प्रमोद भार्गव
मुस्लिम तुष्टिकरण की बुनियाद पर भारत को जितनी हानि उठानी पड़ी है, दुनिया के अन्य किसी देश ने नहीं उठाई।इसकी शुरूआत अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन से की,इसी कड़ी में वंदे मातरम गीत के टुकड़े किए गए और फिर देश का भी बंटवारा जिन्ना की अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने की जिद के चलते हो गया। जबकि संपूर्ण वंदे मातरम् गीत भारत की शाश्वत संकल्पना है। राष्ट्रीय गीत के 150 वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में हुई चर्चा के दौरान गीत के विभाजन के लिए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सीधे जिम्मेवार ठहराया। कहा, ‘नेहरू ने जिन्ना की सांप्रदायिक चिंताएं दोहराकर वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया। गीत के टुकड़े कराए। इससे देश तुष्टिकरण की राजनीती की राह पर चल पड़ा,जो देश विभाजन पर जाकर थमा।’ इसी तुष्टि के चलते 1875 में रचित इस गीत के केवल दो पद राष्ट्रीय गीत के रूप अपनाए गए।
मोदी के इस कथन ने इतिहास के इस काले पन्ने पर जमा धूल को हटाने का काम नए सिरे से कर दिया है। जबकि आजादी की लड़ाई में वंदे मातरम् की भावना ने पूरे राष्ट्र का जागरण किया था, लेकिन दुर्भाग्य से 1937 में इस गीत के महत्वपूर्ण पदों को उसकी आत्मा के एक हिस्से को अलग कर दिया गया था। जिस भाव से वंदे मातरम् के टुकड़े किए गए थे, कालांतर में उसी भाव ने विभाजन के बीज बो दिए थे। जबकि यह ठोस और निर्विवाद सच्चाई है कि देश को आजादी दिलाने में इस गीत की अहम् भूमिका रही है। बंकिमचंद्र चटर्जी के बांग्ला भाषा में लिखे गए उपन्यास ‘आनंद मठ’ में यह गीत दर्ज है। राष्ट्रगान के रूप में स्वीकारा गया यह गीत कोई मामूली गीत नहीं है। भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान और स्वाभिमान इसी गीत से प्राप्त हुए। नागरिक सभ्यता की विरासत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानव सेवा के मूल्यों के उत्स इसी गीत के समवेत स्वर की उपज हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध भिन्न जातीय और धर्म-समुदायों को संगठित करने के अभियान में इसी गीत की भूमिका बुलंद थी। तय है, वंदे मातरम् क्रांति के स्वरों में नींव का पत्थर था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रक्त धमनियों में विद्रोह की उग्र भावना इसी गीत की देन है। 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन को देशव्यापी धरातल इसी गीत के बूते मिला था। और वह यही आंदोलन था, जिसमें गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था।यह नारा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वाला भी माना जाता है। सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के फौजियों ने भी इसी गीत को गाते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर किए थे। हालाँकि महात्मा गांधी 1905 में ही लिख चुके थे कि वंदे मातरम इतना लोकप्रिय हो गया है कि वह राष्ट्रगान जैसा बन गया है।
14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि में जब देश आजाद हो रहा था, तब इस मंत्र-गीत का गायन श्रीमती सुचेता कृपलानी ने किया और वहां उपस्थित लोग इस गीत के सम्मान में गीत खत्म न हो जाने तक खड़े रहे थे। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता का सूर्योदय हो रहा था, तब आकाशवाणी पर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से गाया। आखिरकार 24 अगस्त 1948 को जन-गण-मन के साथ इस गीत को भी राष्ट्र गीत की प्रतिष्ठा मिली। लेखक और दार्शनिक युगदृष्टा होते हैं, इसलिए बंकिम बाबू ने इस गीत को लिखे जाने के वक्त ही अपनी दिव्य-दृष्टि से अनुभव कर लिया था कि यह गीत राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनकर लोकप्रियता के शिखर चूमेगा, इसीलिए उन्होंने इसे बांग्ला भाषा में न लिखते हुए संस्कृत में लिखा। मूल और संपूर्ण गीत की केवल नौ पंक्तियां बंगाली में हैं। इस गीत का जो संपादित अंश राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया है, वह केवल दो पद और आठ पंक्तियों में है।
वंदे मातरम् को इस्लाम विरोधी जताया जाता रहा है। जब कांग्रेस ने इसे प्रार्थना गीत के रूप में स्वीकार किया था, तब भी इसकी खिलाफत शुरू हो गई थी। 15 अक्टूबर 1937 को लखनऊ में मोहम्मद अली जिन्ना वंदे मातरम का विरोध किया। वस्तुतः नेहरू ने इस विरोध के पांच दिन बाद ही सुभाष बोस लिखे एक पत्र में कहा कि ‘आनद मठ में उल्लेखित वंदे मातरम की पृष्ठभूमि मुसलमानों को उकसा सकती है।’ इसी के बाद कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसमें मौलाना आजाद, पंडित नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस जैसे प्रखर संस्कृति मर्मज्ञ सदस्य थे। समिति को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से विचार-विमर्श कर वंदे मातरम् के संबंध में दो टूक सलाह दें। समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ से परामर्ष के बाद जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, उसके उपरांत कांग्रेस कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि हरेक राष्ट्रीय सार्वजनिक सभा में वंदे मातरम् के केवल दो पद गाये जाएं।यानी कांग्रेस मुस्लिम लीग के समक्ष झुकी और मुस्लिम तुष्टिकरण की राह पकड़ ली। तुष्टि का यही रास्ता देश को विभाजन के द्वार तक ले गया।
बावजूद देश-विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के नेता वंदे मातरम् को बुतपरस्ती, अर्थात मूर्ति पूजा मानते हुए इसका विरोध लगातार करते रहे। इस बहाने लीगियों ने अल्पसंख्यकों को खूब उकसाया। नतीजतन 1938 तक कांग्रेस के जो प्रमुख मुस्लिम नेता इस गीत की राष्ट्रीय गरिमा का ख्याल रखते चले आ रहे थे, वे भी दबी जुबान से इसका विरोध करने लगे। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंख्यक हिंदू और सिख हठपूर्वक इस गीत की महिमा के बखान में लगे रहे। बाद में साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के नजरिये से उर्दू के उदारवादी कवियों व राजनीतिकों ने वंदे मातरम् का अनुवाद ‘ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं’ किया, अर्थात हे माता, तुझे प्रणाम करता हूं करके किया,लेकिन कट्टरपंथियों के भाव उतरा नहीं।जबकि मुल्क को गुलामी से आजाद कराने की इस इबादत में गलत कुछ भी नहीं था। अरबी-फारसी के अनेक कवियों ने भी देश को ‘मां’ कहकर संबोधित किया है। लिहाजा राष्ट्र के प्रति अपनी भावनाओं व उद्गारों को प्रचलित रूपकों अथवा प्रतीकों में प्रकट करना मूर्ति पूजा या बुतपरस्ती कतई नहीं थी। वंदे मातरम् एक मौलिक रचना है, इसकी व्याख्या धर्म नहीं, केवल साहित्य के संदर्भ में होनी चाहिए थी। इसे यदि कोई सांसद या विधायक इस्लाम विरोधी जताता है, तो उसका मकसद धर्म के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकना भर था, जो अलगाववादी राजनीति की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है।जिन्ना और अन्य लीगी इसी विभाजनकारी मानसिकता से काम करते रहे और देश दो टुकड़ों में बंट गया। स्वतंत्र भारत में निर्वाचित कुछ मुस्लिम सांसद और विधायक संविधान की शपथ लेने के बाद भी सदन में इस गीत का अनादर करते रहते हैं। ऐसे ही चंद सिरफिरे मुस्लिमों ने आजाद हिंद फौज के नारे, ‘जय हिंद’ का भी विरोध किया था । दैनिक अखबार ‘डान’ ने वंदे मातरम् की आलोचना की थी, तब गांधी को कहना पड़ा था, ‘वंदे मातरम् कोई धार्मिक नारा नहीं है, यह विशुद्ध राजनीतिक नारा है।’ यही नारा था, जिसने सोये हुए भारत को जगाने का काम करके, आजादी हासिल कराई थी।अतएव संसद में इस गीत के इतिहास में झांकने की बहस को एक सबक के रूप में लेना चाहिए,जिससे भविष्य में देश की संप्रभुता एवं अखंडता से खिलवाड़ की गुंजाइश ही नहीं रह जाए?





