देश के विभिन्न भागों में आयोजित होने के बाद दिव्यांग कला मेला राजधानी दिल्ली में 9 दिसंबर से 21 दिसंबर तक आयोजित हुआ। ऐसे मेलों का आयोजन न केवल दिव्यांगजनों को आर्थिक अवसर प्रदान करता है, बल्कि समाज में समावेशिता की भावना को मजबूत करता है। इसके साथ ही, अपने पास ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति को देखकर इनमें जोश आता अवरोधों को पार करने का।
विवेक शुक्ला
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की इंडिया गेट पर जहां आदमकद मूर्ति स्थापित है उसके आसपास बीते दिनों रोज हजारों लोग पहुंच रहे थे। ये सब नेताजी की मूर्ति को नमन करने के बाद दिव्यांगजनों की प्रतिभा, रचनात्मकता और उद्यमिता को देखकर मंत्रमुग्ध हो रहे थे। मौका था दिव्य कला मेला 2025 का। अब इस तरह के मेले देश के सभी राज्यों में आयोजित हो रहे हैं। इस मेले में आए दिव्यांग कलाकारों और उद्यमियों के स्टॉल लगे, जहां वे हस्तशिल्प, चित्रकला, ज्वेलरी, खाद्य उत्पाद और अन्य हस्तनिर्मित वस्तुओं का प्रदर्शन कर रहे थे। यह मेला दिव्यांगों की क्षमताओं को मुख्यधारा में लाने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। ऐसे मेलों का आयोजन न केवल दिव्यांगजनों को आर्थिक अवसर प्रदान करता है, बल्कि समाज में समावेशिता की भावना को मजबूत करता है। इसके साथ ही, अपने पास ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति को देखकर इनमें जोश आता अवरोधों को पार करने का।
दिव्य कला मेला जैसे आयोजनों के लाभ बहुआयामी हैं। सबसे पहले, ये आर्थिक सशक्तिकरण के सशक्त माध्यम हैं। भारत में करोड़ों दिव्यांगजन हैं, जिनमें से कई ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं और रोजगार के अवसरों से वंचित रहते हैं। ऐसे मेलों में स्टॉल लगाने का अवसर मिलने से वे अपने उत्पादों को सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, इस वर्ष के मेले में 28वें संस्करण में सैकड़ों दिव्यांग उद्यमी भाग लेने आए, जो अपने हस्तशिल्प को बेचकर आय अर्जित कर रहे हैं। यह न केवल उनकी आर्थिक स्वतंत्रता बढ़ाता है, बल्कि उन्हें बाजार की समझ भी देता है। सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता, जैसे यात्रा भत्ता और स्टॉल की सुविधा, इन व्यक्तियों को बिना किसी अतिरिक्त बोझ के भाग लेने की अनुमति देती है। इन्हें रहने के लिए प्रतिदिन 2200 रुपए मिले। परिणामस्वरूप, कई दिव्यांगजन छोटे व्यवसाय स्थापित कर आत्मनिर्भर बनते हैं, जो गरीबी उन्मूलन में योगदान देता है।
दूसरा प्रमुख लाभ सामाजिक समावेशिता का है। समाज में दिव्यांगजनों के प्रति अक्सर पूर्वाग्रह और दया की भावना रहती है, लेकिन ऐसे मेलों से यह धारणा बदलती है। मेले में एक ‘एक्सेसिबिलिटी सिमुलेशन जोन’ जैसी सुविधाएं हैं, जहां सामान्य लोग दिव्यांगता की चुनौतियों का अनुभव कर सकते हैं। इससे सहानुभूति और समझ बढ़ती है, जो एक समावेशी समाज की नींव रखती है। दिल्ली जैसे महानगर में इंडिया गेट पर आयोजित होने से यह मेला बहुत बड़ी संख्या में पर्यटकों और स्थानीय निवासियों को आकर्षित करता रहा, जो दिव्यांग कलाकारों की प्रतिभा को देखकर प्रेरित हुए। इससे दिव्यांगजन मुख्यधारा में शामिल महसूस करते हैं और उनकी आत्मविश्वास बढ़ता है। ऐसे आयोजन विकलांगता के प्रति जागरूकता फैलाते हैं, जो शिक्षा और रोजगार नीतियों में सुधार लाते हैं। उदाहरणस्वरूप, देश में पिछले दशक में दिव्यांगजनों के लिए आरक्षण और योजनाएं बढ़ी हैं, और मेलों जैसे प्लेटफॉर्म इन योजनाओं का प्रचार करते हैं।
दिव्य कला मेला में प्रदर्शित उत्पाद भारतीय संस्कृति की विविधता को भी दर्शाते हैं – राजस्थानी हस्तकला से लेकर पूर्वोत्तर के बांस उत्पाद तक। यह न केवल सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करता है, बल्कि दिव्यांग कलाकारों को अपनी कला को वैश्विक स्तर पर ले जाने का मौका देता है। मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य और संगीत प्रदर्शन होते रहे, जो दिव्यांगजनों की बहुमुखी प्रतिभा को उजागर करते हैं। इससे युवा पीढ़ी प्रेरित होती है और दिव्यांग बच्चे अपने सपनों को साकार करने के लिए उत्साहित होते हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से भी ये मेला लाभदायक हैं, क्योंकि कई उत्पाद पर्यावरण-अनुकूल सामग्रियों से बने होते हैं, जो सतत विकास को बढ़ावा देते हैं। कुल मिलाकर, ऐसे मेलों से समाज का सामूहिक विकास होता है, जहां हर व्यक्ति की क्षमता का सम्मान किया जाता है। यह मेला सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग (DEPwD) द्वारा आयोजित किया जा रहा है, जो दिव्यांगों की क्षमताओं को मुख्यधारा में लाने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। ऐसे मेलों का आयोजन न केवल दिव्यांगजनों को आर्थिक अवसर प्रदान करता है,
अब कुछ दिव्यांगजनों की सफलता की कहानियों पर नजर डालते हैं, जो इन मेलों की प्रेरणा बन सकती हैं। पहला उदाहरण है खुशी का। वो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की रहने वाली हैं। उन पर एसिड अटैक हुआ था। केस चल रहा है। वो मेले में अपने हाथ से बनी सुंदर डायरियां और बैग वगैरह बेच रही थीं। बात नीतू की। वो एक दृष्टिहीन दिव्यांग महिला हैं, जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से सफलता प्राप्त की है। नीतू ने अपनी कशीदाकारी की कला को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाया और आज वह एक प्रसिद्ध कशीदाकारी कलाकार के रूप में जानी जाती हैं। दिव्य मेला जैसे आयोजनों ने उन्हें एक मंच प्रदान किया, जहां उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन किया और समाज से सराहना प्राप्त की। अब वह न केवल अपनी कला को बेचती हैं, बल्कि उन्होंने अपने जैसे अन्य दिव्यांगजनों को भी प्रशिक्षित किया है। एक उदाहरण और।
ज्योति कुमारी ने अपने शारीरिक विकलांगता के बावजूद फैशन डिजाइनिंग की दुनिया में अपनी पहचान बनाई। दिव्य मेला में उनके द्वारा डिज़ाइन किए गए कपड़े और सामान प्रदर्शित किए गए, जो बहुत ही सुंदर और शैलियों से भरपूर थे। उनकी सफलता ने यह साबित कर दिया कि दिव्यांगजन किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें सही दिशा और अवसर मिले।
इन कहानियों से पता चलता है कि दिव्य कला मेला जैसे प्लेटफॉर्म इन सफलताओं को और बढ़ावा दे सकते हैं। इंडिया गेट में आकर देशभर से आए दिव्यांगजनों को प्रेरणा मिलती रही नेताजी सुभाष चंद्र बोस से, जिनकी मूर्ति वहां ही स्थापित है।





