मनीषा मंजरी
डिजिटल दुनिया ने जीवन की सरलता को नए शिखर पर ला कर खड़ा कर दिया है। हर काम से लेकर हर अभिव्यक्ति हमारी उंगिलयों के अधीन हो चुकी हैं। पर अभिव्यक्ति के सरलीकरण के साथ, एक गंभीर चुनौती भी हमारे सामने आयी है, जो है निजता का क्षरण। आधुनिक दौर में समाज ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है, जहां किसी व्यक्ति के निजी क्षण, भावनात्मक निर्णय और व्यक्तिगत सम्बन्ध सब कुछ सार्वजनिक चर्चा का विषय बनते जा रहे हैं। कुछ हीं पलों में कोई भी निजी अनुभव ‘वायरल सामग्री’ में बदल जाता है। यह स्थिति सिर्फ आधुनिक तकनीकी का परिणाम नहीं अपितु हमारी सामूहिक सोच का भी प्रतिबिम्ब है।
निजता एक मौलिक अधिकार
मनुष्य के मौलिक अधिकारों में निजता के अधिकार को प्रमुखता से दर्शाया गया है। ये कोई आधुनिक अवधारणा नहीं बल्कि हमारे संविधान में उल्लिखित अधिकार है। ये अधिकार एक ऐसी सीमा रेखा खींचता है, जिसके भीतर व्यक्ति बिना भय, बिना दबाब, और बिना सार्वजनिक के स्वयं का हो सकता है। परन्तु सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने इस सीमा पर घातक प्रहार किये हैं। आजकल हर एक दृश्य, हर बातचीत, हर भावनात्मक क्षण को रिकॉर्ड करना और सोशल मीडिया मंचों पर साझा करना सामान्य व्यवहार में शामिल हो चूका है।
सहमति की अनदेखी
और ये समस्या सिर्फ रिकॉर्ड करने तक सिमित नहीं है बल्कि सहमति की अनदेखी भी है। किसी व्यक्ति की अनुमति के बिना उसकी निजी ज़िंदगी को सार्वजनिक करना न केवल नैतिक रूप से गलत है, बल्कि संवैधानिक और मानवीय मूल्यों के भी विरुद्ध है। पर विडंबना ये है कि निजता भंग करने की इस प्रवृत्ति को बहुत हीं सामान्य और तुच्छ मानकर अनदेखा किया जाता है।
नैतिकता पर चयनात्मक चुप्पी
हमारे समाज में ‘संस्कार’, ‘मर्यादा’ और ‘नैतिकता’ की बातें बहुत हीं बढ़ा चढ़ा कर की जाती हैं, विशेषकर तब, जब बात रिश्तों और व्यक्तिगत आचरण की होती है। किंतु जब किसी की निजता सार्वजनिक की जाती है, तब यही नैतिकता मौन क्यों हो जाती है? क्या किसी की भावनात्मक स्थिति को सार्वजनिक मंच पर परोस देना अनैतिक नहीं है?
भावनाएँ और सामाजिक विरोधाभास
यूँ तो समाज में भावनात्मक परिपक्वता की अपेक्षा की जाती है, परन्तु भावनाओं को स्वीकार नहीं किया जाता। किसी रिश्ते को सम्मानपूर्वक समाप्त करना या अतीत से शांति से विदा लेना स्वाभाविक मानवीय प्रक्रिया है। इसके बावजूद ऐसे निर्णयों को संदेह और शर्म की दृष्टि से देखा जाता है।
स्त्रियाँ और दोहरा मापदंड
यह असंवेदनशीलता तब और गहरी हो जाती है जब विषय स्त्रियों से जुड़ा हो। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे त्याग करें, चुप रहें और अपने अतीत को पीछे छोड़ दें। जहां पुरुषों का अतीत अनुभव माना जाता है, वहीँ स्त्रियों के अतीत को उनके चरित्र से जोड़ दिया जाता है। डिजिटल मंचों ने इस दोहरे मापदंड को और अधिक सार्वजनिक तथा आक्रामक बना दिया है।
कमेंट बॉक्स में खुला न्यायालय
आजकल फैसले घरों या समाज की सीमाओं में नहीं होते। वे कमेंट बॉक्स, रील्स और ट्रेंडिंग चर्चाओं में दिए जाते हैं, वह भी बिना संदर्भ और बिना ज़िम्मेदारी के। कुछ सेकंड की दृश्य सामग्री किसी व्यक्ति की पूरी पहचान तय करने लगती है। ना सत्य से किसी को वास्ता होता है और ना हीं निजता पर मौन लिया जाता है।
स्वतंत्रता के साथ ज़िम्मेदारी
डिजिटल प्लेटफॉर्म ने भले हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, पर इसके साथ एक बड़ी ज़िम्मेदारी भी जुड़ी है। बिना सोचे साझा की गई सामग्री कई बार मानसिक हिंसा का रूप ले लेती है। ऐसी सामग्री को देखना, साझा करना या उस पर टिप्पणी करना, इन सबमें हम अनजाने में हीं उस हिंसा का एक बड़ा हिस्सा बन जाते हैं।
सम्मान का वास्तविक अर्थ
सम्मान केवल रिश्तों में हीं ईमानदारी बरतना नहीं होता, बल्कि सम्मान का अर्थ हमें अपनी और सामने वालों की सीमाओं को समझना भी सिखाता है। यह स्वीकार करना कि हर कहानी सार्वजनिक विमर्श का विषय नहीं होती। हर चुप्पी अपराध नहीं होती, हर विदाई और हर आगमन पर सवाल उठाना आवश्यक नहीं होता।
डिजिटल संवेदनशीलता की आवश्यकता
आज आवश्यकता है डिजिटल साक्षरता के साथ-साथ डिजिटल संवेदनशीलता की। तकनीक का उपयोग मानवता को आहत करने के लिए नहीं, बल्कि उसकी रक्षा के लिए होना चाहिए। शेयर करने से पहले ठहरना, टिप्पणी करने से पहले सोचना, और देखने से पहले समझने की कोशिश करना—यही एक जिम्मेदार डिजिटल समाज की पहचान हो सकती है। यह विषय किसी एक घटना या व्यक्ति तक सीमित नहीं है। यह हमारी सामूहिक चेतना पर प्रश्न है, क्या हम केवल दर्शक बने रहेंगे, या इंसान बने रहना भी चुनेंगे?





