- पूजा,इबादत प्रार्थना सेवा और आध्यात्मिकता, मनोरंजन नहीं है: मानव आस्था,अध्यात्म और सांस्कृतिक उत्तरदायित्व का वैश्विक विमर्श
- दुनियाँ के अनेक देशों में चुनावों सत्ता- समीकरणों, सार्वजनिक नीतियों और सामाजिक एजेंडों में आध्यात्मिकता के नाम पर जनमत को प्रभावित करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है
एडवोकेट किशन सनमुख दास भावनानी
वैश्विक स्तरपर आधुनिक विश्व का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि जहां विज्ञान, तकनीक और भौतिक प्रगति मानव जीवन को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले गई है,वहीं मनुष्य का आंतरिकसंसार अस्थिरता, अनिश्चितता और विभाजन की गिरफ्त में है।ऐसे समय में पूजा,इबादत प्रार्थना सेवा और आध्यात्मिकता मनुष्य के मन में संतुलन,करुणा और शांति का आधार बनने चाहिए थे, पर विडंबना यह है कि आज इन्हीं आध्यात्मिक क्षेत्रों में राजनीति का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है।आध्यात्मिकता का राजनीतिकरण वैश्विक स्तरपर एक गहरी चिंता का विषय बन चुका है क्योंकि इससे न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रभावित होती है, बल्कि सामाजिक एकता, धार्मिक सद्भाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कमजोर पड़ती है। इसलिए यह आवश्यक है कि पूजा-इबादत प्रार्थना सेवा को मनोरंजन, प्रचार-प्रसार, या राजनीतिक लाभ के साधन के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति को रोका जाए और अध्यात्म की पवित्रता को पुनर्स्थापित किया जाए। विश्व की लगभग सभी धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराएँ,हिंदू, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, यहूदी, ताओ, शिंतो- पूजा को एक आंतरिक प्रक्रिया मानती हैं। हिंदू दर्शन में पूजा मन,बुद्धि,चित्त की शुद्धि का साधन है, केवल क्रियाकलाप का नहीं। बौद्ध परंपरा में पूजा नहीं, बल्कि स्मृति और ध्यान केंद्र में है, जिसका उद्देश्य मन की अशुद्धियों को शांत करना है।इस्लाम में नमाज़ मनोरंजन नहीं, बल्कि विनम्रता का प्रशिक्षण है। ईसाई प्रेयर को आत्मिक संवाद कहते हैं, जहाँ बाहरी आडंबर से अधिक भीतरी पवित्रता को महत्व दिया जाता है।यानें पूरी दुनियाँ इस बात को मानती है कि पूजा कोई कार्यक्रम याफेस्टिविटी नहीं,बल्कि एक अंतर्यात्रा है,स्वयं को जानने की, स्वयं को सुधारने की,और स्वयं को ईश्वर या ब्रह्मांडीय चेतना से जोड़ने की।
मानव सभ्यता के विकास में पूजा,ध्यान,प्रार्थना और आध्यात्मिक साधनाएँ केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं रहीं,बल्कि मनुष्य के आंतरिक संतुलन,मानसिक अनुशासन और सामाजिक नैतिकता के निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में विकसित हुई हैं। किंतु आज के डिजिटल युग,तीव्र बाज़ारीकरण,उपभोक्तावाद और मनोरंजन-प्रधान संस्कृति में पूजा के वास्तविक स्वरूप के समक्ष सबसे बड़ा संकट यही है कि इसे अनायास ही मनोरंजन, उत्सव, प्रदर्शनी या दिखावे के रूप में देखा जाने लगा है।पूजा इबादत प्रार्थना सेवा मनोरंजन नहीं है यह पंक्ति केवल धार्मिक चेतना को पुनर्स्थापित करने का आह्वान नहीं, बल्कि 21वीं सदी की मानव सभ्यता के लिए एक नैतिक मार्गदर्शन भी है कि आध्यात्मिकता और बाज़ार, श्रद्धा और मनोरंजन, साधना और प्रदर्शन के बीच सीमाओं को समझे बिना समाज का मानसिक स्वास्थ्य, सांस्कृतिक शुचिता और आध्यात्मिक अनुशासन लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता।
साथियों बात अगर हम पूजा या इबादत प्रार्थना सेवा मनोरंजन नहीं है:पवित्रता की मूल आत्मा है इसको समझने की करें तो, पूजा और इबादत प्रार्थना सेवा किसी भी धर्म या संस्कृति में आनंद या मनोरंजन का माध्यम नहीं रहे हैं। प्राचीन सभ्यताओं से लेकर आधुनिक धार्मिक परंपराओं तक, पूजा का उद्देश्य मनुष्य को उसके अहंकार, उसकी इच्छाओं और उसकी भ्रमित अवस्थाओं से ऊपर उठाना रहा है।पूजा में एकांत, अनुशासन और मन की शुद्धता का भाव शामिल होता है, जबकि मनोरंजन का मूल स्वभाव हल्कापन क्षणिकता और बाहरी उत्तेजना पर आधारित होता है। आज जब कई स्थानों पर धार्मिक अनुष्ठानों को संगीत-उत्सवों, भीड़-इकट्ठा करने वाले कार्यक्रमों या दिखावे की प्रतियोगिताओं में बदलते देखा जाता है, तब पूजा अपनी मूल सार्थकता खोने लगती है।पूजा का उद्देश्य आत्म-निरीक्षण औरआध्यात्मिक उन्नयन है, न कि भीड़ जुटाकर लोकप्रियता कमाना।पूजा या इबादत प्रार्थना सेवा को मनोरंजन के स्तर पर उतार देने से समाज में दो गंभीर समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। प्रथम, धार्मिक भावना का बाजारीकरण बढ़ता है,जिसके कारण समारोह सजावट आयोजनों की भव्यता और तकनीकी प्रदर्शन पर केन्द्रित हो जाते हैं।दूसरा, इससे धर्म का उपयोग सामुदायिक पहचान दिखाने के साधन में बदल जाता है, जिससे बंटवारा और प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होती है। पूजा यदि मन की शांति का स्रोत रहे तो समाज शांत होता है, पर यदि इसे भीड़-संचालित मनोरंजन के रूप में रूपांतरित कर दिया जाए तो इससे तनाव और विभाजन बढ़ते हैं।
साथियों बात अगर हम पूजा और मनोरंजन का मिश्रण 21वीं सदी की नई चुनौती इसको समझने की करें तो इंटरनेट,ग्लोबल मीडिया, स्मार्टफोन और सोशल नेटवर्क ने धर्म और पूजा को तेजी से मनोरंजन की वस्तु जैसा बना दिया है।मंदिरों, चर्चों मस्जिदों और गुरुद्वारों के लाइव स्ट्रीम, रील्स, व्लॉग्स, पब्लिक चैलेंज, वायरल भक्ति गाने, डांस वीडियोज और ‘डेवोशनल कंटेंट ट्रेडिंग’ ने पूजा की मूल भावना को बाज़ार का हिस्सा बना दिया है।आज भक्तों की संख्या नहीं, व्यूज़ और फॉलोअर्स की संख्या पर आध्यात्मिक प्रतिष्ठा का मूल्यांकन होने लगा है। पूजा घर का एकांत साधना स्थल होने के बजाय स्टेज-लाइट्स, साउंड डीजे और डिजिटल शो का रूप लेती जा रही है। यह बदलाव केवल भारत में नहीं,बल्कि अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया, अफ्रीका, यूरोप और लैटिन अमेरिका तक देखा जा सकता है, जहाँ धार्मिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति में ग्लैमरस मनोरंजन का समावेश बढ़ता जा रहा है। 21वीं सदी में वैश्वीकरण, डिजिटल युग और राजनीतिक ध्रुवीकरण ने धार्मिक पहचान को राजनीतिक लाभ का सबसे आसान साधन बना दिया है। दुनियाँ के अनेक देशों में चुनावों, सत्ता-समीकरणों, सार्वजनिक नीतियों और सामाजिक एजेंडों में आध्यात्मिकता के नाम पर जनमत को प्रभावित करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। यह प्रवृत्ति केवल किसी एक देश या धर्म की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक चेतावनी है कि राजनीति यदि आध्यात्मिक क्षेत्रों में प्रवेश कर लेती है, तो वह लोगों की भावनाओं को हथियार बनाकर लोकतंत्र की आत्मा को क्षति पहुँचा सकती हैराजनीतिक शक्तियाँ जब धार्मिक प्रतीकों, पूजा-स्थलों या आध्यात्मिक संस्थाओं का उपयोग अपने प्रचार के लिए करती हैं, तब वे अध्यात्म की सार्वभौमिकता को सीमित कर देती हैं आध्यात्मिकता का मूल स्वभाव समावेशी है वह मनुष्य को मानवता के उच्चतर सिद्धांतों से जोड़ती है, न कि किसी दल, समूह या विचारधारा से।
आधुनिक विश्व में जहां कृत्रिम बुद्धिमत्ता, रोबोटिक्स और तकनीकी प्रगति मनुष्य को उसकी मूल आत्मा से दूर करती जा रही है,वहां आध्यात्मिकता की भूमिका और बढ़ जाती है।लेकिन जब यहीआध्यात्मिकता सत्ता का उपकरण बन जाती है, तो वह अपने मूल उद्देश्य मानव कल्याण और आंतरिक शांति से भटक जाती है।इसलिए आधुनिक युग में अध्यात्म को राजनीतिक रंगत से बचाना केवल धार्मिक स्वतंत्रता का ही प्रश्न नहीं,बल्कि यहमानवाधिकार लोकतंत्र और वैश्विक सामाजिक स्थिरता का प्रश्न भी है। राजनीतिकरण रोकने का अर्थ यह नहीं कि धार्मिक समुदाय सामाजिक मुद्दों पर बोलें नहीं; बल्कि इसका अर्थ यह है कि पूजा-इबादत को राजनीतिक उद्देश्य, चुनावी लाभ या नीतिगत लाभ उठाने का माध्यम न बनाया जाए।
साथियों बात अगर हम आध्यात्मिकता में राजनीति की घुसपैठ: वैश्विक परिप्रेक्ष्य में खतरा इसको समझाने की करें तो, आध्यात्मिकता की राजनीति पर पकड़ जितनी गहरी होती जाती है, उतनी ही लोकतंत्र कमजोर पड़ने लगता है,क्योंकि व्यक्ति की निजी आस्था राजनीतिक वादों और प्रचार मशीनों का विषय बन जाती है। पिछले कुछ दशकों में दुनियाँ के कई देशों में देखा गया है कि राजनीतिक दल आध्यात्मिक नेताओं, धार्मिक संस्थानों और सामुदायिक विश्वासों का उपयोग जनमत को प्रभावित करने में करते हैं। इससे आध्यात्मिक संस्थाएँ निष्पक्षता खो देती हैं और धर्म का उपयोग वैज्ञानिक, सामाजिक या आर्थिक वास्तविकताओं से ध्यान हटाने के लिए किया जाता है।राजनीति की घुसपैठ से आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह मनुष्य को विभाजित करने वाली रेखाओं को गहरा करती है।
आध्यात्मिकता का असली उद्देश्य मनुष्य को उसके भीतर की एकता से जोड़ना है, लेकिन राजनीति उसकी पहचान को समूह, जाति, संप्रदाय या अन्य सामाजिक ध्रुवों में बदल देती है। जब आध्यात्मिक नेताओं को राजनीतिक मंचों पर खड़ा किया जाता है,जब पूजा-स्थलों को शक्ति -समीकरणों के केंद्र में रखा जाता है, या जब आस्था के नाम पर नीतियाँ बनती हैं, तो इससे सत्ता और आध्यात्मिकता के बीच ऐसा पैठयुक्त गठजोड़ बनता है जिससे समाज का नैतिक ढांचा कमजोर पड़ता है।यह वैश्विक प्रवृत्ति केवल धार्मिक स्वतंत्रता को ही नहीं, बल्कि वैश्विक शांति को भी चुनौती देती है। कई अंतरराष्ट्रीय संघर्ष, चाहे मध्य-पूर्व, अफ्रीका या एशिया में आस्था और राजनीति के मिश्रण का परिणाम रहे हैं। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए आध्यात्मिक भावनाओं का दुरुपयोग सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा है।
साथियों बात अगर हम पूजा- इबादत और आध्यात्मिकता को साम-दाम-दंड-भेद की राजनीति से अलग रखने की आवश्यकता को समझने की करें तो,सत्ता की राजनीति साम, दाम, दंड, भेद की रणनीति पर चलती है।यह रणनीति युद्धकला, प्रशासन और राजनीतिक प्रबंधन के लिए हो सकती है,परंतु आध्यात्मिकता के लिए यहघातक है।पूजा-इबादत को राजनीति की ऐसी रणनीति मेंशामिल करने से धर्म का मूल स्वरूप ही बदल जाता है। आध्यात्मिकता का स्वभाव स्वैच्छिकता, प्रेम, आत्म- अनुशासन और आंतरिक विकास से जुड़ा होता है; जबकि सत्ता का स्वभाव लाभ-हानि, गणना, रणनीति और प्रतिस्पर्धा से जुड़ा होता है। इन दोनों की प्रकृति में मूलभूत विरोधाभास है।यदि पूजा इबादत प्रार्थना सेवा को राजनीतिक साधन बनाया जाएगा तो वह किसी समुदाय में श्रेष्ठता की भावना या दूसरे में हीनता का निर्माण कर सकती है।राजनीति जब धार्मिक आयोजनों को धन,शक्ति या सामाजिक प्रभाव के माध्यम के रूप में देखती है, तब यह स्वाभाविक है कि साम-दाम-दंड-भेद की नीति लागू हो।इससे आध्यात्मिकताका पवित्रक्षेत्र संघर्षों औरआरोपों का मैदान बन जाता है,जो किसी भी सभ्य समाज के लिएविनाशकारी है।पूजा इबादत प्रार्थना सेवा और राजनीति को अलग रखना केवल भारत जैसे बहुधर्मी समाज की ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की आवश्यकता है।अमेरिका, यूरोप, जापान, मध्य-पूर्व और अफ्रीका, सभी क्षेत्रों में यह एक स्थायी सिद्धांत स्वीकार किया गया है कि धार्मिक स्वतंत्रता तभी सुरक्षित है जब राज्य और आध्यात्मिक संस्थान अपनी-अपनी सीमाओं का सम्मान करें।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि आध्यात्मिकता की वैश्विक रक्षा आज की सबसे बड़ी सामाजिक आवश्यकता है,दुनियाँ जिस दौर से गुजर रही है आर्थिक अनिश्चितता मानसिक तनाव, डिजिटल प्रदूषण,सामाजिक ध्रुवीकरण, उसमें आध्यात्मिकता मनुष्य के लिए एकमात्र ऐसा माध्यम है जो उसे आंतरिक शक्ति और शांति दे सकता है। लेकिन यदि यही आध्यात्मिकता राजनीति का उपकरण बन जाए तो यह अपनी प्रभावशीलता खो देती है। इसलिए पूजा-इबादत को मनोरंजन से मुक्त रखना, आध्यात्मिकता के राजनीतिकरण को रोकना और राजनीति को पूजा-स्थलों से दूर रखना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवता की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।सभी देशों को यह सिद्धांत स्वीकार करना चाहिए कि आध्यात्मिकता मनुष्य की निजी स्वतंत्रता है और किसी भी स्वतंत्रता पर राजनीति की छाया नहीं पड़नी चाहिएआध्यात्मिकता को बचाने का अर्थ है मनुष्य की आंतरिक दुनिया को बचाना, और यदि आंतरिक दुनिया सुरक्षित है तो विश्व भी सुरक्षित रहेगा।





