न्यूजीलैंड से कृषि उत्पाद निर्यात पर भारत की दृढ़ता

India's firm stance on exporting agricultural products from New Zealand

दूध उत्पादक किसानों के सधे रहेंगे हित

प्रमोद भार्गव

विश्व कारोबार पटल पर भारत की महत्ता की स्वीकार्यता लगातार बढ़ती दिखाई दे रही है। भारत ने न्यूजीलैंड के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) में किसान हितों का पूरा ख्याल रखते हुए इस समझौते को अंतिम रूप दिया है। याद रहे, अमेरिकी कृषि उत्पादों के निर्यात पर भारत ने दो टूक मना कर दिया था। इस कारण राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नाराज़गी का भारत ने बढ़ाए गए टैरिफ के रूप में सामना किया। इसकी भरपाई के लिए धैर्य से काम लेते हुए ब्रिटेन, ओमान और अब न्यूजीलैंड से अपनी शर्तों पर एफटीए करके किसान हितों को साधते हुए उल्लेखनीय समझौते कर लिए।

इसी माह दिसंबर 2025 में भारत ने ओमान के साथ कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट (सीपा) किया था और अब भारत की न्यूजीलैंड से चली नौ माह की वार्ता में इस बात पर सहमति हो गई कि इस समझौते में कृषि और डेयरी उत्पादों को पूरी तरह बाहर रखा जाएगा। यह उपलब्धि इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत से 5000 अभियंता न्यूजीलैंड काम करने के लिए जाते हैं। बावजूद इसके, यह समझौता शून्य टैरिफ पर होना भारत के लिए दोनों हाथों में लड्डू होने जैसा है।

इस समझौते से अमेरिका को इसलिए भी झटका लगा है, क्योंकि पाँच साल पहले एशिया-प्रशांत व्यापार क्षेत्र के रूप में उभर रहे 15 देशों के व्यापार पटल आरसीईपी (रिजनल कॉम्प्रेहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) का सदस्य बनने से भारत ने इनकार कर दिया था। इसका मुख्य कारण था न्यूजीलैंड के सस्ते दूध और कृषि उत्पादों का भारत में निर्यात रोकना। अब भारत ने न्यूजीलैंड से स्वतंत्र रूप में समझौता करके किसान हितों को साध लिया है।

दरअसल भारत में किसान और दुग्ध उत्पादक ग्वालों की प्रकृति पर निर्भरता होने के कारण आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत कमजोर है। अतएव अमेरिका हो या न्यूजीलैंड, यदि उनके सस्ते उत्पादों को भारत में बेचने की अनुमति मिल जाती तो इन लोगों को रोटियों के लाले पड़ सकते थे। भारत इन उत्पादों की बजाय न्यूजीलैंड से सेब, कीवी, शहद और वाइन आयात करेगा। इनके आयात में टैरिफ में भी बड़ी राहत दी गई है। साथ ही न्यूजीलैंड सेब, कीवी और डेयरी क्षेत्र में भारतीय उत्पादकता बढ़ाने में अपनी तकनीकी मदद भी देगा। अतएव यह समझौता पूर्ण रूप से भारतीय हितों को साधने वाला है।

वे भारतीय ऋषि ही थे, जिन्होंने सबसे पहले जाना था कि गाय के दूध में ऐसे पोषक तत्व हैं, जो शरीर और दिमाग दोनों को ही स्वस्थ रखते हैं। यह दूध ही है, जिससे दही, मठा, मक्खन और घी जैसे सह-उत्पाद निकलते हैं। ये उत्पाद मिठाई की दुकानों से लेकर डेयरी उद्योग के ज़रिये करोड़ों लोगों के रोजगार का मजबूत माध्यम बने हुए हैं। लंबे समय तक गाय से पैदा बैल पर ही भारतीय कृषि निर्भर रही है। इसी कृषि की जीडीपी में 24 प्रतिशत की भागीदारी है। भारतीय दुग्ध उत्पादन से लेकर दूध पीने में दुनिया में पहले स्थान पर हैं।

इसी दूध पर अमेरिकी बाज़ार के कब्ज़े के लिए अमेरिका अपने यहाँ उत्पादित मांसाहारी दूध बेचना चाहता है। अन्य यूरोपीय देशों की निगाह भी इस दूध के व्यापार पर टिकी रही है, जिनमें से एक न्यूजीलैंड भी रहा है। अमेरिका और भारत के बीच 500 बिलियन डॉलर के व्यापार समझौते की बात चली थी। इस समझौते की सूची में अमेरिकी मांसाहारी दूध के उत्पाद शामिल थे। भारत सरकार ने इस बाबत दो टूक कह दिया था कि अमेरिकी दुग्ध उत्पादों को भारतीय बाज़ार का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता। यह हमारे दुग्ध उत्पादक किसानों की आजीविका और उनकी संस्कृति की सुरक्षा से जुड़ा बड़ा प्रश्न है, जो स्वीकार्य नहीं है।

इस मनाही के बाद अमेरिका ने भारत पर अनर्गल टैरिफ संबंधी शर्तें थोपना शुरू कर दी थीं।

भारत में 13 जनवरी 1970 को फ्लड ऑपरेशन के साथ दूध का उत्पादन शुरू हुआ था। इसे ही श्वेत क्रांति का नाम दिया गया। यह न केवल भारत में, बल्कि विश्व में भी सबसे बड़े ग्रामीण कार्यक्रमों में से एक है। इसी की बदौलत भारतीय डेयरी उद्योग का चेहरा बदला और लाखों दुग्ध उत्पादक किसानों की आर्थिकी में क्रांतिकारी बदलाव आया।

दरअसल फिरंगी हुकूमत के दौरान पोल्सन नाम की ब्रिटिश कंपनी का इस क्षेत्र में दूध खरीदने पर एकाधिकार था। कंपनी दुग्ध उत्पादकों का लगातार शोषण कर रही थी। इस शोषण की शिकायत किसानों ने सरदार पटेल से की। पटेल गोधन, गोरस और गोदान की हिंदू जीवन-शैली के अनुयायी थे। शोषण की जानकारी से पटेल बेचैन हुए और लौहपुरुष के अवतार में आ गए। उन्होंने तत्काल कंपनी को दूध बेचने से मना कर दिया। उनका मानना था कि जब कंपनी को दूध मिलेगा ही नहीं, तो उसे किसानों की शर्तें मानने को मजबूर होना पड़ेगा।

साथ ही पटेल ने सभी किसानों को मिलकर सहकारी संस्था बनाकर स्वयं दूध और दूध के उत्पाद बेचने की सलाह दी। पटेल के इस सुझाव से किसान सहमत हो गए और अंग्रेज़ों को दूध न देने की चुनौती दे दी। बाद में 1946 में पटेल ने अपने भरोसेमंद सहयोगियों मोरारजी देसाई और त्रिभुवन दास पटेल की सहायता से भारत की पहली दुग्ध सहकारी संस्था की स्थापना की। इसे ही बाद में जिला सहकारी दुग्ध उत्पादन संघ के नाम से जाना गया। प्रतिदिन 250 लीटर दूध का कारोबार करने वाली इसी संस्था को आज विश्वव्यापी संस्था ‘अमूल’ के नाम से जाना जाता है।

मिशिगन स्टेट विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग करके भारत लौटे वर्गीज़ कुरियन ने सरकारी नौकरी छोड़कर इस संस्था में काम शुरू किया और भारत का पहला दूध प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किया। इसके बाद किसानों की ज्ञान-परंपरा और कुरियन के यांत्रिक गठबंधन से इस संस्था ने उपलब्धियों का शिखर छू लिया।

बिना किसी सरकारी मदद के देश में दूध का 70 प्रतिशत कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं, लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं, बल्कि इसके सह-उत्पाद—दही, मठा, घी, मक्खन, पनीर, मावा आदि—बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 प्रतिशत कारोबार संगठित ढांचा, मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है।

देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएँ जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दुग्ध सहकारी संस्थाएँ हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएँ महज दो प्रतिशत हैं, किंतु वह दूध ही है जिसका सबसे अधिक प्रसंस्करण किया जाता है। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे आठ करोड़ से भी अधिक लोगों की आजीविका जुड़ी है। करीब 1.5 करोड़ परिवार ही सहकारी दुग्ध उत्पादकता से जुड़े हैं, जबकि 6.5 करोड़ ग्रामीण परिवार आज भी सहकारिता के दायरे से वंचित हैं।

दूध उत्पादन में ग्रामीण महिलाओं की अहम भूमिका रहती है। रोज़ाना दो लाख से भी अधिक गाँवों से दूध एकत्रित करके डेयरियों में पहुँचाया जाता है। बड़े पैमाने पर ग्रामीण सीधे शहरी एवं कस्बाई ग्राहकों तक भी दूध बेचने का काम करते हैं।

इसी दूध के बाज़ार पर अमेरिका समेत अनेक दुग्ध उत्पादक पश्चिमी देशों की निगाहें टिकी रहती हैं। हालांकि अब दुग्ध उत्पादकों की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कुछ माह पहले ही दस हजार नई कृषि सहकारी समितियों को हरी झंडी दिखाई है। अगले पाँच वर्षों में इनकी संख्या दो लाख तक पहुँचाने का लक्ष्य है। इन्हीं सहकारी संस्थाओं के ज़रिये कृषि और दुग्ध उत्पादों को भारत से लेकर एशिया और यूरोप तक बाज़ार में पहुँचाने की तैयारी है।

ऐसे में यदि अमेरिका या अन्य देशों के लिए दुग्ध उत्पाद बेचने हेतु भारतीय बाज़ार खोल दिए जाते, तो इन समितियों की मुश्किलें तो बढ़ती हीं, दुग्ध उत्पादक आठ करोड़ लोगों की आजीविका पर भी संकट के बादल गहरा जाते।