ललित गर्ग
विश्व भाषा बनने की ओर हिन्दी के बढ़ते कदम भारत के लिये एक बड़ी उपलब्धि है। हिन्दी विश्व भाषा बनने की समस्त अर्हताएं एवं विशेषताएं स्वयं में समाये हुए है। हिन्दी स्वयं में अपने भीतर एक अन्तर्राष्ट्रीय जगत छिपाये हुए हैं। आर्य, द्रविड, आदिवासी, स्पेनी, पुर्तगाली, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी, अरबी, फारसी, चीनी, जापानी, सारे संसार की भाषाओं के शब्द इसकी विश्वमैत्री एवं वसुधैव कुटुम्बकम वाली प्रवृत्ति को उजागर करते हैं। विश्व में हिंदी भाषी करीब 70 करोड़ लोग हैं। यह तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इस समृद्ध एवं वैश्विक गरिमा वाली भाषा का हिन्दी दिवस प्रत्येक 14 सितबंर को मनाया जाता है। देश की आजादी के पश्चात 14 सितंबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई और आज इस दिवस की अधिक प्रासंगिकता क्यों उभर रही है? क्योंकि विश्व में प्रतिष्ठा पा रही हिन्दी की हमारे देश में दिन-प्रतिदिन उपेक्षा होती जा रही है, हिन्दी पर अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब हिन्दी हमारे अपने ही देश में विलुप्तता के कगार पर पहुंच जायेगी। जबकि हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने के साथ-साथ इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकृति दिलाने के लिये ठोस कदम उठाये जाने की अपेक्षा है। हिन्दी में यह शक्ति कब आएगी कि वह विश्व के लिये एक ऐसी महत्वपूर्ण भाषा बन जाये, जिसकी उपेक्षा न देश में और न दुनिया में हो सके। यह तभी संभव है जब हमारी मानसिकता बदले, हम हिन्दी को बोलते हुए गर्व का अनुभव करें एवं स्वयं के देश में हिन्दी को प्रतिष्ठापित करें, सम्मान करें। आचार्य विनोबा भावे ने सही कहा कि हिंदी को गंगा नहीं बल्कि समुद्र बनना होगा।
हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की, उसी त्वरा से राजनैतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी है, यही कारण है कि आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्व भर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों, सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोकव्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलना चाहिए।
हिंदी भारत की राजभाषा है। सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व को समेट हिंदी अब विश्व में लगातार अपना फैलाव कर रही है। देश-विदेश में इसे जानने-समझने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इंटरनेट के इस युग ने हिंदी को वैश्विक धाक जमाने में नया आसमान मुहैया कराया किया है। हिंदी जानने, समझने और बोलने वालों की बढ़ती संख्या के चलते अब विश्व भर की वेबसाइट हिंदी को भी तवज्जो दे रही हैं। ईमेल, ईकॉमर्स, ईबुक, इंटरनेट, एसएमएस एवं वेब जगत में हिंदी को बड़ी सहजता से पाया जा सकता है। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, आइबीएम तथा ओरेकल जैसी कंपनियां अत्यंत व्यापक बाजार और भारी मुनाफे को देखते हुए हिंदी प्रयोग को बढावा दे रही हैं।
भारत को बेहतर ढंग से जानने के लिए दुनिया के करीब 115 शिक्षण संस्थानों में हिंदी का अध्ययन अध्यापन होता है। अमेरिका में 32 विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में हिंदी पढ़ाई जाती है। ब्रिटेन की लंदन यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज और यॉर्क यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाई जाती है। जर्मनी के 15 शिक्षण संस्थानों ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन को अपनाया है। कई संगठन हिंदी का प्रचार करते हैं। चीन में 1942 में हिंदी अध्ययन शुरू हुआ। 1957 में हिंदी रचनाओं का चीनी में अनुवाद कार्य आरंभ हुआ। एक अध्ययन के मुताबिक हिंदी सामग्री की खपत करीब 94 फीसद तक बढ़ी है। हर पांच में एक व्यक्ति हिंदी में इंटरनेट प्रयोग करता है। फेसबुक, ट्विटर और वाट्स एप में हिंदी में लिख सकते हैं। इसके लिए गूगल हिंदी इनपुट, लिपिक डॉट इन, जैसे अनेक सॉफ्टवेयर और स्मार्टफोन एप्लीकेशन मौजूद हैं। हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद भी संभव है।
विश्व स्तर पर हिन्दी की प्रतिष्ठा के बावजूद भारत में उसकी उपेक्षा क्यों? इस सन्दर्भ में महात्मा गांधी ने अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहा था कि भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। मेरा तर्क है कि जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया, उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें।’ आजादी के अमृत महोत्सव तक पहुंचाने के बाद भी आजाद भारत में भी हमने हिन्दी को उसका गरिमापूर्ण स्थान न दिला सके, यह विडम्बनापूर्ण एवं हमारी राष्ट्रीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है। गतदिनों पूर्व उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिन्दी के बारे में ऐसी ही बात कही थी, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया में ही थी। उन्होंने कहा कि ‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ आजादी के 75 साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं, यह देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है। वैंकय्या नायडू का हिन्दी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है, वही स्थिति सरकार से जुडे़ हर व्यक्ति के साथ-साथ जन-जन की होनी चाहिए। हिन्दी के लिये दर्द, संवेदना एवं अपनापन जागना जरूरी है। कोई भी देश बिना अपने राजभाषा के ज्ञान के तरक्की नहीं कर सकता है।
राष्ट्रभाषा को प्रतिष्ठापित करने एवं सांस्कृतिक सुरक्षा के लिये अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने व्यापक प्रयत्न किये। सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा और आगरा के सांसद सेठ गोविन्ददासजी ने अंग्रेजी के विरोध में अपनी पद्मभूषण की उपाधि केन्द्र सरकार को वापिस लौटा दी। वर्तमान में हिन्दी की दयनीय दशा देखकर मन में प्रश्न खड़ा होता है कि कौन महापुरुष हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करेगा? हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है। भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाये, यह देश के लिये उचित कैसे हो सकता है?
हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। हिन्दी के महान कवि एवं पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने देश की हिन्दी भाषा, अपने देश की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति में सारी मानव जाति की भलाई को देखते थे। हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा बनाना हमारी राष्ट्रीयता का अपमान नहीं हैं? कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिये अंग्रेजी जरूरी है। हमारी राष्ट्रभाषा दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे नम्बर पर है, फिर हमें क्यों इसे बोलने एवं उपयोग करने में शर्म महसूस होती है?