ऋतुपर्ण दवे
देश का दिल मध्यप्रदेश हमेशा से ही अपनी सियासत के लिए बेहद अलग मुकाम रखता रहा है। एक दौर हुआ करता था जब यहाँ की सियासत में रियासत बेहद खास होती थीं। अब भी हैं लेकिन वक्त के कुछ बदला जरूर है। फिलाहाल एक बेहद आरम और साधारण किसान परिवार से आने वाले तथा अपने दमखम पर राजनीति में खास मुकाम तक पहुँचे शिवराज सिंह चौहान न केवल मुख्यमंत्री हैं बल्कि भाजपा के मुख्यमंत्रियों में अब तक के सबसे लंबे कार्यकाल को पूरा करने का रिकॉर्ड बना निरंतर बने हुए हैं। उनके भविष्य को लेकर चाहे जितनी और जैसी अटकलबाजियाँ लगें वह केवल कयास से ज्यादा कुछ नहीं निकलीं।
यह वही मप्र है जहाँ पहले भी और अब भी राजघराने या यूँ कहें कि राज परिवार, जागीरदार और जमींदार, सियासत में खुद को सफल बनाने और जनता से जुड़े रहने के लिए किसी न किसी तरह से सक्रिय हैं तथा देसी रियासतों के विलय के बाद लोकतंत्र के जरिए जनता पर शासन करने की सफल नीति को अपनाया। ग्वालियर के सिंधिया राजघराना से स्व. विजयाराजे सिंधिया, स्व. माधवराव सिंधिया के बाद अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका सामने है। वहीं उनकी एक बुआ राजस्थान की मुख्यमंत्री रहीं तो दूसरी प्रदेश में मंत्री हैं। राघवगढ़ राजघराने के दिग्विजय सिंह 10 साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे तो अब उनके बेटे और पूर्व मंत्री जयवर्धन सिंह और भाई लक्ष्मण सिंह विधायक हैं। इनसे पहले चुरहट राजघराने के अर्जुन सिंह भी प्रदेश के 6 साल तक मुख्यमंत्री रहे। अब इनके बेटे पूर्व मंत्री अजय सिंह प्रदेश के बड़े नेता हैं। वहीं रीवा राजघराने के पुष्पराज सिंह मंत्री रहे हैं और अब भी सक्रिय हैं। मकड़ाई (हरदा) राजघराने के विजय शाह और संजय शाह दोनों ही विधायक और भाजपा के बड़े नेता हैं। विजय शाह मंत्री हैं। एक भतीजा अभिजीत कांग्रेस के युवा चेहरा हैं। देवास राजघराने के तुकोजीराव पवार की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी गायत्री राजे पवार विधायक के रूप में राजनीतिक विरासत को संभाले हुए हैं। सोहागपुर (शहडोल) रियासत से मृगेन्द्र सिंह और उनके अनुज गंभीर सिंह भी विधायक रह चुके हैं। राजघरानों से अब तक मप्र में 4 मुख्यमंत्री हुए हैं। संविद सरकार में गोविंद नारायण सिंह, उनके इस्तीफे के बाद गोंड आदिवासी राजा नरेशचंद्र सिंह। बाद में काँग्रेस सरकार में अर्जुन सिंह तीन बार तो दिग्विजय सिंह दो बार मुख्यमंत्री बने।
मप्र में ग्वालियर, राघोगढ़, रीवा, चुरहट, नरसिंहगढ़, मकड़ाई, खिचलीपुर, देवास, दतिया, छतरपुर, पन्ना जैसे छोटे-बड़े राजघराने राजनीति में काफी सक्रिय और सफल थे और हैं। लेकिन गणना की जाए तो मप्र की सियासत की डोर कभी राजनीतिज्ञों तो कभी आम हाथों में ज्यादा रही। अब तक प्रदेश को 32 मुख्यमंत्री मिले जिनमें रविशंकर शुक्ल (एक बार), भगवंतराव मंडलोई, कैलाश नाथ काटजू, द्वारका प्रसाद मिश्रा (दो-दो बार), गोविंद नारायण सिंह, नरेशचंद्र सिंह (एक-एक बार), श्यामाचरण शुक्ल (तीन बार), प्रकाश चंद्र सेठी (दो बार), कैलाशचंद्र जोशी, विरेंद्र कुमार सकलेचा (एक-एक बार), सुंदरलाल पटवा (दो बार), अर्जुन सिंह (तीन बार), मोतीलाल वोरा, दिग्विजय सिंह (दो-दो बार), उमा भारती, बाबूलाल गौर, कमलनाथ (एक-एक बार) और शिवराज सिंह चौहान तीन बार पहले और चौथी बार अब तक हैं। जबकि प्रदेश में तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लगा।
निश्चित रूप से मप्र की राजनीति कुछ अलग तो काफी घुमावदार भी है। कभी लगता है कि राजघरानों के प्रति विश्वास बरकरार है तो कभी आदिवासी वोट बैंक निर्णायक लगते हैं। चुनावों में आदिवासियों का साफ प्रभाव यही दिखाता है। बीते दो विधानसभा चुनाव के आँकड़े देखें तो सब कुछ समझ आता है। यहाँ आदिवासियों की बड़ी आबादी है जिनका 230 विधानसभा सीटों में से 84 पर सीधा-सीधा प्रभाव है। आदिवासी बहुल इलाके में भाजपा को 2013 में 59 सीटों पर जीत हासिल हुई थी जबकि 2018 में 84 में 34 सीटों पर सिमट कर रह गई। शायद इन्हीं कम हुई 25 सीटों के चलते तब भाजपा सीधे-सीधे सरकार बनाने से चूक गई थी। इसे यदि आरक्षण के लिहाज से देखें तो 2013 में आरक्षित 47 सीटों में भाजपा 31 पर जीती जबकि कांग्रेस केवल 15 ही जीत पाई। वहीं 2018 के नतीजे लगभग उलट रहे जहाँ काँग्रेस ने 30 सीटें जीती तो भाजपा महज 16 पर सिमट गई। एक निर्दलीय भी जीता। इसी चलते तब मप्र में काँग्रेस की कमलनाथ सरकार बनी थी। लेकिन अन्दरूनी कलह और सत्ता में पकड़ बनाए रखने, वर्चस्व की लड़ाई में पारस्परिक विफलता के चलते केवल 15 महीनों में हुई बड़ी बगावत से काँग्रेस सरकार गिर गई। इसके लिए तब दो राजघरानों ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह की रस्साकशी सबने देखी। कमलनाथ और उनके सिपहसलारों पर उंगलियां भी उठीं। कहीं विधायकों का उतावलापन तो कहीं मीडिया में आए बेतुके बयान। गुरुग्राम की होटल में दो विधायकों का हंगामा तो सिंधिया समर्थक 22 विधायकों की बेंगलुरू में खेमेबाजी ने आखिर 15 सालों के निर्वासन के बाद सत्ता में लौटी काँग्रेस को 15 महीनों में ही चलता कर दिया। 22 काँग्रेसी विधायक जिनमें 6 मंत्री थे ने इस्तीफा देकर कमलनाथ सरकार गिरा दी। इसमें ग्वालियर राजघराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया की सबसे खास भूमिका रही। इसी के बाद चौथी बार शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। तीन और विधायकों के इस्तीफे, तीन के निधन से मध्य प्रदेश में खाली हुई 28 सीटों पर 3 नवंबर 2020 को मतदान हुआ जिसमें भाजपा 19 तो कांग्रेस केवल 9 सीट जीत पाई। आखिर बहुमत के आँकड़ों में काँग्रेस पिछड़ गई और बचे कार्यकाल के बनवास पर मुहर लग गई। मजबूरन उपचुनाव झेल चुकी काँग्रेस में बड़े-बड़े तुरुप के इक्कों के बावजूद संगठनात्मक पकड़ कमजोर हुई जिसका नतीजा सामने है। इस सत्ता परिवर्तन की कड़ियाँ एक नहीं कई थीं जिसकी जड़ में काँग्रेस की अन्दरूनी कलह ज्यादा रही।
हाल ही में 347 निकाय चुनावों में भाजपा ने 256 में बढ़त दर्ज की। लेकिन सात बड़े शहर में हाथ से निकल गए। कांग्रेस केवल 58 बढ़त ले पाई। भाजपा की सफलता का प्रतिशत 74 तो काँग्रेस का 18 रहा। सीटों के हिसाब से देखें तो भाजपा को 52.29 और काँग्रेस को 28.39 प्रतिशत सीटें मिली। श्रेय शिवराज को मिला। अब शिवराज रोजाना कभी समीक्षा तो कभी मॉर्निंग ऐक्शन में तो कहीं जनसभा में ही अधिकारियों को फटकार और निलंबन के आदेश देते हुए बरखास्तगी की चेतावनी और सख्ती भरे तेवर दिखाते हैं। शहडोल, सिंगरौली, पन्ना, बालाघाट, उमरिया, जबलपुर, सिवनी सहित कई जिलों के उदाहरण सामने हैं। विकास कार्य समय पर कराने, आवास योजनाओं में लेटलतीफी रोकने, ढ़ंग से राशन वितरण, व्यवस्थित सीएम राइज स्कूल, दुरुस्त शहरी पेयजल योजना, आंगनबाड़ी में पेयजल, बदहाल बिजली व्यवस्था, खस्ताहाल सड़कें, सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण यानी जनता से सीधे जुड़े मसलों को लेकर शिवराज बेहद सख्त दिखते हैं। जहाँ से सही जवाब नहीं मिलता या अधिकारी किन्तु-परन्तु बताते हैं तो वहीं फटकार लगाते हैं। शहडोल का उदाहरण काफी है।
ऐसा लगता है कि सरकार की आँख,कान और हाथ बनी ब्यूरोक्रेसी को लेकर उनका हालिया अनुभव काफी कड़वा रहा जो उनके नए ऐक्शन से झलकता है। यह सिंगरौली, जबलपुर, में रोड शो तो धनपुरी(शहडोल) में जनसभा वहीं उमरिया की वर्चुअल सभा सहित कई अन्य स्थानों के निराश करने वाले नतीजों का असर है। वह सार्वजनिक समीक्षा करते हैं जिसे तमाम मीडिया माध्यम लाइव दिखाते हैं। उनका यह मनोविज्ञान ब्यूरोक्रेट्स को भले ही न भाए लेकिन आमजन को लुभा रहा है।
मध्यप्रदेश में जहाँ काँग्रेस अब भी कमजोर दिख रही है तो शिवराज सिंह चौहान को लेकर भी सुर्खियाँ कम नहीं होतीं। भाजपा संसदीय बोर्ड से बाहर होने के बावजूद उनकी शालीनता ने कहीं न कहीं राष्ट्रीय नेतृत्व को प्रभावित तो किया होगा। वहीं कहना कि मुझसे दरी बिछाने को कहा जाएगा तो बिछाउंगा। यह उनकी बुध्दिमत्ता है जो खुद को पार्टी से बड़ा कभी नहीं दिखाते। उनकी हालिया राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से गर्मजोशी भरी मुलाकातें और अक्टूबर में पंचायती राज के नवनिर्वाचित सदस्यों के सम्मेलन में मप्र आने की हामी, मिशन 2030 का विजन तैयार कर 5 मेगा प्रोजेक्ट प्रधानमंत्री के हाथों शुरू करा 5 बड़ी जनसभाओं हेतु आमंत्रित करना शिवराज की राजनीतिक चातुर्यता के साथ बताता है कि निगाहें 2023 के विधानसभा और 2024 के आम चुनावों से बहुत आगे देख रही हैं। इससे पार्टी में उनका प्रभाव और बढ़ेगा वही प्रतिद्वन्दियों को मजबूरन ही सही मोदी जी की सभा में शिवराज के साथ रहना ही होगा। शायद यही गुर शिवराज सिंह को और मजबूत करता है।
समीकरण कैसे भी बनें शिवराज सिंह की मजबूती में कोई कमीं नहीं दिखती। क्या काँग्रेस भी बिखराव को थाम असंतुष्टों का साध पाएगी? बिखरी काँग्रेस पर मध्यप्रदेश के मतदाता कितना भरोसा जता पाएंगे? यह सही है कि काँग्रेस संगठन को लेकर हाल-फिलाहाल जो हालात दिल्ली में हैं उससे मजबूती को लेकर संशय स्वाभाविक है। इतना जरूर है कि मप्र में फिलाहाल कोई तीसरी ताकत उभरती नहीं दिखती। इसलिए 2023 का सीधा मुकाबला भाजपा व काँग्रेस में होगा। बाजी वही मारेगा जो गुटीय बिखराव समेट जनता से जुड़ेगा। कहने की जरूरत नहीं कि अगले विधानसभा चुनाव में कौन कितना सफल होगा क्योंकि ये पब्लिक है सब जानती है! बस देखना इतना है कि 2023 में किसे संगठन और जनता से सत्ता का वॉक ओवर मिलेगा और कौन फिर वनवास झेलेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं)