सिम बाइंडिंग से डिजिटल भारत की स्वतंत्र पत्रकारिता को झटका

SIM binding hits independent journalism in Digital India

अम्बिका कुशवाहा ‘अम्बी’

सरकार ने साइबर फ्रॉड रोकने के नाम पर “सिम बाइंडिंग” का नया नियम लाई, तो शायद ही इसका सबसे बड़ा शिकार पत्रकारिता और समाचार उद्योग होने वाला है।

27 नवंबर 2025 को दूरसंचार विभाग ने जो गाइडलाइंस जारी कीं, वे सिर्फ़ एक तकनीकी बदलाव नहीं हैं, बल्कि डिजिटल भारत के सबसे महत्वपूर्ण संचार माध्यम पर एक तरह का आपातकालीन ब्रेक हैं। फरवरी 2026 से व्हाट्सएप, टेलीग्राम, सिग्नल सहित सभी प्रमुख मैसेजिंग ऐप्स तभी काम करेंगे जब रजिस्टर्ड भारतीय मोबाइल नंबर की फिजिकल सिम उसी डिवाइस में हर पल सक्रिय रहे। सिम निकाली, दूसरे फोन में डाली, eSIM ट्रांसफर किया या केवल व्हाट्सएप वेब/डेस्कटॉप खोला तो हर छह घंटे में पूरा अकाउंट ऑटो-लॉगआउट हो जाएगा और दोबारा QR कोड स्कैन करना पड़ेगा।

सुनने में यह छोटा-सा तकनीकी नियम लगता है, लेकिन वास्तव में पत्रकारिता पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा। डिजिटल भारत के पिछले दस सालों ने भारतीय पत्रकारिता को सबसे तेज़, सबसे सस्ता और सबसे व्यापक बना दिया था। आज सूचना का प्रवाह जिस गति और गोपनीयता के साथ होता है, उसकी रीढ़ यही मैसेजिंग ऐप्स हैं। यह नियम पत्रकारिता की स्वतंत्रता को सीधे कमज़ोर करेगा। साइबर फ्रॉड रोकने का इरादा नेक हो सकता है, लेकिन जिस तरीके से इसे लागू किया जा रहा है, वह लाखों पत्रकारों, फ्रीलांसरों, क्षेत्रीय अखबारों और डिजिटल मीडिया संस्थानों के रोज़मर्रा के कामकाज को लगभग असंभव बना देगा। यह सिर्फ़ असुविधा नहीं, सूचना के लोकतंत्रीकरण पर सीधा हमला है।

दस साल पहले खबर के लिए महँगा कैमरा, सैटेलाइट फोन, डाक व्यवहार और बड़ा न्यूज़रूम चाहिए था। आज एक स्मार्टफोन, जीमेल, व्हाट्सएप और टेलीग्राम ही समाचार और संचार के लिए डिजिटल इंडिया का हिस्सा हैं। दूर के गाँव-कस्बे से खबर तुरंत लाइव आ जाती है, राजनीतिक विश्लेषक पल-पल अपडेट डाल देते हैं, स्वतंत्र पत्रकार गोपनीय सूत्रों से सुरक्षित बात कर लेते हैं। यह सस्ता और ताकतवर डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर अब एक सिम के नियम से खतरे में है।

कोई भी पत्रकार या लेखक जो विदेश में वार ज़ोन, चुनाव या खेल कवरेज करने जाता है, वहाँ इंटरनेट और कॉल के लिए लोकल सिम डालता है, क्योंकि विदेश में भारतीय सिम पर रोमिंग बहुत महँगी पड़ती है या कई जगह काम ही नहीं करती। नई गाइडलाइंस के तहत जैसे ही लोकल सिम डालेगा, उसका भारतीय नंबर वाला व्हाट्सएप/टेलीग्राम/सिग्नल अकाउंट तुरंत बंद हो जाएगा। तब न सूत्र से बात हो पाएगी, न एडिटर से संपर्क रहेगा, न लाइव अपडेट भेजा जा सकेगा। यानी विदेश में पूरी तरह संपर्क टूट जाएगा।

आजकल छोटे-बड़े सैकड़ों अखबार, पत्रिकाएँ और हज़ारों डिजिटल प्लेटफॉर्म व्हाट्सएप व टेलीग्राम चैनल के ज़रिए पेड कंटेंट भेजते हैं। पाठकों को भी यह सुविधाजनक लग रहा है, लेकिन एक बार भी डिलीवरी रुक गई तो उनका भरोसा टूट जाएगा। छोटे प्रकाशकों की कमाई का यह रास्ता ही बंद हो जाएगा।

मैसेजिंग ऐप्स की एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन ही गुप्त सूत्र और पत्रकार के बीच भरोसे की आखिरी कड़ी है। जब हर छह घंटे में फोन पास रखना अनिवार्य होगा और सारे ऐप्स एक ही मोबाइल नंबर से बंधे होंगे, तो गोपनीय चैट भी सुरक्षित नहीं रहेंगी। इससे पत्रकारिता की निडरता गहरे तक प्रभावित होगी।

बड़े मीडिया हाउस अपने पैसे और इंजीनियरों की मदद से अपना अलग ऐप, अपना सर्वर या नया प्लेटफॉर्म बना लेंगे – इसमें एक-दो साल भी लगें तो खर्च उठा लेंगे। लेकिन देश में 1.5 लाख से ज़्यादा पंजीकृत छोटे-मझोले अखबार और डिजिटल प्लेटफॉर्म हैं। ये इस नियम के लागू होते ही सबसे ज़्यादा पिसेंगे। और जो साइबर ठग हैं, उनके पास पहले से VPN, क्लाउड फोन, विदेशी वर्चुअल नंबर और एक साथ दर्जनों eSIM होते हैं। सिम बाइंडिंग का यह नियम उन्हें शायद ही कोई फर्क डालेगा।

दुनिया का कोई बड़ा लोकतांत्रिक देश मैसेजिंग ऐप्स को इस तरह सिम से जकड़कर नहीं रखता। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे देश 2FA और AI-बेस्ड फ्रॉड डिटेक्शन पर भरोसा करते हैं। अमेरिका में OTP या ऐप-बेस्ड ऑथेंटिकेशन अनिवार्य है, लेकिन लगातार डिवाइस में सिम की मौजूदगी ज़रूरी नहीं। ब्रिटेन में AI-बेस्ड रीयल-टाइम ट्रांजेक्शन स्कोरिंग और मास्टरकार्ड जैसे टूल्स फ्रॉड रोक रहे हैं बिना सिम को अनिवार्य किए।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, 19(1)(g) पेशे की स्वतंत्रता देता है (जिसमें पत्रकारिता और फ्रीलांसिंग शामिल है), और अनुच्छेद 21 जीवन व निजता का अधिकार देता है जिसमें डिजिटल निजता भी आती है। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष पत्रकारिता लोकतंत्र की रीढ़ है। इस नियम से वह रीढ़ कमज़ोर होगी।