पिंकी सिंघल
मान है हिन्दी,जान है हिन्दी,हिन्दी शान है हिंदुस्तान की..
हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं,यह अभिव्यक्ति है स्वाभिमान की..
भारतवर्ष में जन्म लेने से हिंदी हमारी मातृ भाषा कहलाती है ।यह बात अलग है कि भारत के अलग-अलग राज्यों की अपनी एक अलग क्षेत्रीय भाषा और बोली होती है। किंतु हिंदी जिसे अभी तक बेशक राष्ट्रभाषा का दर्जा न मिला हो, किंतु ,फिर भी यह हमारी, हम सबकी सामान्य बोलचाल और कामकाज की भाषा का सशक्त और सुगम माध्यम है। केवल राष्ट्रभाषा का दर्जा न मिलने से हम हिंदी को और इसके महत्व को नहीं नकार सकते ।जिस प्रकार हम अपनी माता का सम्मान करते हैं, चाहे फिर हमारी माता दिखने में स्वभाव में किसी भी प्रकार किसी अन्य को आकर्षित न भी करती हो, किंतु फिर भी हमारी माता हमारी माता ही कहलाती है ,उसी प्रकार हिंदी भी हमारी मातृभाषा ही है ।सभी संस्कार और व्यवहार हम अपनी मातृभाषा के माध्यम से ही तो पाते हैं।किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता को सीखने के लिए मातृभाषा से अधिक सशक्त माध्यम दूसरा अन्य हो ही नहीं सकता। हमारी हिंदी तो वैसे भी विश्व की प्राचीनतम और समृद्ध भाषाओं में से एक है ।
विश्व के अनेक देशों के लोग हिंदी भाषा सीखने के लिए लालायित नजर आते हैं ।उन्हें हिंदी सीखने में गर्व महसूस होता है क्योंकि हिंदी भाषा विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है।
इतनी खूबियां होने के बावजूद भी मुझे यह कहते हुए बेहद दुख हो रहा है कि हमारी हिंदी अपने ही देश में पराई- सी हो गई है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की एक बहुत बड़ी आबादी अभी भी अपनी मातृभाषा का बेहद सम्मान करती है और अपने कामकाज में, बोलचाल में इसका प्रयोग भी करती है और स्वयं को गौरवान्वित महसूस भी करती है। किंतु पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आने की वजह से अथवा दिखावे की संस्कृति को पोषित करने के कारण अनेक भारतवासी आजकल हिंदी भाषा के प्रयोग से कतराते नज़र आने लगे हैं और दूसरी विदेशी भाषाओं का प्रयोग करने में उन्हें गर्व महसूस होता है क्योंकि उनके अनुसार विदेशी भाषाएं हिंदी से कहीं अधिक सभ्य हैं।यह अति शर्मनाक है।
ऐसे लोगों की सोच पर शर्म तो आती ही है, साथ ही साथ हैरानी भी होती है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम अभी तक मानसिक रूप से विदेशी ताकतों के गुलाम बने बैठे हैं, क्यों हम अपनी हिंदी को वह मान सम्मान नहीं दे पा रहे हैं जिसकी वह हकदार है ,क्यों अपनी ही भाषा से हम नित प्रतिदिन दूर होते जा रहे हैं।
हिंदी भाषा तो गौरव बढ़ाने वाली भाषा है। हिंदी के अतिरिक्त अन्य भाषाएं सीखने सिखाने में कोई बुराई नहीं, किंतु अन्य भाषाओं के प्रभाव तले जब हिंदी अपना अस्तित्व खोने लग जाए तो समझ लीजिए हम विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं। यदि हमें स्वयं को विकास की राह पर लेकर चलना है, अपनी सभ्यता और संस्कृति को और आगे बढ़ाना है ,प्रोत्साहित करना है तो हमें अपनी मातृभाषा को बढ़ावा देना होगा , अपनी सांस्कृतिक विविधता को पोषित करना होगा।
भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है जो ना केवल अपनी मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा व बोलियों को सम्मान देता है ,अपितु अन्य सभी विदेशी भाषाओं को भी बहुत महत्त्व देता है। अतिथि देवो भव: की तरह ही हम भारतवासी विदेशी भाषाओं को भी बराबर का स्नेह देते हैं। अपनी भाषा से प्यार करने के साथ-साथ हम विदेशी भाषाओं को भी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और यदा-कदा उनका प्रयोग करने में भी कोई बुराई नहीं समझते। तो फिर क्यों हम अपनी ही भाषा से दूर होते जा रहे हैं ,क्यों उसकी छवि को धूमिल करने में हमें हिचकिचाहट नहीं होती, क्यों हम उसके प्रयोग से कतराते हैं क्यों हमें यह अनुभव होता है कि हिंदी का प्रयोग करने से हम अनपढ़ अथवा गंवारों की श्रेणी में आ जाएंगे, क्यों हमें नीची नज़रें करते हुए अन्य विदेशी भाषाओं के प्रभाव में रहना पड़ता है ,क्यों हम बिंदास ,खुलकर अपनी भाषा का प्रयोग करने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस नहीं करते, क्यों हम अपनी भाषा को सम्मान देने के लिए केवल वर्ष में 1 दिन अथवा 1 सप्ताह अथवा केवल एक पखवाड़ा ही हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं, क्यों हम पूरा वर्ष हिंदी को वह मान सम्मान नहीं दे पाते जिसकी वह हकदार है।
शायद यही बड़ा कारण है कि आज तक हमारी भाषा हमारी हिंदी को अपने ही देश में राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हो पाया है। जब हम अपनी चीजों की, अपने देश की ,अपनी भाषा की स्वयं कदर नहीं करेंगे, उसका महत्त्व नहीं समझेंगे तो दूसरे देशों के लोग और विदेशी ताकतें इस बात का भरपूर फायदा उठाएंगे जिसके दुष्परिणाम भुगतने के लिए हम सभी को तैयार भी रहना होगा ।बेहतरी इसी में है कि हम समय रहते अपनी संकीर्ण मानसिकता और गलत सोच को बदलें और अपनी भाषा को उसका अधिकार दें।
तो क्यों ना आज हम सभी हिंदू वासी भारतवासी मिलकर यह शपथ ले कि हिंदी भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग करेंगे और इसके प्रचार-प्रसार में अपना संपूर्ण योगदान देंगे ताकि अपनी भाषा रूपी सांस्कृतिक धरोहर को हम आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित कर पाए और एक सच्चे हिंदुस्तानी होने का फर्ज निभा पाएं,और अपनी भाषा पर गर्व कर ,उसका अधिकाधिक प्रयोग कर,उसे पोषित कर कर ही हम अपने इस दायित्व को बखूबी निभा सकते हैं।