सुनील कुमार महला
दुनिया में हथियारों की बिक्री लगातार बढ़ रही है। वास्तव में, आज के समय में दुनिया भर में बढ़ते हथियारों का जखीरा केवल सुरक्षा का ही सवाल नहीं है, बल्कि यह मानवता के भविष्य पर एक गंभीर खतरा भी है। कोई भी देश हथियार इसलिए खरीदते हैं ताकि वे अपनी सीमाओं की रक्षा कर सकें, रणनीतिक बढ़त बनाए रख सकें और बदलते भू-राजनीतिक हालात में खुद को एक मज़बूत राष्ट्र दिखा सकें। लेकिन यही हथियारों की दौड़ कई बार तनाव बढ़ाकर युद्धों की ज़मीन तैयार करती है, जो कि ठीक नहीं है।
कहना गलत नहीं होगा कि हथियारों पर होने वाला भारी खर्च शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पानी, जलवायु संरक्षण और रोजगार जैसे बुनियादी क्षेत्रों से धन को खींच लेता है, और इसका असर कहीं न कहीं देश के विकास, अर्थव्यवस्था और इसके निवासियों पर भी पड़ता है। क्या यह बड़ी बात नहीं है कि आज के समय में दुनिया के विभिन्न शक्तिशाली व संपन्न देश इसका इस्तेमाल अपने आर्थिक लाभ, वैश्विक प्रभाव दिखाने और उद्योगों में बढ़त के लिए करते हैं, जबकि छोटे देश किसी दबाव में आकर या सुरक्षा के डर से हथियारों की इस अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं? इसका नतीजा यह है कि दुनिया एक ऐसी दिशा में बढ़ रही है, जहां भरोसा कम और अविश्वास ज्यादा है।
वास्तव में, यह बात ठीक है कि हथियार किसी देश को सुरक्षा दे सकते हैं, लेकिन स्थायी शांति नहीं। असली सुरक्षा संवाद, विश्वास, सहयोग और संतुलित विकास से मिलती है, न कि विनाशकारी हथियारों की बढ़ती संख्या से। वास्तव में, यह दुनिया का खतरनाक कदम इसलिए है, क्योंकि यह मानवता को सुरक्षा नहीं बल्कि असुरक्षा की ओर धकेल रहा है। हथियारों की होड़ अंततः दुनिया में असंतुलन पैदा करती है।
यहां पाठकों को बताता चलूं कि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की नई रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हथियारों की बिक्री लगातार बढ़ रही है। सरल शब्दों में कहें तो दुनिया भर में हथियारों की खरीद-फरोख्त लगातार बढ़ रही है, और यह कोई अच्छी खबर नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि कई देशों के बीच तनाव लगातार बढ़ रहा है। कहीं सीमा विवाद है, कहीं शक्ति दिखाने की होड़, तो कहीं सुरक्षा का डर।
पाठक जानते होंगे कि दुनिया में इस समय कई देशों के बीच तनाव तेजी से बढ़ रहा है। एशिया में भारत-चीन के बीच एलएसी पर लंबे समय से सीमा विवाद बना हुआ है, जो समय-समय पर सैनिक तैनाती और गश्त के कारण फिर उभर जाता है। भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर और सीमा पार आतंकवाद को लेकर रिश्ते लगातार तनावपूर्ण रहते हैं और कूटनीतिक संबंधों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है। चीन-ताइवान के बीच स्थिति सबसे संवेदनशील है, जहां चीन ताइवान पर दबाव बढ़ाने के लिए सैन्य अभ्यास और शक्ति-प्रदर्शन कर रहा है, जबकि ताइवान अपनी रक्षा क्षमता बढ़ा रहा है।
ईरान-इज़राइल के बीच हमलों और जवाबी हमलों के कारण पश्चिम एशिया में अस्थिरता बढ़ी हुई है। वहीं आर्मेनिया-अज़रबैजान के बीच नागोर्नो-काराबाख को लेकर पुराना सीमा विवाद अभी भी पूरी तरह शांत नहीं हुआ है। मध्य एशिया में भी अफगानिस्तान की सीमा को लेकर ताजिकिस्तान और रूस मिलकर सुरक्षा मजबूत करने की बात कर रहे हैं।
इधर, रूस-यूक्रेन तनाव आज भी बेहद गंभीर रूप में बना हुआ है। रूस लगातार यूक्रेन के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में हमले कर रहा है, जबकि यूक्रेन अपने सहयोगी देशों की मदद से जवाबी कार्रवाई कर रहा है। हाल की शांति वार्ताएँ भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाई हैं, क्योंकि रूस अपनी शर्तों पर अड़ा है और पश्चिमी देश यूक्रेन की संप्रभुता पर समझौता नहीं करना चाहते। इसी बीच मिसाइल हमलों, भूभाग पर कब्जे की कोशिशों और कूटनीतिक आरोप-प्रत्यारोप ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। यह संघर्ष न केवल यूरोप बल्कि पूरी दुनिया की राजनीति, सुरक्षा और अर्थव्यवस्था पर असर डाल रहा है।
कुल मिलाकर, सीमा विवादों, सैन्य तैयारियों, शक्ति दिखाने की होड़ और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा ने कई क्षेत्रों को बेहद संवेदनशील और अस्थिर बना दिया है। यही कारण है कि आज विभिन्न देश आधुनिक और महंगे हथियार खरीदने में बड़ी रकम लगा रहे हैं। इससे हथियार बनाने वाली कंपनियों का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन दुनिया के लिए खतरे भी बढ़ रहे हैं। समस्या यह है कि जितने ज्यादा हथियार जुटाए जाते हैं, उतनी ही ज्यादा टकराव या युद्ध की आशंका पैदा होती है। साथ ही सरकारों का पैसा रक्षा खरीद में खर्च होने लगता है, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक विकास जैसे जरूरी क्षेत्रों पर कम ध्यान जाता है। यानी सुरक्षा के नाम पर खर्च तो बढ़ता है, लेकिन असुरक्षा भी कम नहीं होती।
रिपोर्ट हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हथियारों पर बढ़ती निर्भरता वास्तव में शांति लाएगी या दुनिया को और ज्यादा तनाव और खतरे की ओर धकेल देगी।
हाल-फिलहाल के आँकड़े
दुनिया की सबसे बड़ी 100 हथियार बनाने वाली कंपनियों ने पिछले साल से लगभग 6% ज्यादा पैसा कमाया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हाल के समय में कई जगह लड़ाइयाँ और तनाव लगातार बढ़े हैं, जैसे यूक्रेन युद्ध और गाजा संघर्ष। जब कहीं युद्ध होता है या किसी देश को खतरा महसूस होता है, तो वे अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिए ज्यादा हथियार खरीदते हैं। इसी वजह से हथियारों की मांग तेजी से बढ़ गई और कंपनियों की बिक्री भी बढ़ी।
सीधे शब्दों में कहें तो जितना ज्यादा तनाव और युद्ध, उतनी ही ज्यादा हथियारों की खरीद, और उतनी ही ज्यादा कंपनियों की कमाई।
पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि सिपरी की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की 100 सबसे बड़ी रक्षा कंपनियों ने 2024 में कुल 679 अरब डॉलर कमाए, जो यह दिखाता है कि वैश्विक स्तर पर युद्ध और तनाव अब एक भारी-भरकम कारोबार बन चुके हैं। यूक्रेन, गाजा और पूर्वी एशिया में बढ़ते संघर्षों ने हथियारों की मांग को तेजी से बढ़ाया है, जिसके चलते युद्धों का व्यावसायीकरण और कॉर्पोरेट कंपनियों की भूमिका और मजबूत हो रही है। रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि पश्चिम एशिया अब एक नया हथियार उत्पादक क्षेत्र बनकर उभर रहा है, जिससे वैश्विक सैन्य उत्पादन में विविधता आई है।
भारत की तीन कंपनियाँ—हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स—भी इस सूची में शामिल हैं, और घरेलू मांग के कारण इनकी संयुक्त आयुध कमाई 8.2% बढ़कर 7.5 अरब डॉलर हो गई है। सिपरी का आकलन बताता है कि भविष्य में हथियारों की बिक्री और बढ़ने की संभावना है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय तनाव कम होने के बजाय बढ़ रहा है, और देश ड्रोन व अत्याधुनिक रक्षा तकनीकों पर भारी निवेश कर रहे हैं।
यह बढ़ती सैन्य होड़ न केवल शांति के लिए खतरा है, बल्कि विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से संसाधन हटाकर वैश्विक असमानताओं, भुखमरी, जलवायु संकट और अस्थिरता को भी बढ़ावा दे रही है। युद्धों और संघर्षों के कारण लाखों लोग विस्थापन, अकाल और मानवीय त्रासदियों का सामना कर रहे हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो आज युद्धों और संघर्षों के कारण दुनिया भर में लाखों लोग अपने घर, जमीन और रोज़गार से बेदखल हो रहे हैं। इससे बड़े पैमाने पर विस्थापन, भूख और मानवीय संकट पैदा हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूरोप में दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा शरणार्थी संकट खड़ा कर दिया, जहां करोड़ों लोग अपने घर छोड़कर पड़ोसी देशों में शरण लेने को मजबूर हुए।
गौरतलब है कि रूस-यूक्रेन युद्ध, जो फरवरी 2022 में शुरू हुआ, अब तक मानवीय और आर्थिक दोनों रूपों में भारी नुकसान पहुँचा चुका है। इस युद्ध से यूक्रेन को लगभग 1 खरब डॉलर का कुल आर्थिक नुकसान हुआ है, जिसमें आवास, परिवहन, ऊर्जा, उद्योग और अन्य बुनियादी ढांचे का विनाश शामिल है। अकेले आवासीय भवनों के रूप में लगभग 2.36 लाख घर नष्ट या क्षतिग्रस्त हुए हैं।
युद्ध के कारण यूक्रेन के लगभग 10.6 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें से 3.7 मिलियन अपने देश के भीतर और 6.9 मिलियन लोग विदेशों में शरणार्थी बने हैं। इसके साथ ही देश की जीडीपी लगभग 22.6% तक घट गई, बजट घाटा बढ़कर जीडीपी का 20.4% हो गया, और रोजमर्रा की ज़िंदगी, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर गंभीर असर पड़ा।
वास्तव में, युद्ध का नुकसान केवल कुछ ही चीज़ों में मापा जा सका है, जैसे बुनियादी आर्थिक नुकसान। लेकिन युद्ध के कारण लोगों की मानसिक पीड़ा, समाज में अस्थिरता और जीवन की गुणवत्ता पर असर अब भी बहुत बड़ा है। भविष्य में युद्ध प्रभावित इलाकों को फिर से ठीक करने और लोगों की मदद करने के लिए लगभग 524 अरब डॉलर की जरूरत होगी। इससे यह स्पष्ट होता है कि युद्ध का असर सिर्फ अभी नहीं, बल्कि आने वाले कई सालों तक आर्थिक और सामाजिक तौर पर महसूस किया जाएगा।
उसी तरह, गाजा में जारी संघर्ष ने स्वास्थ्य सेवाओं, भोजन, पानी और आश्रय सभी को लगभग समाप्त कर दिया, जिससे बच्चों और महिलाओं पर सबसे ज्यादा असर पड़ा। गाज़ा में हाल के संघर्षों ने भारी तबाही मचाई है। अब तक लगभग 70,000 लोग मारे जा चुके हैं और लगभग 1.9 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं। करीब 62% घर और बुनियादी ढांचा नष्ट या क्षतिग्रस्त हो चुका है। स्कूल, अस्पताल, पानी और स्वास्थ्य सेवाएँ बाधित हैं, जिससे मानवीय संकट गहरा गया है। आर्थिक नुकसान और पुनर्निर्माण की आवश्यकता लगभग 53 बिलियन डॉलर आंकी गई है। बच्चों, महिलाओं और बुज़ुर्गों पर सबसे अधिक असर पड़ा है, और संकट के मानसिक और सामाजिक प्रभाव अभी भी व्यापक हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सूडान के गृहयुद्ध में भी लाखों लोग भूख और हिंसा से बचने के लिए रेगिस्तानों और सरहदी इलाकों में भटक रहे हैं। इन उदाहरणों से साफ है कि संघर्ष सिर्फ गोलियों और बमों तक सीमित नहीं होते, अपितु वे समाज की पूरी संरचना तोड़ देते हैं और मानवता को गहरी पीड़ा और असुरक्षा में धकेल देते हैं।
इसलिए रिपोर्ट यह संकेत देती है कि विश्व समुदाय को हथियारों की इस अंधाधुंध दौड़ को रोकने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे, ताकि मानवता को बड़े संकट से बचाया जा सके।





