एसआईआर: मतदाता‑सूची पुनरीक्षण में उठते प्रश्न और जवाबदेही की तलाश

SIR: Questions arising in voter list revision and the search for accountability

दिलीप कुमार पाठक

पिछले कुछ महीनों से देश में “एसआईआर” नाम की चुनाव आयोग की प्रक्रिया जिसे आम तौर पर मतदाता सूची पुनरीक्षण कहा जाता है l इस प्रक्रिया ने पूरे देश में हलचल मचा रखा है, विपक्ष कह रहा है कि थोपा हुआ फैसला है, तो चुनाव आयोग इसे बेहद ज़रूरी बता रहा है l चुनाव आयोग का कहना है कि इससे हम अवैध लोगों को चिन्हित करेंगे! जब से ये प्रक्रिया शुरू हुई है तब से लोगों में इसको लेकर मिली जुली प्रतिक्रिया मिल रही है, वहीँ देश में इससे जुड़े अधिकारियों में एक अलग ही तरह का मानसिक प्रेशर दिखाई दे रहा है, इससे जुड़े कई अधिकारियों की मौत तमाम प्रश्नों को भी खड़ा कर रही है l

सीधी सी बात है, जब कोई बड़ा निर्णय लिया जाता है तो सभी के साथ आपसी विमर्श एवं ज़रूरी पक्षों को विश्वास में लेकर निर्णय लिया जाता है, परंतु सरकार ऐसे निर्णय ले लेती है जैसे हमने निर्णय ले लिया हमारी मर्जी l लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्णय ऐसे नहीं लिए जाते, सभी के सुझाव अहम हो जाते हैं l ऐसे बड़े निर्णय लोगों को प्रभावित तो करते ही हैं, यही कारण है कि निर्णय सोच समझकर लेने की आवश्यकता होती है, एक – एक जान की कीमत होती है, सभी के प्रति सरकार की एक नैतिक जिम्मेदारी एवं जवाबदेही होती है, विपक्ष राजनीति कर रहा है ये कहकर ज़िम्मेदारी से भागा नहीं जा सकता l

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने एक अखबार की खबर को साझा करते हुए एक्‍स पर लिखा, “एसआईआर” के नाम पर देश भर में अफरा-तफरी मचा रखी है l नतीजा? तीन हफ्तों में 16 “बीएलओ” की जान चली गई l हार्ट अटैक, तनाव, आत्महत्या – “एसआईआर” कोई सुधार नहीं, थोपा गया ज़ुल्म है l” साथ ही उन्‍होंने कहा कि भारत आज दुनिया के सॉफ्टवेयर बनाता है, लेकिन चुनाव आयोग आज भी कागजों का जंगल खड़ा करने पर अड़ा है l साथ ही उन्‍होंने चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हुए कहा, चुनाव आयोग ने ऐसा सिस्टम बनाया है, जिसमें नागरिकों को खुद को तलाशने के लिए 22 साल पुरानी मतदाता सूची के हजारों स्कैन पन्ने पलटने पड़ें l मकसद साफ है – सही मतदाता थककर हार जाए और वोट चोरी बिना रोक-टोक जारी रहे l अगर नीयत साफ होती तो लिस्ट डिजिटल, सर्चेबल और मशीन-रीडेबल होती, और चुनाव आयोग 30 दिन की हड़बड़ी में अंधाधुंध काम ठेलने के बजाय उचित समय लेकर पारदर्शिता और जवाबदेही पर ध्यान देता l SIR एक सोची-समझी चाल है – जहां नागरिकों को परेशान किया जा रहा है और “बीएलओ” की अनावश्यक दबाव से मौतों को “कॉलेटरल डैमेज” मान कर अनदेखा कर दिया है l यह नाकामी नहीं, षड़यंत्र है, सत्ता की रक्षा में लोकतंत्र की बलि है “

वहीँ सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को वोटर लिस्ट अपडेट करने का पूरा अधिकार दिया है, साथ ही भरोसा दिलाया कि किसी भी गड़बड़ी को ठीक किया जाएगा l चीफ जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची ने “एसआईआर” के सही होने पर सवाल उठाने वाली दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के कहने पर प्रोसेस को ठीक करने के बाद वोटर रोल के अपडेट के खिलाफ एक भी आपत्ति दर्ज नहीं की गई। वहीं राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज झा की ओर से पेश हुए वकील कपिल सिब्बल ने” एसआईआर” की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए कहा कि लाखों अनपढ़ लोग हैं, जो वोटर एन्यूमरेशन फॉर्म नहीं भर सकते, जो बाहर करने का एक तरीका बन गया है। वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि किसी वोटर से एन्यूमरेशन फॉर्म भरने के लिए क्यों कहा जाना चाहिए? चुनाव आयोग कौन होता है यह तय करने के लिए कि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है या नहीं? आधार कार्ड में रहने की जगह और जन्म की तारीख लिखी होती है, जो 18 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों के लिए वोटर बनने के लिए काफी होनी चाहिए, अगर वे खुद यह घोषणा करते हैं कि वे भारतीय नागरिक हैं।

12 राज्‍यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर की प्रकिया जारी है l इनमें छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, पुडुचेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा लक्षद्वीप हैं l इनमें तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल और पश्चिम बंगाल में 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं l

राहुल गांधी के सवाल वाज़िब हैं, क्या लोगों की जान की कोई कीमत नहीं है, क्या “एसआईआर” सोच समझकर लिया गया निर्णय है? अगर नेता प्रतिपक्ष कुछ कह रहे हैं तो क्या इसके लिए सरकार की कोई जिम्मेदारी, जवाबदेही नहीं बनती? लोकतंत्र में सवालों को उठाने की जिम्मेदारी प्रत्येक नागरिक की होती है, ये राजनीतिक मुद्दा बनना भी नहीं चाहिए, लेकिन ज़िम्मेदारी कौन लेगा?