध्यम नहीं बल्कि नागरिक विश्वास और संवैधानिक मूल्यों का संरक्षक है।
एसआईआर का उद्देश्य किसी को मताधिकार से वंचित करना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि मताधिकार का उपयोग वही करे जो इसके योग्य है, जो देश का वैध नागरिक है, और जिसका नाम सही तरीके से मतदाता सूची में दर्ज है। भारत का भविष्य उन सुधारों पर निर्भर करता है जो चुनावों को अधिक पारदर्शी और विश्वसनीय बनाएं। जब तक मतदाता सूची शुद्ध नहीं होगी, तब तक चुनाव परिणामों पर संदेह रहेगा और लोकतंत्र की साख कमजोर होती जाएगी। एसआईआर इस दिशा में उठाया गया साहसिक कदम है, जिसे किसी भी प्रकार के राजनीतिक दबाव या भ्रम फैलाने वाले अभियानों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में यह प्रक्रिया और अधिक निष्पक्ष और संरक्षित होती है, इसलिए विरोध के ये प्रयास और भी आधारहीन प्रतीत होते हैं।
लोकतंत्र की मरम्मत और मजबूती का यह अवसर खोना राष्ट्रहित के विरुद्ध होगा। जो दल इस प्रक्रिया को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, वे भले ही इसे जनता के हित का मुद्दा बताने का प्रयास करें, परंतु वस्तुतः वे अपने संकीर्ण हितों की रक्षा कर रहे हैं। भारत को ऐसी राजनीति की नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जो सत्य को प्राथमिकता दे, सत्ता से अधिक संविधान को महत्व दे, और मतदाता सूची को राजनीतिक हथियार नहीं बल्कि लोकतंत्र की पवित्र सूची माने। एसआईआर की गति और दायरा इसलिए न केवल बनाए रखना चाहिए, बल्कि उसे और भी तेज, निर्णायक और प्रभावी बनाना चाहिए, ताकि भारत का लोकतंत्र अवैध प्रभावों से मुक्त होकर एक मजबूत, पारदर्शी और विश्वसनीय भविष्य की ओर अग्रसर हो सके।





