प्रो. जसीम मोहम्मद
भारत पूरी दुनिया में अनेकता में एकता का सर्वोपरि उदाहरण है, जहाँ की सांस्कृतिक बहुलता के बावजूद उसकी भावनात्मक एकता उसकी सबसे बड़ी विशेषता और पहचान बन जाती है। भारत अलग-अलग धर्मों, भाषाओं, रीति-रिवाजों परंपराओं, आस्थाओं का देश है। बावजूद इसके यह इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि अलग-अलग तरह की सांस्कृतिक विविधता के होते हुए समन्वय और सम्मान के साथ सहअस्तित्व को कैसे बनाए रखा जा सकता है। अपने लंबे इतिहास के आरंभ से ही, भारत ने सभी को सिखाया है कि बिना किसी भय या दबाव के अलग-अलग तरह के लोगों के साथ कैसे रहा जाए। यहाँ, विविध धर्म, अनेक भाषाएँ और कई रीति-रिवाज एक साथ विद्यमान हैं, जो एक ही बाग में खिलने वाले फूलों की तरह साथ-साथ रहते हैं। यह सोच किसी एक राजा या किताब से नहीं आई। यह आम लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से आई, जिन्होंने सीखा है कि शांति लड़ाई से ज़्यादा मज़बूत है और सम्मान, घृणा से बहुत ज़्यादा मज़बूत है। एक साथ मिलकर रहने में इस गहरे विश्वास की वजह से, भारत ने कभी भी नए विचारों या नए लोगों के लिए अपने दरवाज़े बंद नहीं किए। कई देशों से व्यापारी, अध्येता, खोजकर्ता, इतिहासकार, संत-सूफी और यात्री आए। उनके साथ अधिक समय तक अजनबी जैसा बर्ताव नहीं किया गया; धीरे-धीरे, वे भारतीय जीवन का हिस्सा बन कर यहीं रच-बस गए। यहाँ आनेवाले प्रत्येक समूह ने भारत की संस्कृति में कुछ न कुछ जोड़कर विशेष योगदान दिया और वह अपने साथ कुछ भारतीय जन को वापस ले गया। इस लगातार आपसी लेन-देन और आदान-प्रदान ने एक ऐसी सभ्यता को आकार दिया, जो समृद्ध, खुलेपन और जीवन से भरपूर है।
इन प्रभावों में, फ़ारसी भाषा और सोच का भारत में एक लंबा और सार्थक सफ़र रहा। फ़ारसी दरबारों, साहित्य और शिक्षा में बातचीत का एक पुल बन गई। उसने भारत को कविता के नए स्टाइल, इतिहास लिखने के नए तरीके और प्रशासन के नए सिस्टम दिए। भारतीय मिट्टी ने उसे अपने तरीके से आकार दिया और उसे अपनी बड़ी सांस्कृतिक धारा का हिस्सा बनाया। भारतीय और फ़ारसी परंपराओं के इस मिलन से, एक सुंदर इंडो-इस्लामिक संस्कृति आगे बढ़ने लगी। यह संस्कृति विदेशी नहीं थी, क्योंकि उसने सम्मान, संतुलन और साथ रहने के भारतीय मूल्यों में जड़ें जमा ली थीं। इसका प्रभाव आज भी हमारे स्मारकों, हमारे संगीत, हमारे खाने और यहाँ तक कि उन शब्दों में भी देखा जा सकता है, जो हम हर दिन बिना उनके मूल के बारे में सोचे बिना हिचक सहजता से बोलते हैं।
जैसे-जैसे यह संस्कृति बढ़ी, भारत में इस्लाम ने भी दूसरी जगहों से अलग रूप लिया। इसमें सहनशीलता, परिवार की देखभाल, मातृभूमि के लिए प्यार और समाज की सेवा जैसी भारतीय आदतें शामिल थीं। भारतीय मुसलमान भारत की ज़िंदगी से अलग नहीं रहते थे। वे इसकी धड़कन में रहते थे और इसकी खुशियों और संघर्षों को साझा करते थे। इस साझा ज़िंदगी के साथ देशभक्ति की गहरी भावना भी आई। भारतीय मुसलमानों के लिए, धर्म के लिए प्यार ने देश के लिए प्यार को कभी कमज़ोर नहीं किया। जब भारत कोलोनियल शासन में परेशान था, तो सभी समुदायों के लोग एक साथ उठ खड़े हुए। आज़ादी का सपना हर उस भारतीय का था, जिसने मातृभूमि के लिए दर्द महसूस किया। इस साझा संघर्ष ने समुदायों के बीच भरोसे के मज़बूत बंधन बनाए। लोगों ने कठिन से कठिन समय में एक-दूसरे के हितों की रक्षा की। उन्होंने बिना किसी डर के एक-दूसरे की खुशियों में सम्मिलित होकर उनका जश्न मनाया। समय के साथ, सांप्रदायिक सद्भाव एक विचार और एक जीने की आदत बन गया। यह साझा त्योहारों, साझा सड़कों, साझा बाज़ारों और शांति के लिए साझा प्रार्थनाओं में सर्वत्र देखा गया। अनेक लोग इस एकता के प्रतीक बन गए। उन्होंने अपनी ज़िंदगी से दिखाया कि कोई एक ही समय में बहुत धार्मिक और गहराई से राष्ट्रीय हो सकता है। उन्होंने कभी नफ़रत नहीं फैलाई। उन्होंने कभी दीवारें नहीं बनाईं। इसके बजाय, उन्होंने अपने शब्दों, अपने कामों और अपने निजी उदाहरण से समाज में मजबूत पुल बनाए। इन सभी सदियों में, एक सच हमेशा पक्का रहा: भारत में, आस्था हमेशा व्यक्तिगत रही, लेकिन देश हमेशा एकजुट -एक साथ रहा। इस समन्वय और सोच ने भारत को टूटने से बचाया, तब भी जब बँटवारे के तेज़ झंझावातों ने उसे हिलाने की कोशिश की। बार-बार, भारत अपनी असली ताकत पर लौटा—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एकजुटता।
यही भावना “इंडिया फर्स्ट” या भारत प्रथम के विचार को सार्थक आकार देती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म, भाषा या संस्कृति को दरकिनार कर दिया जाए। इसका सीधा-सा मतलब है कि देश सभी निजी मतभेदों और अपेक्षाओं से कहीं बहुत ऊपर है। जब ‘इंडिया फर्स्ट’ का गौरवपूर्ण भाव आता है, तो हर पहचान सुरक्षित हो जाती है, कमजोर नहीं। यह सच तब और भी प्रामाणिक और पुख्ता हो जाता है, जब हम अतीत की साधारण मानवीय कहानियों को हम देखते हैं।
एक घटना का यदि मैं उल्लेख करूँ, तो कमोबेश पांच सौ साल पहले मेरे अपने गाजीपुर के कमसार क्षेत्र में, श्री नर हर देव सिंह जी ने इस्लाम धर्म कबूल किया। उनका धर्म बदल गया, लेकिन भारतीय संस्कृति के लिए उनका प्यार नहीं बदला। आज भी, वह स्मृतियाँ हमारे परिवार में सम्मान और गर्व के साथ जिंदा है। मेरे अपने ही घर-परिवार में मेरी पत्नी निकहत परवीन, जो गाँव बारा, जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखती हैं, आज भी भारती गौरव और अस्मिता का प्रतीक सिंदूर अपने माथे पर लगाती हैं। उनके लिए, यह सिर्फ एक निजी रस्म नहीं है; यह सामूहिक समन्वय और सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है। यह उदाहरण इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि भारतीय परंपरा हर धर्म के अंदर रह सकती है। यह हमें सिखाती है कि संस्कृति, लेबल से कहीं ज़्यादा गहरी और बदलाव से ज़्यादा मज़बूत होती है। यह छोटी सी पारिवारिक कहानी एक बड़ी राष्ट्रीय सच्चाई को दिखाती है। भारत लोगों को यह भूलने के लिए मजबूर नहीं करता कि वे पहले क्या थे, बल्कि यह उन्हें वह बनने की आज़ादी देता है, जो वे बनना चाहते हैं। इसके साथ ही वे इस ज़मीन की साझा जड़ों से जुड़े रहते हैं।
इसीलिए भारत में इस्लाम कभी एक अलग आइलैंड की तरह नहीं बढ़ा। यह भारत की बड़ी और महान् सभ्यता रूपी नदी के एक हिस्से की तरह बढ़ा। इसके मूल्य भारतीय सामाजिक मूल्यों के साथ स्वभाविक रूप से मिल गए। मस्जिदें और मंदिर एक ही शहर में, अक्सर एक ही गलियों में, बिना किसी डर के मौजूद थे। आज, जब कई देश धार्मिक झगड़ों से जूझ रहे हैं, तो भारत का अनुभव और भी ज़रूरी हो जाता है। दुनिया बिना हिंसा के मतभेदों को व्यवस्थित करने के तरीके खोज रही है। भारत इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण है कि यह सहनशीलता, सम्मान और आपसी बातचीत से संभव है। पाँच बड़ी धाराएँ—फ़ारसी योगदान, इंडो-इस्लामिक कल्चर, देशभक्ति, सांप्रदायिक सद्भाव और देश के प्रति वफ़ादारी एक साथ बहती हैं, जैसे नदियाँ एक समुद्र में मिलती हैं। ये सभी मिलकर भारत की नैतिक शक्ति का निर्माण कर उसे मज़बूत बनाते हैं। जो लोग भारत को बाँटने की कोशिश करते हैं, वे भूल जाते हैं कि हमारा इतिहास एक जैसे हाथों से लिखा गया है। किसान, कवि, सैनिक, शिक्षक और व्यापारी सभी अलग-अलग धर्मों के थे, लेकिन उनके सपने एक जैसे थे।
भारतीय इस्लाम कभी भी भारतीय सभ्यता के विरुद्ध नहीं खड़ा हुआ। वह इसके अंदर खड़ा रहा और इसे मज़बूती प्रदान करने में सहायक रहा। इसके जानकारों, नेताओं, सैनिकों और आम लोगों, सभी ने आधुनिक भारत को हर तरह से समर्थ बनाने में अपनी भूमिका निभाई। सच्चे सद्भाव का अर्थ यह नहीं है कि हर कोई एक जैसा हो जाए, बल्कि इसका अर्थ यह है कि हर कोई बिना भय और दबाव के अलग-अलग तरह से जीना सीखे। भारत ने यह सबक तब सीखा, था जब मॉडर्न दुनिया ने प्लूरलिज़्म, इनक्लूजन और डाइवर्सिटी के बारे में बात करना शुरू भी नहीं किया था।
आज जब हम इंडिया फर्स्ट की बात करते हैं, तो हमें इसका गहरा मतलब समझना चाहिए। इसका मतलब है, क्रोध और टकराव से ऊपर उठ कर अपनी एकता की रक्षा करना, प्रोपेगैंडा से बचकर वास्तविकता और सच्चाई की रक्षा करना और निजी लाभ-हानि से ऊपर सोचकर शांति की रक्षा करना। इस नैतिक आधार के बिना कोई भी देश लंबे समय तक एकजुट और शक्तिशाली नहीं रह सकता। भारत का भविष्य न केवल सड़कों, फैक्ट्रियों और टेक्नोलॉजी पर निर्भर करेगा, बल्कि इसके लोगों के बीच आपसी भरोसे और विश्वास पर भी निर्भर करेगा। सिर्फ आर्थिक संपन्नता किसी देश को एक साथ नहीं रख सकती। सांस्कृतिक शक्ति और सामाजिक समरसता की भावना भी उतनी ही आवश्यक है। हमारा अतीत हमें यह दिखाता है कि भारत में सांस्कृतिक टकराव लगातार नहीं होते थे! लोग आपस में मिलते थे, सांस्कृतिक आदान प्रदान के माध्यम से एक साथ परिपक्व होने का परिचय देते थे। इसीलिए विविधता या अनेकता के साथ भारत छोटा नहीं हुआ, बल्कि अपनी समन्वयकारी नीति और सोच से यह बड़ा होता गया । जब तक समन्वित परंपरा, समरस और साझा राष्ट्रीय भाव और सोच का विस्तार होता रहेगा, तब तक विश्व की कोई भी शक्ति भारत को भीतर से न तो कमजोर कर सकती है और न ही उसे तोड़ सकती।





