एक्सप्रेस वे पर लोगों को चलना सिखाना होगा

People will have to be taught to walk on the expressway

अशोक मधुप

विकास की रफ़्तार तभी सुखद है जब वह सुरक्षित हो। भारत सरकार ने पिछले 10 वर्षों में जो बुनियादी ढांचा खड़ा किया है, विशेषकर सड़क तंत्र में जो क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं, वे अभूतपूर्व हैं। जहाँ पहले दो शहरों के बीच का सफर घंटों और दिनों में तय होता था, आज वह समय काफी कम हो गया है। लेकिन इस भौतिक प्रगति के बीच एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है। क्या हम इन आधुनिक सड़कों पर चलने के लिए मानसिक और तकनीकी रूप से तैयार हैं? अब समय आ गया है कि हम ईंट और डामर की सड़कों से आगे बढ़कर ‘मानव व्यवहार’ में सुधार पर निवेश करें। याद रखिए, एक्सप्रेसवे केवल मंजिल तक जल्दी पहुँचने के लिए नहीं हैं, बल्कि सुरक्षित पहुँचने के लिए हैं। यदि हम गति के साथ गरिमा और अनुशासन नहीं अपना सकते, तो ये चमचमाती सड़कें हमारे लिए वरदान के बजाय अभिशाप सिद्ध होंगी। अब जरूरत है कि”हाईवे और एक्सप्रेसवे बनाने से पहले लोगों को उन पर चलना सिखाना चाहिए”—यह केवल एक सुझाव नहीं, बल्कि समय की मांग है। केवल कंक्रीट के जाल बिछाने से राष्ट्र का कल्याण नहीं होगा, बल्कि उन सड़कों पर सुरक्षित सफर सुनिश्चित करना भी सरकार और नागरिक दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी है।

भारत में सड़क निर्माण की गति पिछले दस वर्षों (2014-2024) में सांख्यिकीय और भौगोलिक दोनों दृष्टि से ऐतिहासिक रही है। 2014 के आसपास देश में राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई लगभग 91,287 किलोमीटर थी, जो 2024 तक बढ़कर 1,46,000 किलोमीटर से अधिक हो गई है। 2014-15 में सड़क निर्माण की दर लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन थी, जो वर्तमान में बढ़कर औसतन 28 से 37 किलोमीटर प्रतिदिन तक पहुँच चुकी है।

भारत ने ‘भारतमाला परियोजना’ के तहत विश्व स्तरीय एक्सप्रेसवे का जाल बिछाया है। दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे, पूर्वांचल एक्सप्रेसवे यमुना एक्सप्रेसवे और समृद्धि महामार्ग जैसे गलियारे भारत की नई पहचान बन चुके हैं। अटल टनल और चेनाब ब्रिज जैसे इंजीनियरिंग के चमत्कार इसी दशक की देन हैं, जिन्होंने दुर्गम क्षेत्रों को मुख्यधारा से जोड़ा है।

इतना सब हुआ। सड़कों की चौड़ाई तो बढ़ी है, लेकिन सुरक्षा के मोर्चे पर हम अब भी संघर्ष कर रहे हैं। पिछले पांच वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि हमारी लापरवाही की कीमत बहुत भारी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2019 में हुई 4,49,002 दुर्घटनाओं 1,51,113मौत हुईं। 2020 में हुई 3,66,138 दुर्घटनाओं में 1,31,714 व्यक्ति मरे। 2021 में हुए 4,12,432 एक्सीडेंट में 1,53,972 व्यक्ति मौत के मुंह में समा गए। 2022 में हुई 4,61,312 दुर्घटनाओं मे 1,68,491 जान गईं। 2023 हुई 4,80,000+ (अनुमानित) में 1,70,000 व्यक्ति मौत के शिकार हुए। ये आंकड़े बताते हैं कि दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। घायलों की संख्या तो मरने वालों से काफी ज्यादा होनी चाहिए। अभी यमुना एक्सप्रेसवे पर हुए हादसे में 19 लोग मरे। 100 से ज्यादा घायल हुए।

आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लगभग 70 प्रतिशत से अधिक दुर्घटनाएं ‘ओवरस्पीडिंग’ यानी अत्यधिक गति के कारण होती हैं। एक्सप्रेसवे पर दुर्घटनाओं की गंभीरता सामान्य सड़कों से कहीं अधिक होती है क्योंकि यहाँ वाहनों की गति बहुत तेज़ होती है। एक्सप्रेसवे सामान्य सड़कें नहीं हैं। यहाँ ड्राइविंग के अपने नियम हैं, जिन्हें भारतीय चालकों को सीखना होगा। इन पर चलते समय लेन का अनुशासन का पालन करना होगा । भारत में सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग भारी वाहन सबसे दाईं ओर चलाते हैं, जबकि वह लेन केवल ओवरटेकिंग के लिए होती है। तेज़ रफ़्तार वाली सड़कों पर गलत लेन में वाहन चलाना आत्महत्या के समान है।

एक्सप्रेसवे पर केवल अधिकतम गति ही नहीं, बल्कि न्यूनतम गति का पालन भी जरूरी है। धीमी गति से चल रहे वाहन तेज़ रफ्तार वाहनों के लिए अवरोध बन जाते हैं, जिससे टक्कर की संभावना बढ़ जाती है। एक्सप्रेसवे की सीमेंट वाली सड़कों पर टायर बहुत जल्दी गर्म होते हैं। यदि टायर पुराने या घिसे हुए हैं, तो वे फट सकते हैं। लोगों को यह सिखाना जरूरी है कि लंबी यात्रा से पहले अपने वाहनों की तकनीकी जांच कैसे करें। एक्सप्रेसवे पर चढ़ने और उतरने के लिए बने रास्तों (रैम्प) का सही उपयोग करना अधिकांश लोगों को नहीं आता। अचानक मुख्य मार्ग पर वाहन मोड़ देना घातक होता है।

वाहनों की संख्या और लाइसेंस धारकों के बीच का यह अंतर यह दर्शाता है कि हमारी सड़कों पर ‘अकुशल’ चालकों की फौज मौजूद है। एक्सप्रेसवे जैसी तेज़ रफ़्तार वाली सड़कों पर यह स्थिति और भी घातक हो जाती है। एक आदर्श स्थिति में, सड़क पर चल रहे हर वाहन के अनुरूप कम से कम एक वैध लाइसेंस होना चाहिए। हालांकि, भारत में स्थिति काफी चिंताजनक है। राष्ट्रीय रजिस्टर के अनुसार, देश में कुल ड्राइविंग लाइसेंसों की संख्या लगभग 21 से 23 करोड़ के बीच है। यदि हम 35 करोड़ पंजीकृत वाहनों की तुलना 23 करोड़ लाइसेंसों से करें, तो स्पष्ट होता है कि वाहनों और चालकों के बीच 12 करोड़ का भारी अंतर है।

विभिन्न क्षेत्रीय परिवहन कार्यालयों (RTO) और पुलिस द्वारा चलाए गए जांच अभियानों के अनुसार, बिना लाइसेंस वाहन चलाने वालों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। एक अनुमान के अनुसार, देश में लगभग 25से 30 प्रतिशत लोग बिना किसी वैध ड्राइविंग लाइसेंस के सड़कों पर वाहन चला रहे हैं। सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि हादसों में जान गंवाने वाले या दोषी पाए जाने वाले चालकों में से लगभग 65 प्रतिशत युवाओं के पास वैध लाइसेंस नहीं होता। ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में यह प्रतिशत और भी अधिक है, जहाँ लगभग 40 प्रतिशत दोपहिया चालक बिना लाइसेंस के गाड़ी दौड़ा रहे हैं।

एक पुरानी रिपोर्ट (सेव लाइफ फाउंडेशन) यह भी बताती है कि जिनके पास लाइसेंस है, उनमें से भी 10 में से छह लोगों ने बिना किसी व्यावहारिक ड्राइविंग टेस्ट के इसे प्राप्त किया है, जो सुरक्षा के लिहाज से एक बड़ा खतरा है।

इसलिए बिना ड्राइविंग लाइसेंस पकड़े जाने पर केवल जुर्माना नहीं, बल्कि वाहन को लंबे समय के लिए ज़ब्त करना होगा। नाबालिगों द्वारा गाड़ी चलाने पर अभिभावकों को जेल की सजा का प्रावधान में कड़ाई जरूरी है। डिजिटल तकनीक का उपयोग कर हर मोड़ पर बिना लाइसेंस वाले पर कार्रवाई अमल में लानी होगी।

इन एक्सप्रेसवे पर चलना सिखाने के लिए सिर्फ शिक्षा पर्याप्त नहीं है; अनुशासन के लिए कानून का भय भी आवश्यक है। गलत वाहन चलाने वालों, शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों और उल्टी दिशा (रॉन्ग साइड) में चलने वालों पर इतनी सख्ती होनी चाहिए कि वे दोबारा नियम तोड़ने की हिम्मत न करें। बार-बार नियम तोड़ने वालों का ड्राइविंग लाइसेंस स्थायी रूप से रद्द कर दिया जाना चाहिए। हर कुछ किलोमीटर पर कैमरे और रडार होने चाहिए जो नियम तोड़ते ही चालान सीधे चालक के पते पर भेजें। नियम पन मानने वालों पर जुर्माना केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि दंडात्मक होना चाहिए ताकि वह व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव डाले।

यमुना एक्सप्रेसवे पर हुई दुर्घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस एक्सप्रेसवे पर प्रत्येक किलोमीटर पर कैमरे लगाने का निर्णय लिया है। यह तो पूरे देश के महत्वपूर्ण मार्ग पर करना होगा, तभी दुर्घटनाएं रूकेंगी।

सड़क सुरक्षा को केवल पुलिस का विषय न मानकर इसे शिक्षा का हिस्सा बनाना होगा। विद्यालयों में बच्चों को बचपन से ही सड़क के संकेतों, लेन अनुशासन और जीवन के मूल्य के बारे में सिखाया जाना चाहिए। जब तक सुरक्षा की भावना हमारे संस्कार में नहीं आएगी, तब तक आधुनिक सड़कें केवल मृत्यु के गलियारे बनी रहेंगी।