अरावली संरक्षण के दायरे को 100 मीटर की परिभाषा से सीमित कर देना—दिल्ली-एनसीआर की हवा, पानी और तापमान के लिए एक गहरी पर्यावरणीय चोट।
डॉ. सत्यवान सौरभ
भारत के उत्तरी भूगोल में अरावली केवल एक पर्वतमाला नहीं, बल्कि एक जीवित पारिस्थितिक दीवार, एक भूजल भंडार, एक शीतलन तंत्र और एक धूल-रोधी प्राकृतिक ढाल के रूप में जानी जाती है। किंतु हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरण मंत्रालय की उस अनुशंसा को मान्यता देना, जिसमें केवल वे भूमि संरचनाएँ—जो स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर से अधिक ऊँची हों—“अरावली की पहाड़ी” कही जाएँगी, इस पूरी पर्वतमाला को अभूतपूर्व कानूनी और पारिस्थितिक संकट में डाल देता है। 100 मीटर से नीचे के छोटे-बड़े कटक, क्रीड़ा-रूप, पथरीली ढालें, झाड़-झंखाड़ वाले क्षेत्र और टूटे पहाड़, जो वास्तविक पारिस्थितिकी में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं, वे इस परिभाषा से लगभग बाहर हो जाते हैं। अनुमानतः 80–90% तक का वह भू-क्षेत्र, जो आज भी दिल्ली-एनसीआर को धूल, गर्मी, बाढ़ और जल-संकट से बचाता है, उसकी कानूनी रक्षा क्षीण हो जाने का डर स्पष्ट दिख रहा है।
इस परिभाषात्मक परिवर्तन से जो सबसे बड़ा खतरा खड़ा होता है, वह यह कि अरावली का संरक्षण अब “ऊँचाई” पर आधारित हो गया है, “परिस्थितिक कार्यों” पर नहीं। कोई भी पहाड़ी तंत्र अपनी जैव-भूगर्भीय भूमिका ऊँचाई से नहीं, बल्कि अपनी स्थिति, उसके जुड़ाव, उसकी जल-नालियों, मिट्टी की परतों, वनस्पति, पशु-आवागमन, हवा-रोध क्षमता, रंध्रिता और वर्षा संचयन पर आधारित होता है। अरावली की निम्न ऊँचाई वाली श्रृंखलाएँ, जो दूर से देखने पर साधारण टीले लगती हैं, वास्तव में NCR-Delhi के पारिस्थितिक संतुलन की रीढ़ हैं। इन्हें हटाने, काटने या इनके बीच कृत्रिम दरारें डाल देने का अर्थ है—दिल्ली का प्रदूषण और बदतर, पानी और गहरा, तथा गर्मी और अधिक झुलसानेवाली।
अरावली का यह क्षरण केवल एक भूगोलिक घटना नहीं है, बल्कि यह दिल्ली की साँसों, नलकों, खेतों, हवा की दिशा, तापमान की प्रवृत्तियों और पूरे उत्तरी भारत के मानसूनी पैटर्न से सीधे जुड़ा हुआ प्रश्न है। दिल्ली-एनसीआर आज पहले से ही चरम प्रदूषण, गिरते भूजल, सूखे होते जलाशयों और 50 डिग्री के आसपास पहुँचती गर्मी से संघर्ष कर रहा है। ऐसे समय में, अरावली के प्राकृतिक कवच का सिकुड़ना, टूटना और उसकी निरंतर अवैध खनन-निर्माण से कमजोर होना एक ऐसे भारी पारिस्थितिक पतन का संकेत है, जो आने वाले वर्षों में दिल्ली की रहने-लायक स्थिति को ही बदल सकता है।
जब अरावली के पहाड़ काटे जाते हैं, तो सबसे पहले उनकी मिट्टी की पकड़ छूट जाती है। यह मिट्टी हवा के पहले झोंके में धूल बनकर उड़ती है। रेतीले कण, पथरीले अवशेष, टूटे हुए क्वार्ट्जाइट की महीन परतें—ये सभी दिल्ली की हवा में बड़े सूक्ष्म कणों का हिस्सा बन जाते हैं। दिल्ली की भौगोलिक संरचना पहले ही ऐसी है कि हवा की प्रवाह गति शीतकाल में धीमी पड़ जाती है, और प्रदूषण फँसकर परतें जमा कर लेता है। अरावली की टूटी दीवारें इस प्रदूषण को न केवल कई गुना बढ़ा देती हैं, बल्कि राजस्थान की तरफ से आने वाली पश्चिमी हवाओं को बिना किसी अवरोध के धूल और गर्मी लेकर आने का रास्ता भी प्रदान करती हैं।
इस स्थिति का दूसरा पहलू दिल्ली के पानी से जुड़ा है। अरावली की पहाड़ियाँ भूमिगत जल के लिए प्राकृतिक पुनर्भरण क्षेत्र हैं। उनकी पथरीली सतहों में प्राकृतिक दरारें, बिखरे हुए खनिज, पथरीली नालियाँ और रंध्रता—ये सभी वर्षा जल को धरती के भीतर कई सौ फीट तक खींचकर ले जाती हैं। किंतु जब पहाड़ियों को काटकर समतल कर दिया जाता है, या उन पर कंक्रीट और बस्तियाँ उग आती हैं, तब यह पूरी प्राकृतिक जल-प्रवाह प्रणाली टूट जाती है। पानी अब रिसता नहीं, बह जाता है। मिट्टी कटाव बढ़ता है, छोटे जलस्रोत नष्ट होते हैं, और भूजल recharge लगभग समाप्त हो जाता है। परिणाम यह कि दिल्ली-गुड़गाँव-फरीदाबाद-सोहना क्षेत्र में जलसंकट और गहरा हो जाता है। अनेक इलाकों में भूजल पहले ही 800–1000 फीट तक जा चुका है; अरावली के और कटने से यह स्तर खतरनाक रूप से और नीचे जाएगा।
लेकिन आज सबसे बड़ा संकट, जिसे दिल्ली हर गर्मियों में महसूस करती है, वह है “चरम ऊष्मा”—extreme heat. अरावली का विस्तृत वन-तंत्र, उसकी झाड़ियाँ, उसके वृक्ष, उसकी ऊबड़-खाबड़ ढालें—ये सभी प्राकृतिक शीतलन तंत्र (कूलिंग सिस्टम) का हिस्सा हैं। यह प्रणाली न केवल छाया और वाष्पोत्सर्जन से गर्मी कम करती है, बल्कि गर्म हवाओं को रोकने की प्राकृतिक क्षमता भी रखती है। परंतु जब पहाड़ियों को कंक्रीट, पक्की सड़कें और भवन निगल जाते हैं, तब पूरा क्षेत्र “हीट-आइलैंड” में बदल जाता है। अरावली का हर टूटा टुकड़ा दिल्ली के तापमान में 0.2–0.4 डिग्री की वृद्धि जोड़ देता है। और जब यह प्रक्रिया कई किलोमीटर तक फैल जाती है, तो दिल्ली की गर्मी औसतन कई डिग्री तक बढ़ जाती है।
और तब आता है अरावली का वह पहलू, जिसे भारत के कई भाग गंभीरता से नहीं लेते—अरावली एक “रेगिस्तान-रोधी दीवार” है। यह पर्वतमाला थार मरुस्थल की पूर्वी सीमा के ठीक आगे खड़ी है। यदि यह पर्वतमाला कमजोर हो जाए, इनके बीच कृत्रिम रास्ते बन जाएँ, वृक्ष कट जाएँ या खनन से दरारें खुल जाएँ, तो राजस्थान की ओर से चलने वाली धूल, रेत और शुष्क हवाएँ बड़ी मात्रा में हरियाणा और दिल्ली तक पहुँचने लगेंगी। अरावली सदियों से रेगिस्तान को रोकने वाली प्राकृतिक सीमा रही है। यह सीमा कमजोर पड़ने का अर्थ है कि रेतीले क्षेत्र धीरे-धीरे दिल्ली की ओर खिसकेंगे—इसे वैज्ञानिक भाषा में “डेजर्टिफिकेशन की पूर्वगामी प्रवृत्ति” कहा जाता है। इसका खतरा केवल धूल तक सीमित नहीं, बल्कि यह पूरी भूमि-उपजाऊ क्षमता, मिट्टी का प्रकार, जल-न्यूनता और स्थानीय जलवायु तक को बदल सकता है।
इस पूरे परिदृश्य में सबसे चिंता की बात यह है कि 100 मीटर की परिभाषा अरावली को “टुकड़ों” में बदल देगी। जब कोई भी पर्वतमाला एक सतत श्रृंखला रहती है, तभी वह अपनी पर्यावरणीय भूमिका निभा सकती है। लेकिन जब उसे 50–100 मीटर के अंतराल पर काट-काटकर अलग कर दिया जाता है, तो उसकी हवा, जल और तापमान से संबंधित भूमिकाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। यह fragmentation न केवल कानूनी सुरक्षा को कम करता है, बल्कि अवैध निर्माणकर्ताओं को खुला निमंत्रण देता है कि वे उन भू-भागों को निर्माण योग्य मानें, जो अब “पहाड़” नहीं माने जाएँगे। नतीजतन—खनन, फार्महाउस, कंक्रीट, सड़कें, विला, रिज़ॉर्ट और उद्योग अरावली के शरीर को खोखला करते जाएँगे।
यह स्थिति दिल्ली के प्रदूषण को केवल बढ़ाती नहीं, बल्कि उसे स्थायी बनाती है। हवा में धूल बढ़ने का अर्थ है कि दिल्ली के समूचे वायुमंडल में PM-10 और PM-2.5 दोनों की मात्रा लगातार उच्चतर स्तर पर रहना। जब हवा के प्रवाह में अरावली की ढालें टूट जाती हैं, तो स्मॉग का बाहर निकलना कठिन हो जाता है। दिल्ली का भौगोलिक कटोरा-नुमा स्वरूप वैसे ही प्रदूषण को फँसा कर रखता है; यदि उसके एकमात्र पश्चिमी-दक्षिणी “सांस लेने के रास्ते” अर्थात् अरावली के छिद्र भर दिए जाएँ, तो यह संकट और भी विकराल हो जाएगा।
भूजल के स्तर के गिरने का प्रभाव केवल पानी की उपलब्धता तक सीमित नहीं रहता। यह पूरे पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन उत्पन्न करता है। जब भूजल की सतह लगातार नीचे जाती है, तो मिट्टी की नमी कम होती है, खेतों की सिंचाई कठिन होती है, शहरी हरियाली सूखती है, और अंततः तापमान और तेजी से बढ़ता है। इस प्रकार अरावली का क्षरण दिल्ली की गर्मी को अप्रत्यक्ष रूप से भी बढ़ाता है।
गर्मी बढ़ने से न केवल अस्वस्थता, बल्कि बिजली की खपत, जल की माँग, शहरी ताप-दबाव और दुर्घटनाएँ तक बढ़ जाती हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों में स्पष्ट किया गया है कि दिल्ली में गर्मी का 30–40% नियंत्रण अरावली के वन-कवच पर निर्भर है। इस कवच के हटते ही दिल्ली को आने वाले दशक में 50–52 डिग्री की गर्मी स्थायी रूप से महसूस होने लगेगी।
प्रश्न यह है कि समाधान क्या है? पहला समाधान यही है कि अरावली की कानूनी परिभाषा “ऊँचाई आधारित” नहीं, बल्कि “परिस्थितिक कार्य आधारित” होनी चाहिए। दूसरा यह कि वन, चरागाह, झाड़ी-वन, पथरीले परिदृश्य—इन सभी को अरावली का हिस्सा मानकर संरक्षित किया जाए। तीसरा, खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लागू किया जाए और अवैध निर्माणों को कठोरता से हटाया जाए। चौथा, टूटे पहाड़ों का पुनरुत्थान किया जाए—मिट्टी भरकर, देशज प्रजातियों के वृक्ष लगाकर और जलसंचयन संरचनाएँ बनाकर। पाँचवाँ, भौतिक-प्राकृतिक निरंतरता पुनः स्थापित की जाए, ताकि पूरे NCR-Delhi को एक सघन, अविच्छिन्न पर्यावरणीय कवच प्राप्त हो सके।
अरावली केवल हरियाणा, राजस्थान या दिल्ली का संगठनात्मक मसला नहीं, बल्कि यह उत्तरी भारत की जलवायु सुरक्षा दीवार है। इसे कमजोर करने का अर्थ है—दिल्ली की हवा को और जहरीला, उसका पानी और गहरा संकटग्रस्त, और उसकी गर्मी और अधिक घनघोर बना देना। अरावली का टूटना, दिल्ली का टूटना है। यदि अरावली जीवित रहेगी, तभी दिल्ली सांस ले पाएगी। यदि अरावली बचेगी, तभी दिल्ली बचेगी।





