अर्जुन देशप्रेमी
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह से पाला बदलकर आरजेडी के साथ सरकार बनाई है, उसने अनेक सवालों को पैदा कर दिया है। इन्हीं में से एक सवाल है कि क्या नीतीश कुमार अपनी ही बनाई हुई नाव को डुबोने पर तुले हुए हैं? क्या उनकी मंशा अपनी पार्टी को अपने साथ ही लेकर जाने की है जिससे भविष्य में जदयू का कोई नाम लेवा ना बच जाए। जदयू में जो भी लोग हैं, अगर उनकी बातों पर गौर करें तो ये सारी चीजें सामने आती है और अंततोगत्वा यही लगता है सचमुच नीतीश कुमार अपनी पार्टी को अपने ही साथ समाप्त कर देना चाहते हैं।
मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि एक पत्रकार के रूप में मैं नीतीश कुमार के अनेक कार्यों का समर्थक रहा हूं। मेरा अभी भी मानना है कि नीतीश कुमार ने जो काम किए हैं, उन कार्यों से बिहार को काफी बल मिला है, फायदा मिला है। मेरा यह भी मानना है कि नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में जो काम किए, वे ठीक थे। उन्होंने न सिर्फ़ भिहार को जंगलराज से उबारा, वरण विकास की ओर ले गए। बिहार के तीव्र गति से उड़ान भरने के लिए पिछले ५ वर्षों में एक नया लॉंचिंग पैड तैयार हो गया था जिसकी वदौलत ऐसा लग रहा था कि एक दो वर्षों में बिहार में व्यापक निवेश होगा। पर जिस तरह से नीतीश कुमार ने पलटी मारी है, उससे ऐसा लग रहा है कि अब सबपर विराम लग जाएगा क्योंकि लालू प्रसाद के पुत्रों, तेजस्वी यादव और त्तेजप्रताप के साथ मिलकर जो सरकार जदयू और आरजेडी की बनी है, उसके बनते ही जंगलराज का भय लोगों में एक बार फिर घर करने लगा है।
नीतीश कुमार के द्वारा पिछले एक डेढ़ साल के दौरान उनके द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में बात करें तो ऐसा लगने लगा है कि या तो नीतीश कुमार अब चुकने लगे हैं, या वह सिर्फ और सिर्फ स्वयं तक सीमित होकर रह गए हैं। ऐसा यदि ऐसा है तो यह बिहार के लिए दुर्भाग्य से कम नहीं है। नीतीश कुमार से जितनी आशाएं लोगों ने लगा रखी थी, वह उन पर शायद अब तुषारापात हो जाए।
नीतीश कुमार के कदमों की बात करें तो ऐसा लगता है कि उनको शायद किसी पर भरोसा नहीं है और ना ही वह किसी को पार्टी के भीतर आगे बढ़ने देना चाहते हैं। जब वह उम्र के अंतिम पड़ाव की ओर अग्रसर हो रहे हैं, उस दौरान पार्टी के भीतर कोई एक ऐसा नहीं है जो पूरी तरह से सर्वमान्य हो, और जिस पर नीतीश कुमार को पूरा भरोसा हो जो आगे चलकर पार्टी को नई दिशा दे सके और पार्टी उस व्यक्ति के पीछे खड़ी हो सके। इसको आप पार्टी के उत्तराधिकार से भी जोड़कर देख सकते हैं। नीतीश कुमार कि इस बात के लिए तारीफ़ की जाती है और की भी जानी चाहिए कि उन्होंने परिवार वालों को कभी भी पार्टी पर हावी नहीं होने दिया और ना ही पार्टी को परिवारवादी पार्टी बनने दिया। यह बहुत अच्छी बात है। पर इसके साथ में ही नीतीश कुमार ने जिस तरह से पार्टी में किसी को उत्तराधिकारी के रूप में विकसित नहीं होने दिया, वह चिंताजनक है। (उत्तराधिकारी का मतलब परिवारवाद से उपजा हुआ व्यक्ति नहीं बल्कि पार्टी में अपने कार्यों की बदौलत, अपनी मेहनत के बदौलत, अपने ज्ञान की बदौलत, अपनी क्षमता के बदौलत कोई आगे आया हो, जिसे पार्टी के भीतर स्वीकार्यता मिली हो और यह माना जाता है कि नीतीश कुमार जी के जाने के बाद इन्हीं लोगों में से कोई एक आदमी पार्टी को संभालेगा और पार्टी को और मजबूती देगा)। ऐसे में फिर वही सवाल है कि नीतीश के बाद कौन? अगर कोई नहीं तो पार्टी का क्या होगा?
बार बार पलटी मारने की उनकी नीति से आम जनता के बीच जदयू और नीतीश कुमार दोनों की छवि ख़राब हुई है। पार्टी और नीतीश कुमार दोनों की विश्वसनीयता पर चोट पहुँची है। लोगों को लगाने लगा है की नीतीश कुमार दग़ाबाज़ है, विश्वासघाई हैं।लोग कहने लहंगे हैं कि नीतीश कुमार का तो इतिहास ही धोखाधड़ी का रहा है।नैतिकता के धरातल पर वह फेल हुए हैं।
उन्होंने एक के बाद एक उन्हीं लोगों को धोखा दिया, उन्हीं लोगों को किनारे किया जिन लोगों ने नीतीश कुमार को या तो आगे बढ़ाया या जो इनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलते रहे। सबसे पहले उदाहरण है लालू प्रसाद।लालू प्रसाद आज भले ही सजायफ़्ता मुजरिम हैं, जेल में रहे है, घोटालेबाज़ रहे हैं, पर सच यह भी है कि उन्हीं के सानिध्य में नीतीश कुमार आगे बढ़े हैं।लालू प्रसाद यादव ने नीतीश कुमार को आगे बढ़ाया और जब चारा घोटाले में लालू प्रसाद फँसते दिखे तो नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। या यूं कहिए कि नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद को धोखा दिया। जदयू के दूसरे नेताओं के लिए जिस तरह धोखा देने की बात नीतीश कुमार कहते हैं, उसी तरह से तो नीतीश कुमार ने भी धिक् दिया न? पूर्व में नीतीश कुमार कहते रहे हैं कि उन्हें शरद यादव ने धोखा दिया, ललन सिंह ने धोखा दिया, उपेंद्र कुशवाहा ने धोखा दिया। और अब कह रहे हैं कि कि आरसीपी सिंह ने धिखा दिया। तो इन्हीं मनकों पर क्यों न माना जाए कि नीतीश कुमार ने तब लालू प्रसाद को धोखा दिया। और इन्हीं मनकों पर क्यों न माना जाए की नीतीश कुमार ने एक के बाद एक कर पहले जार्ज फ़र्नांडिस को धोखा दिया, फिर दिग्विजय सिंह को धोखा दिया, शरद यादव को धोखा दिया, ललन सिंह को ठिकाने लगाया, उपेंद्र कुशवाहा को किनारे लगाया, और अब उन्होंने अपनी ही पार्टी के पूर्व अध्यक्ष जिसे उन्होंने स्वयं अध्यक्ष बनाया था, आरसीपी सिंह को भी धोखा दिया है। इस तरह से इस तरह से देखें तो फिर नीतीश कुमार में नैतिकता कहीं नहीं दिखती है। ख़ासकर अपने ही साथियों को धोखा देने के मामले में।
नीतीश कुमार किसी पर विश्वास नहीं करते। उनको जैसे ही लगता है कि किसी का कद बढ़ रहा है, वह उसको किनारे कर देते हैं या ऐसी स्थिति उत्पन्न करा देते हैं जिससे दूसरा व्यक्ति स्वयं ही पार्टी छोड़ जाए। जितने नेताओं के नाम ऊपर दिए गए हैं, उन सभी पर यह बात लागू होती है। इसी कारण पार्टी में नीतीश कुमार के बाद दूसरी पंक्ति के नेता उभरकर नहीं आ पाए। तो फिर पार्टी को आगे कौन ले जाएगा?
अब बात करें जनता दल यूनाइटेड के भविष्य को लेकर। साफ दिख रहा है कि जिस तरह से नीतीश कुमार ने जनादेश का अपमान किया है, जनता के साथ विश्वासघात किया है और एक बार नहीं, कई बार पाला बदला है, उससे जो विश्वसनीयता का संकट उत्पन्न हुआ है। नीतीश कुमार किस तरह से लोगों को विश्वास दिलाएँगे कि उन्होंने भ्रष्टाचार के साथ समझौता नहीं किया है? साफ साफ दिख रहा है कि उन्होंने भ्रष्टाचार में लिप्त सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव की पार्टी से समझौता किया है। तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव पर भी मुकदमों की लाइन लगी हुई है। सम्भव है कि आने वाले कुछ समय में यह दोनों नेता जेल में हों इसी तरह से आरजेडी के अनेक नेता अनेक अपराधों में लिप्त रहे हैं और उन पर मुकदमा की अच्छी खासी संख्या है। जो लोग आरजेडी के नेताओं, खासकर लालू प्रसाद और उनके परिवार के भ्रष्टाचार तथा अराजकता से तंग आकर नीतीश कुमार के साथ आए थे, वह लोग कैसे विश्वास कर लेंगे कि नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के साथ समझौता नहीं किया है? जनता कैसे मान लेगी कि दोबारा से आरजेडी के राज में जंगलराज कायम नहीं होगा?
एक बात साफ दिख रही है कि जैसे ही नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़कर आरजेडी का दामन थामा है, निवेशकों ने बिहार में निवेश की अपनी रुचि घटानी शुरू कर दी है। आम बातचीत में वह साफ-साफ निवेशक स्वीकार करते हैं कि आने वाले समय में बिहार की स्थिति फिर से लालू राज के जंगलराज काल के जैसी ही हो सकती है। ऐसे में अभी बिहार में निवेश करना उचित नहीं होगा। हजारों हजार करोड़ के निवेश के जो सपने पिछले कुछ समय से दिखने शुरू हुए थे, उन पर अचानक से विराम भी लग रहा है। एक तरफ जहां 20 लाख नौकरियां देने की बात हो रही है, वही नौकरी मांगने वालों पर भयंकर लाठी चार्ज हो रहा है। इससे साफ साफ दिख रहा है कि किसी भी सूरत में बिना निवेश के नीतीश कुमार की सरकार बिहार में 20 लाख लोगों को नौकरियां तो नहीं दे पाएगी।आमतौर पर यह धारणा भी बनती जा रही है कि केंद्र जो पैसे बिहार में लगा रहा था, उसमें भी फिलहाल टालमटोल हो सकती है या उसमें देरी होने लगेगी क्योंकि जो सामंजस्य केंद्र और राज्य की सरकार के बीच अब तक था, वह भी अब खटास में पड़ता दिख रहा है। ऐसे में बिहार से पलायन की रफ्तार और बढ़ेगी। और ऐसा होता है तो फिर जनता के मन में नीतीश कुमार के प्रति गुस्सा भी बढ़ता चला जाएगा। इससे जनता दल यूनाइटेड का वोटर बड़ी संख्या में नीतीश कुमार और जदयू से विमुख होगा और संभव है कि यह आगे चलकर और तेजी से बढ़े जिसमें जनता दल यूनाइटेड की साख और खत्म हो और पार्टी सिमटती हुई चली जाए।
बार-बार कहा जा रहा है कि जनता दल यूनाइटेड का विलय राजद में होना है। यह भी साफ दिखता है क्योंकि नीतीश कुमार पार्टी के मामले में जिस तरह के ढुलमुल रुख अख्तियार कर रहे हैं, उससे पार्टी सिमटती जा रही है। जनता दल यूनाइटेड का वोटर ना तो मुस्लिम है, ना यादव, नाही फॉरवर्ड वर्ग। जदयू का कोर वोटर कोईरी, कुर्मी और अन्य पिछड़ी जातियां हैं। फारवर्ड जहां भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं, वही माई समीकरण के तहत मुस्लिम और यादव पूरी तरह से आरजेडी के साथ है। ऐसे में जो मोटर जनता दल यूनाइटेड के साथ हैं, वह कोईरी-कुर्मी और अन्य पिछड़ी जातियां हैं। पर नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी का अध्यक्ष एक भूमिहार को बनाया और भूमिहार वर्ग के वोट से जनता दल यूनाइटेड को बहुत फायदा नहीं होना है। वैसे भी यह वर्ग कम संख्या में ही जदयू को वोट करता है। दूसरी गलती इन्होंने अपनी पार्टी में जिस तरीके से लोगों को आगे बढ़ाया है, उनमें जनता के बीच में किसी का अपना जनाधार लगभग ना के बराबर है। सांगठनिक क्षमता से जुड़े लोग पार्टी में बहुत कम है। ऐसे में पार्टी के वोटरों की संख्या अगर कम होती चली गई तो पार्टी लगभग सिमट ही जाएगी।
एक और प्रासंगिक बात यह भी है कि जिस तरीके से जिस प्रकार से नीतीश कुमार ने अपने सबसे करीबी रहे आरसीपी सिंह को ठिकाने लगाया है और जिन लोगों के कहने पर लगाया है, उसमें ऐसा साफ दिखता है कि संभव है आरसीपी सिंह अपनी पार्टी बनाएं। और अगर वह अपनी पार्टी बनाते हैं तो जाहिर है वह जदयू के वोटों में ही सेंध लगाएंगे। यह भी संभव है कि जदयू का बड़ा धड़ा चुनाव के ठीक पहले आरसीपी सिंह के साथ जाए। यह भी संभव है कि आरसीपी सिंह को तब चिराग पासवान और भारतीय जनता पार्टी से भी सहयोग मिले। अगर ऐसा होता है तो आरसीपी सिंह जनता दल यूनाइटेड के वोट बैंक को अपने में मिलाने में सक्षम होंगे। यहां यह महत्वपूर्ण है कि पार्टी में जदयू में आज भी बड़ी संख्या में जो लोग संगठन के कार्यों में लगे हैं, उनकी नियुक्ति आरसीपी सिंह ने ही की थी। उनको आरसीपी सिंह ने ही आगे बढ़ाया और आज भी वह लोग भीतर भीतर आरसीपी सिंह के साथ खड़े हैं। इसका आकलन आरसीपी सिंह के बिहार में चल रहे तो दौरों में किया जा सकता है जहां अभी भी बड़ी संख्या में लोग आरसीपी सिंह के साथ खड़े दिखते हैं। बिहार विधानसभा के चुनाव में 3 साल बाकी है तो खुलकर लोग आरसीपी सिंह के साथ इसलिए भी खड़े नहीं दिख रहे हैं। उनको लगता है कि यह सही समय नहीं है। पर उनकी बातों से और उनके आचरण से ऐसा लगता है कि आने वाले समय में यह लोग पाला बदलकर आरसीपी सिंह के साथ खड़े हो जाएंगे और ऐसा होता है तो फिर जदयू के लिए एकमात्र विकल्प आरजेडी के साथ विलय ही रह जाएगा। इस तरह पार्टी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी। ऐसे में तो यही दिखता है कि जिस जदयू को नीतीश कुमार ने खड़ा किया वह जदयू नीतीश कुमार के साथ ही समाप्त हो जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)