ललित गर्ग
इंसानी जीवन का एक सत्य है कि आदमी दुख भोगना नहीं चाहता, किन्तु काम ऐसे करता है, जिससे दुख पैदा हो जाता है। यह आश्चर्य की ही बात है कि आदमी चाहता है सुख और इस प्रयत्न में निकाल लेता है दुख। यह बहुत विरोधाभासी बात है। लेकिन यह समझ की भूल भी है। आदमी की अज्ञानता भी है। उसके पुरुषार्थ में कहीं कोई कमी है, खोट है। जीवन को जीने और उसके लिये अपनायी जाने वाली सोच गलत है। सही विधि उसे मालूम नहीं है तभी उसके कार्य का उचित परिणाम नहीं मिल पाता। चालाकी छोड़कर एवं लोभ-स्वार्थ की मानसिकता को दरकिनार करने से ही वास्तविक सुख को प्राप्त किया जा सकता है और इसके लिये आदमी को कृतज्ञता का भाव अपनाना जरूरी है।
वास्तविकता यह है कि सुख प्राप्ति के लिए आदमी दुख के उत्पादन का कारखाना चला रहा है। अपने मिथ्या दृष्टिकोण के कारण वह दुख को जेनरेट कर रहा है। सुख को पाने की चाह है तो दृष्टिकोण को सम्यक बनाकर सुख प्राप्ति के अनुरूप कार्य करना होगा। हमारे पास दो रास्ते हैं या तो हम दीप हो जाएं, जो उसे दुगुना कर देता है, लेकिन इसके लिये कुछ सार्थक करना होता। धन से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों से प्रेरित होकर। क्योंकि बड़े-बड़े धन के अम्बार और महंगे साज-ओ-सामान के बजाय सार्थक संकल्प एवं कृतज्ञता का भाव जीवन को अधिक सुख देते हैं, प्रसन्न बनाते हैं।
देखा जाए तो संकीर्ण एवं स्वार्थी मनोवृत्ति दुख का सबसे बड़ा कारण है। मन में किसी को कष्ट पहुंचाने का भाव है, किसी का अनिष्ट करने का भाव है तो यह दुख का सबसे बड़ा कारण है। किसी की भावना को आहत करना स्वयं के लिये दुख को आमंत्रण देना है। हिंसा का चरमबिन्दु है, उसके पहले जो भाव या विचार हमें नकारात्मक रूप से आंदोलित और उद्वेलित करते हैं, वे हमारे दुख के लिए उत्तरदायी है। उन मनोभावांे को नियंत्रित करना, उन्हें करुणा में परिवर्तित करना ही सुख है। इसका अवतरण जीवन में अगर हो गया तो डर-भय सब अपने आप तिरोहित हो जाएंगे, जीवन सुखी बन जाएगा। यह जरूरी नहीं कि माझी की तरह हम पहाड़ काटें, लेकिन जीवन को सुखमय बनाने की राह में पड़़े छोटे-छोटे पत्थर हो हटा ही सकते हैं। न हों बड़े-बड़े परिवर्तन, लेकिन आशाओं के ऐसे छोटे-छोटे दीप तो हमारे ये संकल्प जला ही सकते हैं।
दूसरों के सुखों की पीड़ा ही मनुष्य के दुख का कारण है। ऐसी ही संकीर्ण सोच एवं स्वार्थी मनोवृत्ति के कारण महाभारत युद्ध हो गया, मनो में गांठंे बनती जा रही है। द्रौपदी द्वारा कही गई मर्मभेदी बात से दुर्योधन इतना आहत हुआ कि उसके मन में हमेशा के लिए एक गांठ बन गई। आज समाज में न दुर्योधन जैसे पुरुषों की कमी है, न द्रौपदी जैसी महिलाओं की। परिणाम हर जगह महाभारत के रूप में आ रहा है। हर घर कुरूक्षेत्र का मैदान बनता जा रहा है।
महान् दार्शनिक संत आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा भी है कि यह बड़ी विचित्र बात है कि सद्गुण आदमी प्रयत्न करने पर भी जल्दी नहीं सीख पाता और दुर्गुण बिना किसी प्रयत्न के ही सीख लेता है, वैसे ही अच्छे बोल और मृदुभाषिता आदमी प्रयास करने पर भी जल्दी से नहीं सीख पाता और गाली तथा अपशब्द बिना प्रयास के ही सीख लेता है। इस प्रवृत्ति को बदलकर ही सुख पाने के प्रयत्न सफल हो सकते हैं। सोच को बदलना होगा, जिस संकीर्ण एवं विकृत सोच के साथ रहने से मन और भावों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हो, वृत्तियां कलुषित और उच्छृंखल हो रही हों, जीवनशैली में विकृति आ रही हो, उनका साथ छोड़ देना ही हितकर है।
हर व्यक्ति जितना अपने दुःखों से पीड़ित नहीं है, उससे ज्यादा वह दूसरों के सुखों से पीड़ित है। इसीलिये वह दुखी होता जारहा है। उसकी संकीर्ण मानसिकता एवं छोटी सोच का ही परिणाम है कि वह दुखों का सृजन करता है। इसके बावजूद वह सोचता है कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ या फिर दुनिया के सारे दर्द मेरे लिए ही क्यों बने हैं, जबकि अगर सोचा जाए तो महत्वपूर्ण यह नहीं होता कि आपके पास पीड़ाएं कितनी हैं, जरूरी यह होता है कि आप उस दर्द के साथ किस तरह खुश रह जाते हैं। इसलिए जो कुछ भी बचा है, उसे गले लगाएं बजाए कि खोए हुए का गम मनाने के। जब हमारी दिशाएं सकारात्मक होती है जो हम सृजनात्मक रच ही लेते हैं। हमें कृतज्ञ तो होना ही होगा, क्योंकि इसके बिना छोटी-छोटी तकलीफे भी पहाड़ जितनी बड़ी बन जाती है। एक जिंदगी जीता है, दूसरा उसे ढोता है। एक दुःख में भी सुख ढूंढ लाता है, दूसरा प्राप्त सुख को भी दुःख मान बैठता है। एक अतीत भविष्य से बंधकर भी वर्तमान को निर्माण की बुनियाद बनाता है, तो दूसरा अतीत और भविष्य में खोया रहकर वर्तमान को भी गंवा देता है।
कृतज्ञता जरूरी है। सभी धर्मों में कृतज्ञता का एक महत्वपूर्ण स्थान है। कृतज्ञता धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करती है। सिसरो से लेकर बुद्ध तक और अन्य कई दार्शनिक व आध्यात्मिक शिक्षकों ने भी कृतज्ञता को भरपूर बांटा है और उससे प्राप्त खुशी को उत्सव की तरह मनाया है। दुनिया के सभी बड़े धर्म हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और बौद्ध मानते हैं कि किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना एक भावनात्मक व्यवहार है और अंत में इसका अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। बड़े-बड़े पादरी और पंडितों ने इस विषय को लेकर बहुत-सा ज्ञान बांटा है, लेकिन आज तक इन विद्वानों ने इसे विज्ञान का रूप नहीं दिया है।
वाल्मीकि ने रामायण में भी इस बात का उल्लेख किया है कि परमात्मा ने जो कुछ तुमको दिया है, उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। हालांकि इसका विज्ञान बस इस छोटे से वाक्य में समाहित है कि जितना आप देंगे, उससे कहीं अधिक यह आपके पास लौटकर आएगा, लेकिन इसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। ‘कितना दें और क्यों’ इस बात में बिल क्लिंटन ने देने का गणित बेहतर ढंग से समझाया है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें गंभीरता का पूर्ण अभाव होता है। वे बड़ी बात को सामान्य समझकर उस पर चिंतन-मनन नहीं करते तो कभी छोटी-सी बात पर प्याज के छिलके उतारने बैठ जाते हैं। समय, परिस्थिति और मनुष्य को समझने की उनमें सही परख नहीं होती, इसलिए वे हर बार उठकर गिरते देखे गए हैं। औरों में दोष देखने की छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति उनका निजी स्वभाव होता है। वे हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कौन, कहंा, किसने, कैसी गलती की। औरों को जल्द बताने की बेताबी उनमें देखी गई है, क्योंकि उनका अपना मानना है कि इस पहल में भरोसेमंद इंसान की पहचान यूं ही बनती है।
कृतज्ञता के पास शब्द नहीं होते, किन्तु साथ ही कृतज्ञता इतनी कृतघ्न भी नहीं होती कि बिना कुछ कहे ही रहा जाए। यदि कुछ भी न कहा जाए तो शायद हर भाव अव्यक्त ही रह जाए, इसीलिए ‘आभार’ मात्र औपचारिकता होते हुए भी कहीं गहराई में एक प्रयास भी है अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का, अपने को सुखी और प्रसन्न बनाने का।
किसी के लिए कुछ करके जो संतोष मिलता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। फिर वह कड़कती ठंड में किसी गरीब को एक प्याली चाय देना ही क्यों न हो और उसके मन में ‘जो मिला बहुत मिला-शुक्रिया’ के भाव हों तो जिंदगी बड़े सुकून से जी जा सकती है, काटनी नहीं पड़ती।