दिल्ली‑एनसीआर की हरियाली और सुरक्षा की ढाल अरावली पर्वतमाला को बचाने की निर्णायक लड़ाई

The decisive battle to save the Aravalli Range, the shield of greenery and security of Delhi-NCR

अजय कुमार

दिल्ली‑एनसीआर और आसपास के क्षेत्रों की पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए अरावली पर्वतमाला हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। यह न केवल वायु और जल संरक्षण में योगदान देती है, बल्कि वर्षा जल के ग्राउंड वाटर में प्रवाह को बनाए रखने और मिट्टी कटाव को रोकने का भी कार्य करती है। वर्षों से विभिन्न राजनीतिक दलों, बिल्डरों और अधिकारियों की कोशिशें इस प्राकृतिक ढाल को कमजोर करने की रही हैं। हरियाणा और राजस्थान की जमीन पर अरावली की भूमि को रियल एस्टेट और खनन के लिए खोलने की कई योजनाएं बनती रही हैं, लेकिन पर्यावरणविदों, सुप्रीम कोर्ट और एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने अपने सख्त फैसलों से इसे बचाया है। अगर ये फैसले नहीं होते, तो आज दिल्ली और आसपास के शहरों में अरावली पर हाई‑राइज बिल्डिंगें खड़ी होतीं और पर्यावरणीय संकट और गंभीर रूप ले चुका होता। हरियाणा में फरीदाबाद और गुड़गांव के आसपास अरावली का बड़ा हिस्सा आता है। पिछले वर्षों में राज्य सरकारों ने कई बार इस भूमि को वन क्षेत्र की परिभाषा से बाहर करने की कोशिश की, ताकि बिल्डरों को फायदा पहुँच सके। एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने दिसंबर 2017 में फरीदाबाद क्षेत्र की 17,000 एकड़ भूमि को वन भूमि के दायरे से बाहर करने का प्रस्ताव खारिज कर दिया। बोर्ड ने स्पष्ट किया कि अरावली का दायरा केवल हरियाणा और राजस्थान तक सीमित नहीं होगा, बल्कि पूरे एनसीआर क्षेत्र में इसे मान्यता दी जाएगी। इस निर्णय से अरावली पर्वतमाला को छेड़छाड़ और विनाश से बचाया गया।

डीआरडीओ के लिए जमीन बेचने का मामला भी अरावली की संवेदनशीलता को दर्शाता है। फरीदाबाद नगर निगम ने रक्षा मंत्रालय को 407 एकड़ जमीन बेच दी, जो पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम की धारा 4 और 5 के तहत आती थी। इस अधिनियम के अनुसार, किसी भी गैर-वन गतिविधि पर रोक लगती है। नगर निगम ने शर्त रखी थी कि डीआरडीओ पर्यावरण मंजूरी स्वयं लेगा। सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी और पर्यावरण मंत्रालय ने निर्माण की अनुमति नहीं दी, जिससे संरक्षित पहाड़ी में निर्माण को रोका गया। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने भी इस अविवेकपूर्ण फैसले के लिए रक्षा मंत्रालय की फटकार की दरअसल, डीआरडीओ ने फरवरी 2004 में 700 एकड़ जमीन खरीदने की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसे अगस्त 2005 में बढ़ाकर 1,100 एकड़ कर दिया गया। बाद में डीआरडीओ ने वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए डायवर्ट करने का प्रयास किया, लेकिन नवंबर 2005 में क्षेत्रीय वन संरक्षक ने बताया कि यह भूमि वन क्षेत्र में आती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार, इसे गैर-वन उपयोग के लिए केंद्र से मंजूरी लेना आवश्यक था। मई 2007 में डीआरडीओ ने अपनी जरूरत घटाकर 407 एकड़ कर दी और नगर निगम ने जमीन आवंटित करने की स्वीकृति दी। अप्रैल 2008 में डीआरडीओ ने जमीन पर कब्जा किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी ने अनुमति नहीं दी।

हुड्डा सरकार द्वारा मांगर क्षेत्र में यूरोपियन टेक्नॉलोजी पार्क के लिए 500 एकड़ भूमि को मंजूरी देने का मामला भी अरावली संरक्षण का उदाहरण है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना पर रोक लगा दी थी। 2012 में मांगर डेवलपमेंट प्लान-2031 के मसौदे में 23 गांवों की 10,426 हेक्टेयर भूमि शामिल थी, लेकिन एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने वन क्षेत्र को बचाने के लिए इसकी मंजूरी देने से मना किया। इस तरह कांग्रेस सरकार की कई कोशिशें नाकाम रही और बाद में आने वाली बीजेपी सरकार की नीतियों पर भी सुप्रीम कोर्ट और पर्यावरणविदों ने निगरानी रखी। हरियाणा विधानसभा ने 27 फरवरी 2019 को पंजाब भूमि संरक्षण (हरियाणा संशोधन) विधेयक पास किया, जिससे अरावली क्षेत्र की लगभग 60,000 एकड़ वन भूमि रियल एस्टेट और खनन के लिए खोली जा सकती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाई और पर्यावरणविदों की चिंता को सही ठहराया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जंगलों को खत्म नहीं किया जा सकता और PLPA के तहत आने वाली भूमि को ‘वन’ माना जाना चाहिए।हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की नई परिभाषा जारी की, जिसमें केवल 100 मीटर या उससे अधिक ऊँचाई वाले हिस्सों को पहाड़ माना जाएगा। इस फैसले से छोटे ढलानों की सुरक्षा पर सवाल खड़े हो गए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि छोटे‑छोटे ढलान भी पानी रिचार्ज, हवा की शुद्धता और मिट्टी कटाव को रोकने में महत्वपूर्ण हैं। यदि इन्हें संरक्षण से बाहर किया गया, तो न केवल दिल्ली‑एनसीआर की हवा प्रदूषित होगी, बल्कि पानी की कमी और धूलभरी हवाओं में भी वृद्धि होगी। राजस्थान और हरियाणा में जनता और पर्यावरण संगठनों ने विरोध प्रदर्शन और आंदोलन शुरू कर दिया है। एनएसयूआई जैसे छात्र संगठन और नागरिक समाज की संस्थाएं “अरावली बचाओ पैदल मार्च” जैसी गतिविधियों का आयोजन कर रही हैं। लोगों का कहना है कि अरावली केवल एक पहाड़ नहीं है, बल्कि यह जीवन, जल, हवा और जैव विविधता का घर है। इसे खोखला करने का प्रयास आने वाली पीढ़ियों के लिए गंभीर संकट पैदा करेगा।

अरावली की सुरक्षा पर अब देश की राजनीति, न्यायपालिका और आम जनता की नजरें टिक चुकी हैं। सरकार का कहना है कि कोई नया खनन पट्टा जारी नहीं होगा और सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में भूमि का प्रबंधन किया जाएगा। पर्यावरणविदों और जनता का कहना है कि परिभाषा में बदलाव से संरक्षण कमजोर हो सकता है। इस बीच कोर्ट ने कई प्रस्तावों को रद्द किया है, जो वन भूमि को गैर-वन घोषित करने का प्रयास करते थे।अरावली पर्वतमाला का संरक्षण अब एक निर्णायक जंग बन चुका है। यह केवल भूमि और वन्य जीवन का मामला नहीं है, बल्कि यह हमारे पर्यावरण, सामाजिक सुरक्षा और भविष्य की पीढ़ियों के जीवन से जुड़ा हुआ है। अगर अरावली की रक्षा नहीं हुई, तो वायु प्रदूषण, जल संकट और जैव विविधता संकट का सामना दिल्ली‑एनसीआर और आसपास के राज्यों को करना पड़ेगा।इसलिए अरावली का मामला न केवल पर्यावरण सुरक्षा का प्रतीक है, बल्कि यह न्याय, नीति और सार्वजनिक हित की परीक्षा भी है। जनता, सरकार, न्यायपालिका और पर्यावरणविदों का ध्यान इस पर टिका है कि कैसे इस प्राकृतिक ढाल को बचाया जाए। आने वाले समय में यह संघर्ष भारत के भविष्य के लिए निर्णायक सिद्ध होगा।अरावली को बचाने के लिए संघर्ष केवल आज की राजनीति का विषय नहीं है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों, किसानों, शहरों और ग्रामीण इलाकों की जीवन-रेखा की रक्षा का प्रतीक है। यही वजह है कि देशभर की निगाहें अब इस पर्वतमाला पर टिकी हैं, ताकि दिल्ली‑एनसीआर और आसपास के क्षेत्रों में एक स्वस्थ, सुरक्षित और स्वच्छ पर्यावरण सुनिश्चित हो सके।