बढ़ते कामकाजी जीवन के दबाव में बिखरते परिवार

Families are falling apart under the pressure of increasing work life

ललित गर्ग

भाग-दौड़, प्रतिस्पर्धा और आकांक्षाओं से भरे आधुनिक जीवन में परिवार के लिए समय निकालना आज केवल एक भावनात्मक आवश्यकता नहीं, बल्कि सामाजिक अस्तित्व का प्रश्न बनता जा रहा है। वर्ष 2025 की विदाई और 2026 की अगवानी की इस संधि बेला में खड़े होकर जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो साफ दिखाई देता है कि विकास, तकनीक और कैरियर की दौड़ ने हमें सुविधा तो दी, लेकिन संबंधों की ऊष्मा धीरे-धीरे छीन ली। परिवार, जो सदियों से मनुष्य का सबसे सुरक्षित आश्रय रहा है, आज स्वयं असुरक्षा के दौर से गुजर रहा है। प्रश्न यह नहीं है कि आधुनिकता गलत है, प्रश्न यह है कि क्या आधुनिक जीवन शैली में परिवार व्यवस्था को बचाने की हमारी इच्छाशक्ति और समझ उतनी ही मजबूत है या नहीं?

व्यस्ततम, घटनाबहुल एवं कामकाजी जिंदगी जीने के साथ परिवार के लिए वक्त निकालना आज के इंसान के लिए ज्यादा जरूरी हो गया है। परिवार से यह जुुड़ाव व्यक्ति को न केवल भावनात्मक रूप से, बल्कि शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी खुशनुमा रहने की ताकत देता है। इस सोच के बीच ताजा अध्ययन में आया यह तथ्य सचमुच चौंकाने वाला और चिंताजनक है कि काम के बोझ व परिवार को समय नहीं दे पाने से उपजी परिस्थितियों से निजात पाने के लिए साठ फीसदी से ज्यादा लोग अपनी मौजूदा नौकरी को बदलना चाहते हैं। ग्रेट प्लेस टू वर्क का यह अध्ययन भारत के कामकाजी लोगों के लिए और भी गंभीर है क्योंकि वर्क-लाइफ बैलेंस की ग्लोबल रैंकिंग में हम 42 वें स्थान पर हैं।

आज कामकाजी जीवन का दबाव इतना बढ़ चुका है कि व्यक्ति शारीरिक रूप से घर में मौजूद होते हुए भी मानसिक रूप से दफ्तर में ही रहता है। डिजिटल कनेक्टिविटी ने समय और स्थान की सीमाएं मिटा दी हैं, लेकिन इसी के साथ उसने घर और कार्यस्थल के बीच की स्वाभाविक दीवार भी तोड़ दी है। मोबाइल फोन, लैपटॉप और ऑनलाइन मीटिंग्स ने परिवार के साथ बैठकर बातचीत करने, एक-दूसरे की बात सुनने और महसूस करने के अवसरों को सीमित कर दिया है। विडंबना यह है कि हम परिवार के लिए मेहनत कर रहे हैं, लेकिन उसी मेहनत की कीमत परिवार से दूरी बनाकर चुका रहे हैं।

वर्क फ्रॉम होम की संस्कृति को शुरू में वरदान माना गया था, लेकिन धीरे-धीरे यह भी परिवारिक जीवन के लिए एक नई चुनौती बन गई। घर अब विश्राम और संवाद का स्थान न रहकर कार्यालय का विस्तार बन गया है। बच्चों के सामने माता-पिता लगातार स्क्रीन में उलझे रहते हैं, पति-पत्नी के बीच संवाद की जगह नोटिफिकेशन ले लेते हैं और बुजुर्गों की बातें अक्सर ‘बाद में’ की श्रेणी में डाल दी जाती हैं। ऐसे में परिवार एक साथ रहते हुए भी भीतर से बिखरता चला जाता है। यह बिखराव केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि संस्कारों, परंपराओं और आपसी जिम्मेदारियों का भी है।
कॉर्पाेरेट कार्यशैली में बढ़ते लक्ष्य, बढ़ता प्रतिस्पर्धात्मक दबाव और बॉस संस्कृति ने व्यक्ति को लगातार यह एहसास कराया है कि यदि वह रुका तो पीछे रह जाएगा। इस डर ने जीवन की गति को इतना तेज कर दिया है कि ठहराव, आत्मचिंतन और संबंधों के लिए समय निकालना कमजोरी समझा जाने लगा है। जबकि सच यह है कि मजबूत परिवार ही व्यक्ति को मानसिक स्थिरता, आत्मविश्वास और जीवन की कठिनाइयों से जूझने की ताकत देता है। जब यह आधार कमजोर होता है, तो व्यक्ति बाहर से सफल दिखते हुए भी भीतर से टूटने लगता है।

सोशल मीडिया ने इस संकट को और गहरा किया है। एक ही छत के नीचे रहते हुए भी परिवार के सदस्य अलग-अलग आभासी दुनिया में जी रहे हैं। दिखावे की खुशी, तुलना की प्रवृत्ति और निरंतर उपलब्ध रहने का दबाव रिश्तों में असंतोष और तनाव पैदा कर रहा है। हम दूसरों की जिंदगी पर नजर रखने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि अपने घर के भीतर चल रही भावनाओं को समझने का समय ही नहीं बचा। यह स्थिति यदि यूं ही चलती रही तो परिवार केवल एक संरचना बनकर रह जाएगा, जिसमें आत्मा का अभाव होगा। ऐसे समय में आदर्श और अनुकरणीय परिवार व्यवस्था की पुनर्स्थापना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। इसके लिए सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि करियर और परिवार एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। यह सोच बदलनी होगी कि सफलता का पैमाना केवल पद, पैसा और प्रतिष्ठा है। यदि इन सबके बीच परिवार में संवाद, स्नेह और अपनापन नहीं है, तो ऐसी सफलता अधूरी ही नहीं, खोखली भी है। नए वर्ष में हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम अपने समय, ऊर्जा और प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन करेंगे।

परिवार को बचाने के लिए किसी बड़े सिद्धांत की नहीं, बल्कि छोटे-छोटे व्यवहारिक बदलावों की जरूरत है। घर में रहते हुए कुछ समय तकनीक से दूरी बनाना, साथ बैठकर भोजन करना, बच्चों और बुजुर्गों की बातों को ध्यान से सुनना और एक-दूसरे की भावनाओं को महत्व देना, ये सब साधारण लगने वाले कदम ही परिवार को फिर से जोड़ सकते हैं। यह समझना जरूरी है कि गुणवत्ता पूर्ण समय केवल घंटों की संख्या से नहीं, बल्कि उस समय में मौजूद संवेदनशीलता और सहभागिता से तय होता है। नई परिवार व्यवस्था का अर्थ यह नहीं कि हम पुरानी परंपराओं को ज्यों का त्यों लौटा लें, बल्कि यह है कि हम आधुनिक जीवन की वास्तविकताओं के बीच संबंधों के मूल्यों को सुरक्षित रखें। जहां दोनों पति-पत्नी कामकाजी हैं, वहां जिम्मेदारियों का संतुलित बंटवारा, आपसी सहयोग और सम्मान परिवार को मजबूत बना सकता है। बच्चों को केवल प्रतिस्पर्धा की दौड़ के लिए तैयार करने के बजाय उन्हें भावनात्मक बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता और रिश्तों की अहमियत सिखाना भी उतना ही जरूरी है। बुजुर्गों को बोझ नहीं, बल्कि अनुभव और संस्कार की धरोहर मानकर सम्मान देना परिवार की आत्मा को जीवित रखता है।

घर पर रहते हुए भी कार्यस्थल से डिजिटल कनेेक्टिविटी ने अलग तरह के तनाव को जन्म दिया है। रही-सही कसर घर से कार्यस्थल की लंबी दूरी पूरी कर देती है जहां व्यक्ति को दिनभर का बड़ा हिस्सा सफर में बिताने की मजबूरी का सामना भी करना पड़ता है। खतरे की बात यह भी है कि दफ्तर में काम का दबाव कई बार व्यक्ति का आत्मविश्वास भी कमजोर कर देता है। यह बात और है कि संस्थानों में काम के घंटे बढ़़ाने का मुद्दा भी हमारे यहां बहस का विषय बनता रहा है। तर्क यह भी दिया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर उत्पादकता बढ़ाने का विकल्प कार्य के घंटे बढ़ाना ही हो सकता है। इसीलिए श्रम कानून में भी काम के घंटे बढ़ाने की छूट दी जा रही है। इसमें दो राय नहीं कि अधिक से अधिक कमाने की चाहत के साथ-साथ कार्यस्थल पर काम का बोझ भी बढ़ा है।यह भी जरूरी है कि संस्थान और समाज दोनों स्तरों पर वर्क-लाइफ बैलेंस को गंभीरता से लिया जाए। केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं, बल्कि कार्यसंस्कृति में मानवीय दृष्टिकोण को शामिल करना होगा। उत्पादकता का अर्थ केवल लंबे काम के घंटे नहीं, बल्कि संतुलित और संतुष्ट कर्मचारी भी है। जब व्यक्ति का पारिवारिक जीवन स्थिर होता है, तभी वह कार्यस्थल पर रचनात्मक और प्रभावी योगदान दे पाता है।

नए वर्ष की दहलीज पर खड़े होकर यह आत्ममंथन जरूरी है कि यदि हमने आज परिवार को प्राथमिकता नहीं दी, तो आने वाली पीढ़ियों को केवल सुविधाएं तो मिलेंगी, लेकिन संबंधों की गर्मी नहीं। परिवार केवल साथ रहने का नाम नहीं, बल्कि साथ महसूस करने की प्रक्रिया है। यदि यह प्रक्रिया टूट गई तो समाज की नींव कमजोर हो जाएगी। इसलिए 2026 की ओर कदम बढ़ाते हुए हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम तकनीक का उपयोग जीवन को सरल बनाने के लिए करेंगे, संबंधों को प्रतिस्थापित करने के लिए नहीं। करियर की ऊंचाइयों के साथ-साथ परिवार की जड़ों को भी सींचेंगे, ताकि आधुनिकता और मानवीयता के बीच संतुलन बना रहे। यही संतुलन एक नई, सशक्त और अनुकरणीय परिवार व्यवस्था की नींव रख सकता है, जो बदलते समय में भी रिश्तों की रोशनी को बुझने नहीं देगा।