राजेश जैन
बांग्लादेश और भारत के रिश्ते 1971 में बांग्लादेश की आजादी के साथ शुरू हुए। उस समय भारत की भूमिका, विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ युद्ध में बांग्लादेश का समर्थन, इतिहास की एक निर्णायक घटना थी। लेकिन आज यही रिश्ते तनाव और अविश्वास की गहराई तक पहुंच चुके हैं। 2024 के अगस्त में शेख हसीना का सत्ता से हटना और बांग्लादेश में अस्थायी सरकार का गठन, दोनों देशों के बीच माने जाने वाले स्वर्णिम युग के पतन का प्रतीक बन गया है।
शेख हसीना और अवामी लीग: भारत की नीति की उत्पत्ति और सीमा
1971 की युद्धभूमि से लेकर 2023–24 तक बांग्लादेश में शेख हसीना और उनकी पार्टी अवामी लीग को भारत के निरंतर समर्थन की नीति रही। यह समर्थन केवल वैचारिक सम्मान पर नहीं बल्कि रणनीतिक मजबूरी पर आधारित था। इस बीच 1975 के बाद सेना के द्वारा सत्ता पर कब्जे और ज़िया-उर-रहमान तथा बाद में हुसैन मोहम्मद इरशाद के शासन के बावजूद भारत के हित बुरी तरह प्रभावित नहीं हुए। भारत ने अवामी लीग को उस समय भी समर्थन दिया जब वह राजनीतिक रूप से कमजोर थी, क्योंकि भारत की नजर में अवामी लीग ही एक स्थिर और भारत-समर्थक राजनीतिक शक्ति थी।
शेख हसीना ने भारत के समर्थन के साथ बांग्लादेशी राजनीति में मजबूती प्राप्त की। अवामी लीग का सत्ता में बने रहना भारत की नीति का मुख्य आधार बन गया। इस कारण बांग्लादेश की राजनीति में अवामी लीग का प्रभुत्व भारत की नीतिगत प्राथमिकता बन गया। परंतु इस गठजोड़ की एक प्रमुख खामी यह रही कि इससे बांग्लादेश की राजनीतिक विविधता और जनभावनाओं को पर्याप्त महत्व नहीं मिला। भारत ने एक राजनीतिक दल के साथ गहरा जुड़ाव बना लिया और इसके बाहर की विचारधाराएं, विपक्षी पार्टियां उपेक्षित महसूस करने लगीं।
यही वह बिंदु है, जहां बड़ा प्रश्न खड़ा होता है कि क्या भारत ने बदलती वास्तविकताओं को पर्याप्त गंभीरता से समझा? क्या उसने यह महसूस किया कि बांग्लादेश की जनता का समर्थन किसी एक व्यक्ति या परिवार तक सीमित नहीं रह सकता? इसका उत्तर 2024 के जनआंदोलन में स्पष्ट दिखाई देता है जब जनता सड़कों पर उतर आई।
2024 का जनविरोध और अविश्वास का उभार
जुलाई 2024 में बांग्लादेश में जनविरोध की लहर उठी और देखते ही देखते इतनी व्यापक हो गई कि शेख हसीना के इस्तीफे और सत्ता परिवर्तन की मांगें उठने लगीं। पांच अगस्त को शेख हसीना को भारत आना पड़ा। यह घटना केवल राजनीतिक शरण का मामला नहीं रही, बल्कि संकेत बन गई कि बांग्लादेश की राजनीति अब मित्र–शत्रु के पुराने समीकरणों से कहीं अधिक जटिल हो चुकी है।
यह विरोध केवल शेख हसीना के खिलाफ नहीं था, बल्कि उस राजनीतिक ढांचे के खिलाफ भी था जिसे लंबे समय से भारत समर्थित सत्ता संरचना के रूप में देखा जा रहा था। विपक्षी दलों और उनके समर्थक समूहों का आरोप रहा कि शेख हसीना भारत के समर्थन से सत्ता में बनी रहीं। इस धारणा ने भारत-विरोधी भावनाओं को और हवा दी।
जब भारत शरणस्थली बनकर सामने आया, तो भारत–बांग्लादेश मित्रता की पारंपरिक नींवों पर भी सवाल उठे। यह विश्वास कमजोर पड़ा कि भारत बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति में निष्पक्ष भूमिका निभा सकता है। ढाका की सड़कों पर उभरती भावनाएं संकेत देती हैं कि बांग्लादेशी समाज अब केवल भारत के साथ करीबी रिश्तों के आधार पर किसी नेतृत्व की वैधता स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
ऐतिहासिक अविश्वास और द्विपक्षीय चिंताएं
इतिहास पर नजर डालें तो अविश्वास के बीज काफी पहले बोए जा चुके थे। संबंध सतही तौर पर भले संघर्षपूर्ण न रहे हों, लेकिन भीतर से तनाव हमेशा मौजूद रहा। भारत की धारणा रही कि बांग्लादेश ने स्वतंत्रता संग्राम में उसके योगदान को पर्याप्त महत्व नहीं दिया। वहीं बांग्लादेश में यह भावना रही कि भारत ने केवल अपने सामरिक हितों के लिए हस्तक्षेप किया और उसे बराबरी के साझेदार के रूप में कम ही माना।
सैन्य शासनों के दौर में ढाका द्वारा भारत के पूर्वोत्तर के उग्रवादी समूहों को परोक्ष सहयोग देने के आरोपों ने संदेह और बढ़ाया। 1980 के दशक में सीमाओं पर कड़ी सुरक्षा और अवैध प्रवासन पर नियंत्रण की भारतीय नीति ने भी बांग्लादेश में भारत-विरोधी भावनाओं को मजबूत किया। सहयोग के स्थान पर कई बार उलझन और कटुता बढ़ती रही। इन ऐतिहासिक कारकों ने आज की जटिल परिस्थिति की नींव तैयार की।
वर्तमान संकट और भविष्य की राह
2025 के इस दौर में संबंध केवल राजनीतिक नेतृत्वों के बीच का विषय नहीं रह गए हैं। वे अब सार्वजनिक भावनाओं, सुरक्षा चिंताओं और कूटनीतिक तनावों का समुच्चय बन चुके हैं। पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से तनाव लगातार बढ़ा है। वीजा सेवाओं का निलंबन और तीखे आधिकारिक बयान इसके संकेत हैं कि संस्थागत स्तर पर भी दरारें उभर चुकी हैं।
ढाका की नजर में भारत अब केवल बड़ा पड़ोसी नहीं, बल्कि वह शक्ति है जिसका प्रभाव उसकी आंतरिक राजनीति को प्रभावित करता है। यदि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) सत्ता में आती है, तो संबंध किस दिशा में जाएंगे, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। वह अधिक समानता और पारस्परिक सम्मान पर आधारित रिश्ते की अपेक्षा कर सकती है। फिर भी दोनों देशों के साझा इतिहास, सांस्कृतिक निकटता और आर्थिक हित इस रिश्ते को संभालने का मजबूत आधार प्रदान करते हैं। संवाद, पारदर्शिता और पारस्परिक सम्मान ही विश्वास बहाली के उपकरण हैं। भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह बांग्लादेश को केवल रणनीतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि एक संप्रभु और भावनात्मक रूप से सजग राष्ट्र के रूप में देखे।
भारत–बांग्लादेश संबंध कई दशकों की कूटनीति, अविश्वास, सामरिक हितों और अप्रत्यक्ष हस्तक्षेपों का परिणाम हैं। जनता की वास्तविक राजनीतिक भावनाओं की समझ, परस्पर सम्मान और विश्वास की बहाली ही इन संबंधों को फिर से स्वर्णिम दौर की ओर ले जा सकती है। यदि दोनों देश नई सोच, धैर्य और परिपक्वता के साथ आगे बढ़ें, तो यह साझेदारी समय की धारा में खोने के बजाय भविष्य की स्थिरता का आधार बन सकती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। )





