ललित गर्ग
भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में एक विचित्र प्रवृत्ति विकसित होती दिख रही है, जहाँ सत्ता द्वारा उठाए गए प्रत्येक कदम को विपक्ष संदेह की दृष्टि से देखता है। संचार साथी ऐप को लेकर इन दिनों इसी प्रकार का विवाद एवं विरोध का वातावरण बना हुआ है। केंद्र सरकार की यह सोच कि हर नए स्मार्टफोन में इस ऐप को अनिवार्य किया जाए, विपक्ष ने इसे निजता एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए कठोर शब्दों में चुनौती दी और संसद के शीतकालीन सत्र में इसे बड़ा मुद्दा बना दिया है और इससे व्यक्ति के जीवन में सरकारी हस्तक्षेप बढने की आशंकाएं व्यक्त की है। विपक्ष ने इसे संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण व नागरिकों की निगरानी करने वाला टूल बताया। इस बहस के बीच विपक्ष को नया मुद्दा मिलते देख केंद्र सरकार ने अनिवार्य तौर पर ऐप प्री-इंस्टॉल करने का अपना फैसला वापस ले लिया। ़सरकार ने स्थिति की संवेदनशीलता को देखते हुए फिलहाल इसे स्वैच्छिक बना दिया है अर्थात जो चाहे ऐप को रखे, जो चाहे उसे हटाए। परंतु इस विवाद ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठा दिया है कि क्या हम केवल विरोध की राजनीति में वास्तविक चुनौतियों और आवश्यकताओं को भुला रहे हैं?
वास्तविकता यह है कि डिजिटल युग आज अवसरों के साथ-साथ अभूतपूर्व संकटों का भी युग है। साइबर अपराध, चोरी, जासूसी, डेटा हेरफेर, गलत सूचना, आतंकवादी नेटवर्किंग-इन सबने सुरक्षा की चुनौतियों का नया स्वरूप निर्मित किया है। संयुक्त राष्ट्र तक यह स्वीकार कर चुका है कि अगला विश्वयुद्ध यदि हुआ, तो वह साइबर मोर्चे पर भी लड़ा जाएगा। ऐसे समय में क्या किसी राष्ट्र की सरकार को निष्क्रिय खड़ा रहना चाहिए? निश्चित रूप से नहीं। इसलिए संचार साथी ऐप मात्र निगरानी का यंत्र नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, नागरिक संरक्षण एवं डिजिटल अपराध नियंत्रण की रणनीतिक आवश्यकता के रूप में उभरा है। सरकार का सही कहना था कि डिजिटल होती दुनिया में लगातार बढ़ते साइबर अपराधों से नागरिकों को सुरक्षा देने के मकसद से यह पहल की गई थी। उसका कहना था कि लगातार जटिल होते साइबर अपराधों पर अंकुश लगाने के लिये ऐसी पहल अपरिहार्य है।
विपक्ष का विरोध इसलिए भी एकांगी है क्योंकि केवल यह निजता के सवाल पर केंद्रित है। परंतु निजता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित, पूर्ण स्वतंत्र नहीं, बल्कि परिस्थितिनिष्ठ है। लोकतंत्र व्यक्ति को अधिकार देता है, साथ ही साझा सुरक्षा की जिम्मेदारी भी मांगता है। जब डिजिटल मंचों पर राष्ट्रीय अखंडता, आर्थिक व्यवस्था, सामरिक रहस्य और सामाजिक शांति पर संकट मंडराते हों, तो सरकार को हस्तक्षेप करना नैतिक रूप से उचित ही नहीं, बल्कि आवश्यक हो जाता है। अमेरिका, चीन, जर्मनी, ब्रिटेन-सभी देशों के पास निगरानी आधारित साइबर सुरक्षा प्रणालियाँ हैं। क्या उनकी लोकतांत्रिक संरचनाएँ इस कारण क्षीण हो गईं? नहीं, क्योंकि निगरानी और सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित किया गया। भारत को भी इसी संतुलन की आवश्यकता है। यह सही है कि किसी भी डिजिटल ऐप में निगरानी का वहनीय स्वरूप रखना चाहिए, जिससे नागरिक की व्यक्तिगत जिंदगी पर अनावश्यक हस्तक्षेप न हो। सरकार ने भी यही स्पष्ट किया है कि संचार साथी नागरिक के निजी जीवन में दखल नहीं देना चाहता, बल्कि उसे साइबर अपराध, हैकिंग, धोखाधड़ी, फर्जीवाड़ा, एवं डिजिटल आतंकवाद से बचाने हेतु काम करेगा। विडंबना यह है कि विपक्ष इस ऐप को ‘निष्ठा परीक्षण’, ‘मनोवैज्ञानिक निगरानी’ और ‘गोपनीयता हनन’ का उपकरण बताकर भय पैदा कर रहा है, जबकि पूर्व में स्वयं उनकी सरकारें समान तंत्र विकसित कर चुकी हैं, चाहे वह आधार डेटा सुरक्षा हो, सोशल मीडिया मॉनिटरिंग सेल हों या राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों के निगरानी प्रोटोकॉल।
सवाल यह है कि यदि अपराधी, आतंकवादी, अलगाववादी, साइबर गैंग्स संगठित डिजिटल हथियारों का उपयोग कर रहे हैं, तो क्या सामान्य नागरिकों को असुरक्षित छोड़ दिया जाए? क्या यह लोकतंत्र का तकाज़ा है कि सरकार देखती रहे और समाज अपराध की प्रयोगशाला बन जाए? वास्तव में यह संकट केवल भारत का नहीं, विश्व का है। आज की दुनिया में जो राष्ट्र डिजिटल नियंत्रण तंत्र विकसित नहीं करता, उसकी सुरक्षा दीवारें कागज़ की नाव जैसी सिद्ध होती हैं। इसलिए यह कहना कि संचार साथी ऐप अनावश्यक या दमनकारी है, वस्तुस्थिति से आंखें मूंद लेने जैसा है। निश्चित रूप से एक सवाल उठता है, क्या ऐप डेटा सुरक्षा की गारंटी देगा? यह बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न है। सरकार को इस ऐप के उद्देश्य और डाटा संचालन नीति को पारदर्शी रूप में सार्वजनिक करना चाहिए। यदि इस पर स्वतंत्र ऑडिट हो, निजता सुरक्षा प्रावधान हों, दुरुपयोग को रोकने वाली न्यायिक निगरानी हो तो विरोध स्वतः समाप्त हो जाएगा। परंतु विपक्ष का विरोध नीतिगत सुधारों की दिशा में न होकर केवल राजनीतिक अवसरवाद प्रतीत होता है। यह भी सही है कि नागरिकों की चिंताएँ निराधार नहीं, भारत में डेटा सुरक्षा कानून अभी भी परिपक्व नहीं है, डिजिटल संरचनाएँ जवाबदेही की दृष्टि से मजबूत नहीं हैं। अतः संचार साथी के विकास के साथ-साथ देश में निजता सुरक्षा कानूनों को और अधिक कठोर, दंडात्मक एवं न्यायिक रूप से संरक्षित बनाने की आवश्यकता है।
यदि इस ऐप के कार्यों पर दृष्टि डालें तो उसके पीछे सोच यह है कि मोबाइल संचार के माध्यम से होने वाले अपराधों की पहचान, रिपोर्टिंग और ट्रैकिंग को व्यवस्थित किया जा सके। यह व्यक्ति की निगरानी का उपकरण कम और अपराध नियंत्रण की प्रणाली अधिक है। भारत में साइबर अपराधों में प्रति वर्ष 63 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की जा रही है, लाखों लोग ऑनलाइन धोखाधड़ी के शिकार बन रहे हैं, बैंकिंग ठगी से लेकर सोशल मीडिया मनोवैज्ञानिक अपराधों तक का दायरा बढ़ रहा है। क्या सरकार की चुप्पी इन अपराधियों को खुला मैदान नहीं दे देती? इसलिए संचार साथी जैसे कदमों का उद्देश्य नागरिक सुरक्षा का विस्तार है, न कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का संकुचन।
कठोर सत्य यह है कि राष्ट्र केवल अधिकारों पर आधारित नहीं होते, जिम्मेदारियों और सुरक्षा तंत्रों पर भी टिके होते हैं। एक नागरिक के रूप में हम यह अपेक्षा करते हैं कि हमारा डेटा सुरक्षित हो, हमारा पैसा सुरक्षित हो, हमारा देश सुरक्षित हो परंतु जब सुरक्षा के लिए कदम उठाया जाए, तो हम विरोध में खड़े हो जाते हैं। यह राजनीतिक अधिक है, जहाँ हम एक विश्वव्यापी सिद्धांत को भूल जाते हैं कि “स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ ही टिक सकती है।” इसलिए संचार साथी ऐप पर संतुलित दृष्टि ही सार्थक है। सरकार को उसकी संरचना पारदर्शी, उत्तरदायी और कानून नियंत्रित रखनी चाहिए, और विपक्ष को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि डिजिटल भारत की सुरक्षा चुनौतियाँ केवल नारे से हल नहीं होंगी, बल्कि तकनीकी सुरक्षा तंत्रों से ही नियंत्रण संभव होगा। लोकतंत्र में आलोचना आवश्यक है, परंतु रचनात्मक आलोचना, जिसमें सुधार की मांग होती है, न कि केवल अस्वीकरण। यदि राजनीतिक वर्ग इस बहस को इसी दिशा में ले जाए, तो संचार साथी ऐप न केवल विवादित विषय रहेगा बल्कि डिजिटल सुरक्षा के लिए नागरिक-हितकारी उपकरण के रूप में स्थापित भी होगा।
निस्संदेह, आज के डिजिटल युग में व्यक्ति का डेटा बेहद महत्वपूर्ण है। जिसकी हर कीमत पर सुरक्षा की जानी चाहिए। वहीं इसके साथ ही इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि कहीं कुछ अन्य ऐप हमारे डेटा में तो सेंध नहीं लगा रहे हैं? सरकार को इससे उपभोक्ता की सुरक्षा करनी होगी। वहीं तर्क दिया जा रहा है कि संचार साथी ऐप को अनिवार्य करने के बजाय आम लोगों को नई तकनीक और इसके इस्तेमाल के लिये सतर्क करने को देशव्यापी जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। साथ ही इसके लिये आम जनता को प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए। जिससे तकनीक के जरिये साइबर अपराधियों पर अंकुश लगाने की मुहिम को गति दी जा सके। अंततः यह समझना होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता-दोनों अनिवार्य हैं। चुनौती इन्हें संतुलित करने की है, न कि किसी एक को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने की। यदि यह संतुलन नीति, पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ बने, तो संचार साथी ऐप देश के डिजिटल भविष्य की सुरक्षा का सेतु बन सकता है। विरोध की राजनीति नहीं, समझ और समाधान की राजनीति आज की आवश्यकता है, यही इस ऐप की वास्तविकता और उपयोगिता को समझने की दिशा है।





