रामानंद सागर : भारतीय दूरदर्शन के स्वर्णिम युग के शिल्पकार

Ramanand Sagar: The architect of the golden era of Indian television

सुनील कुमार महला

भारतीय टेलीविजन के सांस्कृतिक शिल्पकार, निमार्ता-निर्देशक रामानंद सागर को आखिर कौन नहीं जानता ? उनका जन्म लाहौर के नजदीक असल गुरु नामक स्थान पर 29 दिसम्बर 1917 को एक धनाढ्य परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम चंद्रधर शर्मा था।वे भारतीय टेलीविजन और सिनेमा जगत की ऐसी शख्सियत/नाम व जीवंत किंवदंती हैं, जिन्होंने अपनी रचनात्मकता से भारतीय संस्कृति और धार्मिक चेतना को जन-जन तक पहुँचाया। विकीपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार उन्हें उनकी नानी ने गोद ले लिया था तथा पहले उनका नाम चंद्रमौली था, लेकिन नानी ने उनका नाम बदलकर रामानंद रख दिया। जानकारी के अनुसार दहेज लेने का विरोध करने के कारण उन्हें घर से बाहर कर दिया गया था और इसके साथ ही उनका जीवन संघर्ष आरंभ हो गया। उन्होंने पढ़ाई जारी रखने के लिए ट्रक क्लीनर और चपरासी की नौकरी की। वे दिन में काम करते और रात को पढ़ाई। मेधावी होने के कारण उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय [पाकिस्तान] से स्वर्ण पदक मिला और फारसी भाषा में निपुणता के लिए उन्हें मुंशी फजल के खिताब से नवाजा गया।करियर की शुरूआत उन्होंने लेखक और पत्रकार के रूप में की, लेकिन बाद में फिल्म और टेलीविजन के माध्यम से उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। बंटवारे के समय 1947 में वे भारत आ गए थे तथा मुंबई को अपनी कर्मभूमि बनाया।

पारिवारिक जीवन और रामायण की लोकप्रियता:-

रामानंद सागर का पारिवारिक जीवन सादगी और संस्कारों से भरा हुआ था। उनके परिवार में साहित्य, संस्कृति और कला के प्रति गहरी रुचि रही। उनके पुत्र प्रेम सागर ने पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए फिल्म और टेलीविजन के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाई और सागर आर्ट्स के माध्यम से कई धार्मिक व पौराणिक धारावाहिकों का निर्माण किया। रामानंद सागर का परिवार आज भी भारतीय संस्कृति, परंपरा और आध्यात्मिक मूल्यों को जन-जन तक पहुँचाने के कार्य में योगदान देता आ रहा है।जब वे भारत आए, उस समय उनके पास संपत्ति के रूप में महज पांच आने थे। भारत में वह फिल्म क्षेत्र से जुड़े और 1950 में खुद की प्रोडक्शन कंपनी ‘सागर आर्ट्स’ बनाई, जिसकी पहली फिल्म मेहमान थी। वर्ष 1985 में वह छोटे परदे की दुनिया में उतर गए तथा वर्ष 1987 में प्रसारित धारावाहिक ‘रामायण’ ने उन्हें अपार लोकप्रियता दिलाई और यह भारतीय टीवी इतिहास का सबसे यादगार कार्यक्रम बन गया। रामायण के प्रसारण के समय पूरा देश मानो थम सा जाता था और लोग इसे श्रद्धा के साथ देखते थे। गौरतलब है कि धारावाहिक रामायण की लोकप्रियता भारतीय टेलीविजन के इतिहास में अभूतपूर्व मानी जाती है। रामानंद सागर द्वारा निर्मित यह धारावाहिक जब पहली बार 25 जनवरी 1987 से 31 जुलाई 1988 के बीच दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ, तब हर रविवार देश मानो थम-सा जाता था। बुजुर्ग बताते हैं कि उस समय 80-90 प्रतिशत तक टीवी दर्शक रामायण देखते थे। कई स्थानों पर लोग टीवी के सामने दीप तक जलाते थे, प्रसारण के समय सड़कें सूनी हो जातीं थीं और गाँव-शहरों में सामूहिक रूप से इसे देखा जाता था। इसे केवल एक धारावाहिक नहीं, बल्कि आस्था और संस्कृति का उत्सव माना गया। दूसरे शब्दों में कहें तो वर्ष 1987-88 में दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक ‘रामायण’ ने भारतीय टीवी इतिहास में क्रांति ला दी थी। उस समय यह धारावाहिक केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन बन गया। रामायण के प्रसारण के समय लोग टीवी के सामने दीप जलाकर बैठते थे, दुकानों और सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था और पूरा देश एक साथ इस महाकाव्य को देखता था। इससे न केवल रामकथा घर-घर पहुँची, बल्कि समाज में नैतिकता, मर्यादा और आदर्शों पर नई चर्चा शुरू हुई।

लॉकडाउन के समय रामायण का टेलीविजन पर पुन: प्रसारण:-

रामायण की भारी व बड़ी लोकप्रियता के चलते इसे टेलीविजन पर 28 मार्च 2020 को फिर से शुरू किया गया। यह प्रसारण कोरोना महामारी के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन के समय दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल डीडी नेशनल पर किया गया। आश्चर्यजनक रूप से, तीन दशक बाद भी इस धारावाहिक ने रिकॉर्ड तोड़ लोकप्रियता हासिल की और यह दुनिया के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले धारावाहिकों में शामिल हो गया।इस प्रकार, रामायण की लोकप्रियता समय, पीढ़ी और माध्यम की सीमाओं को पार करते हुए आज भी उतनी ही जीवंत बनी हुई है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि रामानंद जी को लोग तुलसी जी का अवतार मानने लगे थे।सीमित संसाधनों और साधारण तकनीक के बावजूद रामानंद सागर ने कथा, संवाद और भावनाओं के बल पर दर्शकों के मन में गहरी छाप छोड़ी। इसके अलावा ‘कृष्णा’, ‘विक्रम और बेताल’ तथा ‘अलिफ लैला’,’दादा-दादी की कहानियां’,’जय गंगा मैया’ जैसे धारावाहिकों के माध्यम से भी उन्होंने पौराणिक और लोककथाओं को आमजन के बीच लोकप्रिय बनाया। उन्होंने 22 छोटी कहानियां, तीन वृहत लघु कहानी, दो क्रमिक कहानियां और दो नाटक लिखे। उन्होंने इन्हें अपने तखल्लुस चोपड़ा, बेदी और कश्मीरी के नाम से लिखा लेकिन बाद में वह सागर तखल्लुस के साथ हमेशा के लिए रामानंद सागर बन गए। बाद में उन्होंने अनेक फिल्मों और टेलिविजन धारावाहिकों के लिए भी पटकथाएँ लिखी। उन्हें 1960 (फिल्म फेयर पुरस्कार) (सर्वश्रेष्ठ डायलोग), फिल्म (पैगाम),-(1968)-(फिल्म फेयर पुरस्कार)-(सर्वश्रेष्ठ निर्देशक), फिल्म (आंखें) के लिए पुरस्कार/सम्मान भी प्राप्त हुए।

रामानंद सागर ने मनोरंजन को भारतीय संस्कृति, आस्था और मूल्यों से जोड़ा:-

अंत में यही कहूंगा कि रामानंद सागर जी भारतीय सिनेमा और टेलीविजन के इतिहास में एक ऐसे युगद्रष्टा रचनाकार के रूप में स्मरण किए जाते हैं, जिन्होंने मनोरंजन को भारतीय संस्कृति, आस्था और मूल्यों से जोड़कर प्रस्तुत किया।देश विभाजन की पीड़ा और विस्थापन का प्रभाव उनके लेखन और सोच में आजीवन दिखाई देता है। वास्तव में, उनके उपन्यासों और कहानियों में सामाजिक यथार्थ, मानवीय संवेदनाएँ और नैतिक मूल्य प्रमुख रूप से उभरते हैं।हालांकि, सिनेमा में उन्हें सम्मान मिला, लेकिन उनका असली योगदान टेलीविजन के माध्यम से सामने आया।रामानंद सागर जी की विशेषता यह थी कि उन्होंने सीमित तकनीक, साधारण सेट और कम संसाधनों के बावजूद कथा, संवाद और भावनाओं के बल पर दर्शकों को बाँधे रखा। वे भव्यता से अधिक आत्मा और श्रद्धा पर विश्वास करते थे। रामायण’ की अपार सफलता के बाद उन्होंने ‘कृष्णा’ धारावाहिक के माध्यम से भगवान कृष्ण के जीवन और दर्शन को सरल भाषा में प्रस्तुत किया। 12 दिसंबर 2005 को उनके निधन के बाद भी उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और नई पीढ़ी को भारतीय परंपरा, इतिहास और आध्यात्मिक मूल्यों से जोड़ने का कार्य कर रही हैं। उनके द्वारा रचित और निर्देशित धारावाहिक आज भी यह सिद्ध करते हैं कि सच्ची कथा और सशक्त भावनाएँ समय की सीमाओं से परे होती हैं।निष्कर्ष के तौर पर हम यहां यह कह सकते हैं कि रामानंद सागर भारतीय टेलीविजन और सिनेमा के ऐसे युगपुरुष थे, जिन्होंने मनोरंजन को केवल समय काटने का साधन नहीं रहने दिया, बल्कि उसे सांस्कृतिक चेतना, नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक प्रेरणा से जोड़ा।उनको इतिहास और धर्मग्रंथों का गहरा अध्ययन था। उन्होंने रामायण धारावाहिक बनाने से पहले वर्षों तक वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास की रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन किया। यही कारण है कि उनकी रामायण को आज भी ‘सबसे प्रामाणिक’ माना जाता है। वे सेट पर कलाकारों को सिर्फ संवाद नहीं, बल्कि पात्रों का आचार, व्यवहार और जीवन-दृष्टि भी समझाते थे। रोचक तथ्य यह भी है कि रामानंद सागर ने रामायण में तकनीक से ज्यादा भाव और मर्यादा को महत्व दिया।वे स्वयं को कभी स्टार निमार्ता नहीं मानते थे, बल्कि ‘कथावाचक’ कहलाना पसंद करते थे।रामायण जैसे महाकाव्य धारावाहिक के माध्यम से उन्होंने घर-घर में भारतीय परंपरा, आदर्श जीवन मूल्यों और मर्यादा की भावना को पुन: स्थापित किया। एक और खास बात यह थी कि वे अपने काम को ईश्वर की सेवा मानते थे। रामायण की सफलता के बाद भी उन्होंने किसी तरह का अहंकार नहीं अपनाया और हमेशा यह कहा कि ‘यह सब प्रभु राम की कृपा है, मेरी नहीं।’ यही विनम्रता और साधना-भाव उन्हें एक साधारण फिल्मकार से कहीं अधिक, एक सांस्कृतिक युगपुरुष बनाती है।उनका रचनात्मक दृष्टिकोण, गहन शोध, सरल प्रस्तुति और श्रद्धा से भरा निर्देशन आज भी अप्रतिम है। रामानंद सागर ने यह सिद्ध कर दिया कि टेलीविजन केवल दृश्य माध्यम नहीं, बल्कि समाज को दिशा देने की शक्ति भी रखता है। भारतीय जनमानस में उनका योगदान अमिट है और आने वाली पीढ़ियों के लिए वे सदैव प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।