शिशिर शुक्ला
किसी राष्ट्र अथवा समाज की उन्नति की आधारशिला उसकी भाषा में निहित होती है। सत्य ही कहा गया है- “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल”। किसी राष्ट्र की भाषा के माध्यम से वहां के जन-जन की अंतरात्मा तक पहुंचा जा सकता है। देश की मजबूती के लिए यह नितांत आवश्यक है कि वहां की हवा में सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक एकता का रस घुला हो, जिस हेतु एक राष्ट्रभाषा का होना सर्वथा अनिवार्य है। राष्ट्रभाषा के अभाव में राष्ट्र के अस्तित्व की कल्पना करना व्यर्थ है। विविधता में एकता का स्वर निनादित होना भारतवर्ष की एक विशेषता है। भारत की यह विशेषता प्राचीनकाल से आज तक इसे एक अद्वितीय पहचान प्रदान करती है। धर्म, जाति, संप्रदाय, खान-पान, वेशभूषा, रीति रिवाज के साथ-साथ भारतवर्ष में अनेक भाषाओं एवं बोलियों का भी संगम दृष्टिगोचर होता है। भाषा की इस सुंदर विविधता के बावजूद भी हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा के रूप में संपूर्ण भारतवर्ष को एकता के एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है। वस्तुतः किसी देश की राष्ट्रभाषा से वहां के जन-जन का भावनात्मक लगाव होता है। राष्ट्रभाषा किसी देश की जनता के केवल विचारों को ही नहीं बल्कि उसकी भावनाओं को भी समेटकर अभिव्यक्त करने का कार्य करती है। राष्ट्रभाषा का संबंध केवल विचाराभिव्यक्ति से ही नहीं होता अपितु यह देश के जन जन के जीवन के प्रत्येक पक्ष से गहरा जुड़ाव रखती है।
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा के द्वारा हिंदी को देश की अधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई थी। हिंदी दुनिया की चौथी व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है। किंतु यदि हम भारतवर्ष की स्थिति एवं दशा का निष्पक्ष अवलोकन करें तो हम यह पाएंगे कि हिंदी उस आसन पर विराजमान नहीं हो पाई है जिसकी कि वह अधिकारी है। आज भूमंडलीकरण एवं वैश्वीकरण का दौर है। इस दौर में यद्यपि सरहदों और दीवारों का कोई अर्थ नहीं रह गया है किंतु यह भी एक कटु सत्य है कि भूमंडलीकरण ने मौलिकता का नाश किया है। भाषा का विकास एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करने के पीछे सदियों की परंपराओं, भारत के गौरवशाली इतिहास एवं मूल्यों का अमूल्य योगदान है। आज हमारी स्थिति यह है कि हम पश्चिमी रीति रिवाज से बुरी तरह प्रभावित हैं। हम अपनी वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, जीवनशैली एवं भाषा के क्षेत्र में पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने पर तुले हुए हैं। यही कारण है कि हम अपनी उस विरासत को जोकि पश्चिमी संस्कृति से कहीं अधिक समृद्ध है, भूलकर स्वयं अपनी ही जड़ों को शनैःशनैः काट रहे हैं। हिंदी स्वाभिमान, गर्व तथा आत्मसम्मान की भाषा है। इसे बोलना, सीखना व समझना अति सरल है। किंतु आज का तथाकथित आधुनिक परिदृश्य कुछ ऐसा है कि आज हम अंग्रेजी के बाजार में अंग्रेजी के गुलाम बनकर रह गए हैं। आज हिंदी का मान सम्मान तो बहुत दूर की बात रही, इसे कोई पूछने तक को तैयार नहीं है। अंग्रेजी का महत्व इस सीमा तक बढ़ गया है कि समाज की मानसिकता में अंग्रेजी से अनभिज्ञ व्यक्ति पिछड़े की श्रेणी में आता है। अंग्रेजी न बोल पाने पर अनेक युवाओं को अनेक अच्छे अवसरों से हाथ धोना पड़ जाता है। समाज के मानस पटल पर हिंदी भाषी की छवि एक गंवार के रूप में निर्मित होती है, जबकि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले को एक विशेष सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है। आज के युवा वर्ग में हिंदी, जोकि भारत की अस्मिता की प्रतीक है, के प्रति श्रद्धा व आदर का सर्वथा अभाव है जबकि अंग्रेजों की दी हुई अंग्रेजी के प्रति अंधभक्ति दिखाई देती है। हिंदी को लेकर हम सब नितांत शिथिल हैं जबकि अंग्रेजी बोलना हमें सम्मानजनक लगता है। समाज में हिंदी में अपनी बात को प्रस्तुत करने पर आज के युवा में हीनभावना जागृत होती है।
आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली भी अंग्रेजी केंद्रित हो चुकी है।जगह-जगह इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की दुकानें खुली हुई हैं। अनेक परीक्षाओं के प्रश्नपत्र केवल अंग्रेजी में ही तैयार किए जाते हैं। और तो और, एक कड़वा सच यह है कि विभिन्न विषयों की उत्कृष्ट अध्ययन सामग्री भी केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज का एक बड़ा तबका ज्ञान व शिक्षा से वंचित हो रहा है। झूठी आधुनिकता ने समाज में आर्थिक, सामाजिक एवं वैचारिक दूरियां बढ़ा दी हैं। हमने अपना आत्मसम्मान अंग्रेजी के चरणों में अर्पित कर दिया है। अंग्रेजी हमारे दिलोदिमाग पर इस कदर हावी है कि उसने हिंदी को पूर्णतया प्रतिस्थापित कर दिया है। प्रश्न यह है कि आखिर अंग्रेजी को इतना आवश्यक व अनिवार्य बनाने के पीछे कौन उत्तरदायी है? शायद इसका उत्तर यह है कि नकलचीपन की आदत ने ही हमें आज इस स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है।
आज परम आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्र की अखंडता हेतु अंग्रेजी को छोड़कर हिंदी को स्वीकार किया जाए। हिंदी को विकसित, उन्नत व पल्लवित करने का कार्य व्यक्ति से लेकर राष्ट्र के स्तर तक हो, भले ही इसके लिए कितना ही कष्ट व त्याग क्यों न करना पड़े। आंखें मूंदकर अंग्रेजी एवं पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण न किया जाए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी हमारे संस्कारों, परंपराओं और मूल्यों का प्रतिबिंब है। हिंदी को भूलना हमारी एक बड़ी भूल होगी। हिंदी के प्रति तुच्छ नजरिए को बदलकर हमें राष्ट्र की प्रगति को भाषा की प्रगति एवं समृद्धि से जोड़ना होगा। अन्यथा यदि हिंदी दिवस पर यूं ही झूठी व दिखावटी शपथें ली जाती रहीं, तो निश्चित ही हिंदी विश्वपटल पर सदा ही सिसकती, बिलखती व ठुकराई हुई नजर आएगी।