अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की भारत को चावल की धमकी का क्या होगा असर

What will be the impact of US President Donald Trump's rice threat to India?

अशोक भाटिया

इस साल ट्रंप ने भारत से आने वाले सामानों पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाए थे, जिसका हवाला उन्होंने व्यापार बाधाओं और ऊर्जा खरीद से जुड़े मुद्दों का दिया था। अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल इस सप्ताह भारत का दौरा करने वाला है ताकि व्यापार वार्ता को आगे बढ़ाया जा सके, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि कोई बड़ा समझौता होने की संभावना कम है। ट्रंप ने कनाडा के साथ भी व्यापारिक तनाव बढ़ाया है, जहां उन्होंने उर्वरकों पर ‘बहुत कड़े टैरिफ’ लगाने की बात कही ताकि अमेरिकी उत्पादन को बढ़ावा मिले।

इसी सिलसिले में ट्रंप ने भारत पर सस्ते चावल की ‘डंपिंग’ का आरोप लगाते हुए नए टैरिफ लगाने का संकेत भी दिया है। इससे भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों में तनाव बढ़ सकता है। अमेरिकी किसान सस्ते आयात से नुकसान की शिकायत कर रहे हैं, जबकि ट्रंप ने कनाडाई खाद पर भी कड़े टैरिफ की धमकी दी है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सोमवार को व्हाइट हाउस में एक कार्यक्रम के दौरान अमेरिकी किसानों को 12 अरब डॉलर के आर्थिक सहायता पैकेज की घोषणा की, जो उनकी ही लगाई गई टैरिफ नीतियों से प्रभावित हुए हैं। इस बीच, ट्रंप ने व्हाइट हाउस मीटिंग में किसानों से कहा, “वो लोग डंपिंग नहीं कर सकते।।। ऐसा नहीं कर सकते।” उन्होंने विशेष रूप से भारत, वियतनाम और थाईलैंड से आने वाले सस्ते चावल आयात को अमेरिकी चावल उत्पादकों के लिए खतरा बताया। किसान संगठनों के अनुसार, इन आयातों से अमेरिकी चावल की कीमतें गिर रही हैं, जिससे स्थानीय उत्पादक परेशान हैं। ट्रंप ने वादा किया कि वह इस ‘डंपिंग’ को रोकने के लिए कड़े कदम उठाएंगे, जिसमें नए टैरिफ शामिल हो सकते हैं।

दूसरी ओर, ट्रंप की टैरिफ नीतियां अमेरिकी किसानों को ही नुकसान पहुंचा रही हैं। चीनी व्यापार युद्ध के कारण चीन ने अमेरिकी सोयाबीन और ज्वार की खरीद कम कर दी है, जिससे किसानों को लगातार नुकसान हो रहा है। अमेरिकी सोयाबीन एसोसिएशन के अनुसार, 2025 में सोयाबीन किसान तीसरे साल लगातार घाटे में हैं। टैरिफ से बीज और उर्वरक की कीमतें भी बढ़ गई हैं। फूड एंड एग्रीकल्चरल पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुमान से 2026 में किसानों की कुल आय में 30 अरब डॉलर से अधिक की कमी आ सकती है।

12 अरब डॉलर के पैकेज की घोषणा इसी संदर्भ में हुई है। ट्रंप ने कहा, “हम टैरिफ से मिली आय का एक छोटा हिस्सा किसानों को आर्थिक सहायता के रूप में दे रहे हैं। हम अपने किसानों से प्यार करते हैं।” इसमें से 11 अरब डॉलर नए ‘फार्मर ब्रिज असिस्टेंस’ कार्यक्रम के तहत रो क्रॉप किसानों (जैसे सोयाबीन उत्पादक) को दिए जाएंगे, जो व्यापार विवादों और बढ़ती लागतों से प्रभावित हैं। शेष एक अरब डॉलर के आवंटन पर अभी विचार चल रहा है। इस साल किसानों को पहले ही आपदा राहत और आर्थिक सहायता के रूप में 40 अरब डॉलर की सब्सिडी मिल चुकी है।

ट्रंप प्रशासन का दावा है कि चीन के साथ हालिया समझौते से स्थिति सुधरेगी, जिसमें बीजिंग ने साल के अंत तक 1।2 करोड़ मीट्रिक टन अमेरिकी सोयाबीन खरीदने का वादा किया है। अगले तीन सालों के लिए यह मात्रा सालाना 2।5 करोड़ मीट्रिक टन तक बढ़ाई जाएगी, हालांकि 2025 में अब तक केवल एक छोटा हिस्सा ही खरीदा गया है।

ट्रंप के किसान समर्थक वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए यह पैकेज राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। किसान संगठनों ने सहायता का स्वागत किया है, लेकिन लंबे समय तक टैरिफ युद्ध से निपटने के लिए व्यापार समझौतों की मांग की है। भारत सरकार ने अभी तक इन आरोपों पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन व्यापार मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, दिल्ली वार्ताओं में मुद्दों को सुलझाने की कोशिश की जाएगी।

अंतरराष्ट्रीय व्यापार में “डंपिंग” का मतलब है कि कोई देश अपनी वस्तु को दूसरे देश में उसकी घरेलू कीमत या उत्पादन लागत से बहुत कम दाम पर बेचता है। चावल की डंपिंग से तात्पर्य है कि भारत जैसे देश अमेरिका में चावल को इतना सस्ता बेच रहे हैं कि अमेरिकी किसान अपना उत्पादन बेच भी नहीं पाते। नतीजा यह होता है कि अमेरिकी बाजार में विदेशी चावल का हिस्सा तेजी से बढ़ जाता है और स्थानीय किसानों की कमाई घट जाती है या वे घाटे में चले जाते हैं।

भारत पर डंपिंग का आरोप इसलिए लग रहा है चूँकि भारत में चावल पैदा करने की लागत दुनिया में सबसे कम है – एक टन गैर-बासमती चावल की लागत मात्र 15-18 हजार रुपये (लगभग 180-220 डॉलर) पड़ती है, जबकि अमेरिका में यही लागत 38-45 हजार रुपये (450-550 डॉलर) तक होती है। इसका कारण है – सस्ती मजदूरी, मुफ्त/सब्सिडी वाली बिजली, भारी सब्सिडी वाले खाद-बीज और सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बड़े पैमाने पर खरीद। सरकार इतना चावल खरीद लेती है कि किसान को बाजार की चिंता नहीं रहती। फिर यह चावल निर्यातकों के पास जाता है और दुनिया में जितना भी दाम मिले, बेच दिया जाता है – अक्सर अमेरिकी किसानों की लागत से भी कम में। खासकर टूटा चावल (ब्रोकन राइस) और निम्न श्रेणी का सफेद चावल अमेरिका में बीयर बनाने, पालतू जानवरों के खाने और प्रोसेस्ड फूड में इस्तेमाल होता है, जिसकी कीमत 2025 में 350-380 डॉलर प्रति टन तक गिर गई है।

दरअसल विश्व व्यापार संगठन के नियमों में डंपिंग तभी अवैध मानी जाती है जब आयात करने वाला देश साबित कर दे कि (1) निर्यात मूल्य घरेलू मूल्य या उत्पादन लागत से कम है, (2) इससे स्थानीय उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है, और (3) नुकसान का सीधा कारण वही सस्ता आयात है। अमेरिका ने पहले भी भारत के चावल पर एंटी-डंपिंग जांच शुरू की है, लेकिन ज्यादातर मामलों में भारत बच जाता है क्योंकि टूटा चावल की घरेलू कीमत तुलना करना मुश्किल होता है और भारत कहता है कि हमारी सब्सिडी किसानों के लिए है, निर्यात के लिए नहीं। फिर भी 2025 में अमेरिकी किसानों का गुस्सा इतना बढ़ गया है कि ट्रंप ने नए टैरिफ लगाने की धमकी दी है। यही वजह है कि इसे “चावल डंपिंग” का मामला कहा जा रहा है।यह घटनाक्रम वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता को बढ़ा रहा है, खासकर कृषि क्षेत्र में। विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति से न केवल विदेशी संबंध प्रभावित हो रहे हैं, बल्कि घरेलू अर्थव्यवस्था पर भी दबाव पड़ रहा है।

भारतीय चावल निर्यातकों ने मंगलवार को कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारतीय चावल पर अतिरिक्त टैरिफ लगाने की संभावित कार्रवाई पर उद्योग जगत में कोई बड़ी चिंता नहीं है। भारत चावल निर्यातक महासंघ (IREF) के अध्यक्ष प्रेम गर्ग ने बताया कि अमेरिका को होने वाला चावल निर्यात भारत की कुल निर्यात मात्रा का बहुत छोटा हिस्सा है, इसलिए शुल्क लगने की स्थिति में भी इसका व्यापक प्रभाव नहीं पड़ेगा। गर्ग ने बताया कि अमेरिका को बासमती चावल का निर्यात 3 प्रतिशत से भी कम है। वहीं भारत के कुल चावल निर्यात करीब 210 लाख टन में अमेरिका की हिस्सेदारी केवल एक प्रतिशत से भी कम है। उन्होंने बताया कि अमेरिका हर वर्ष मात्र 2।7 लाख टन भारतीय चावल आयात करता है, जो भारत की वैश्विक आपूर्ति की तुलना में बेहद कम है। गर्ग ने अमेरिकी अधिकारियों द्वारा लगाए गए इस आरोप को भी खारिज किया कि भारत वैश्विक बाजार में चावल डंप कर रहा है।

उन्होंने कहा कि भारतीय चावल की मांग स्थिर बनी हुई है और भारत के लिए अमेरिका कोई बड़ा बाजार नहीं है। इसके अलावा भारतीय निर्यातकों को नए और उभरते वैश्विक बाजारों से अच्छी मांग मिल रही है, जिससे समग्र निर्यात बास्केट मजबूत बनी हुई है। उनकी यह टिप्पणी वाशिंगटन में भारतीय चावल पर अतिरिक्त शुल्क लगाने पर चर्चा के बीच आई है, जिस पर पहले से ही 50 प्रतिशत टैरिफ लगता है। गर्ग ने कहा कि छह महीने पहले 10 प्रतिशत से शुरू होकर यह शुल्क 25 प्रतिशत और फिर पिछले तीन महीनों में 50 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इसका मांग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि नवंबर में निर्यात पिछले साल के समान ही रहा। उद्योग जगत के लोगों ने कहा कि शुल्क में आगे कोई भी वृद्धि मुख्य रूप से अमेरिकी उपभोक्ताओं द्वारा वहन की जाएगी। राइस विला समूह के सीईओ सूरज अग्रवाल ने कहा कि अमेरिका को निर्यात की जाने वाली भारतीय बासमती और प्रीमियम गैर-बासमती किस्में एशियाई और मध्य पूर्वी समुदायों के लिए आवश्यक खाद्यान्न हैं।

उन्होंने कहा कि ये आवश्यक वस्तुएं हैं, विलासिता की वस्तुएं नहीं। मांग पर प्रभाव नगण्य होगा। किसी भी अतिरिक्त शुल्क का खामियाजा केवल अमेरिकी उपभोक्ताओं को ही भुगतना पड़ेगा। भारत, जो वैश्विक चावल निर्यात का 40 प्रतिशत आपूर्ति करता है और 172 देशों को निर्यात करता है, में लगातार मजबूत मांग देखी जा रही है। खाड़ी देश बासमती के प्रमुख बाजार बने हुए हैं, वहीं अफ्रीकी देश तेजी से बढ़ते खरीदार के रूप में उभरे हैं। उदाहरण के लिए, बेनिन ने पिछले साल 60,000 टन से अधिक बासमती का आयात किया। गर्ग ने कहा कि यह एक नया बाजार है जो बहुत तेजी से विस्तार कर रहा है। रूस ने भी गैर-बासमती किस्मों पर अपने पारंपरिक फोकस से आगे बढ़ते हुए बासमती की खरीद शुरू कर दी है। उन्होंने कहा कि ब्राजील और थाईलैंड जैसे प्रमुख चावल उत्पादक देश भी भारतीय बासमती का आयात कर रहे हैं। गर्ग ने कहा कि भारत चीन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक बन गया है और अगले साल घरेलू उत्पादन में 4-5 प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है क्योंकि किसानों को बेहतर मूल्य मिल रहा है।