विधानसभा चुनाव से पहले अंतर्कलह कांग्रेस के लिए घातक

सुशील दीक्षित विचित्र

जो पटकथा चुनाव से चार माह पूर्व पंजाब में लिखी गयी थी क्या वही पटकथा राजस्थान में लिखी जा रही है ? क्या इस पटकथा का समापन राजस्थान में कांग्रेस सरकार की विदाई से होगा ? और महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या गांधी परिवार की कांग्रेस पर पकड़ कमजोर पड़ गयी है ? राजस्थान का घटनाक्रम देखे और उसे विश्लेषित करें तो एक बात तुरंत सामने निकल कर आयेगी कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हमेशा की तरह इस बार भी अंतर्कलह की आग का शमन करने में असमर्थ रहा | महाभारत में कहा गया है कि रोग और शत्रु की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए | कांग्रेस के थिंक टैंक ने दोनों ही काम किये | क्षत्रपों के मतभेदों के रोग उपेक्षा की और गुटबाजी के शत्रु को समय रहते समाप्त नहीं किया |

राजस्थान में दो क्षत्रपों अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच लंबे समय से रस्साकशी का खेल खेला जा रहा है | 2018 में जब से कांग्रेस सत्ता में आई और गहलोत को मुख्यमंत्री पद से नवाजा गया तभी से सचिन पायलट के खेमे में असंतोष की चिंगारी सुलग उठी थी जो अब शोला बन चुकी है | अशोक गहलोत की मत्वाकांक्षा दोनों हाथों में लड्डू रखने के लिए प्रेरित कर रही है जबकि सचिन पायलट का खेमा एक लड्डू छीन लेना चाहता है | भाजपा की तर्ज पर राहुल गांधी ने पार्टी में एक व्यक्ति एक पद का फार्मूला तय किया था | जब अशोक गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने की खबरें दस जनपथ से निकल कर मीडिया के माध्यम से देश भर में तैरने लगी तो सचिन पायलट को अपने ख़्वाब पूरे करने का यह अच्छा मौका लगा | उनके खेमें ने हाई कमान तक अपनी मंशा भी पहुंचा दी | अशोक गहलोत की चाहत रही कि उन्हें यदि मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़े तो उनकी पसंद का कोई नेता मुख्यमंत्री बनें ताकि राजस्थान की सत्ता परदे के पीछे से चला सकें |

सोनिया गांधी इसके लिए तैयार नहीं दिखीं और उनके व्यवहार से लगने लगा कि उनका झुकाव सचिन पायलट की ओर है | पायलट की मुख्यमंत्री पद की ताजपोशी की सम्भावनायें प्रबल होते ही गहलोत के समर्थक विधायकों ने कहना शुरू कर दिया कि उन्हें पायलट मंजूर नहीं | इसके विरोध में पार्टी के लगभग 90 विधायकों ने अपना इस्तीफ़ा विधानसभा अध्यक्ष को सौंप दिया | विवाद अधिक बढ़ा तो सोनिया गांधी ने अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे को मध्यस्थता करने के लिए भेजा | दोनों पर्यवेक्षकों ने पार्टी विधायकों की बैठक बुलायी | गहलोत गुट के विधायकों ने इसके विरोध में समानांतर बैठक बुला कर गांधी परिवार के वर्चस्व को सीधे -सीधे चुनौती दे दी | यह मामूली घटना नहीं थी | अभी तक गांधी परिवार ने जिसके सर पर हाथ रख दिया उसे ही हर विधायक और पार्टी नेता ने निर्विरोध अपना नेता मान लिया | यह पहली बार है जब विधायकों ने गांधी परिवार के फैसले पर न केवल असंतोष प्रकट किया बल्कि उसे मानने से भी इंकार कर दिया |

यह मामूली डैमेज नहीं है बल्कि पार्टी में ब्लैक होल बन जाने की ओर इशारा कर रहा है | ऐसी ही स्थिति साल भर पहले पंजाब में भी आई थी | चुनाव से चार महीने पहले तक लगता रहा कि कांग्रेस सत्ता में वापसी करेगी | चार महीने बाद अंदरूनी कलह सड़कों पर आयी तो कांग्रेस के हाथ से एक और बड़ा राज्य निकल ही नहीं गया बल्कि पार्टी हासिये पर पहुँच गयी | राजस्थान में भी अगले साल चुनाव होने है | ऐसे समय में कांग्रेस की हाई फाई अंतर्कलह यही दिखाती है कि गांधी परिवार ने पंजाब की घटना से कोई सबक नहीं लिया और वही गलती दोहराई जो पंजाब में की थी | इसी गलती के कारण न केवल उसका प्रबंधतंत्र बुरी तरह विफल रहा बल्कि विद्रोह जैसी स्थति बन गयी | पर्यवेक्षक पायलट और गहलोत खेमें के बीच तारतम्य नहीं बना सके और उन्हें इसीलिये अपमानित होना पड़ा कि उनके पास मुद्दा सुलझाने की पहले से कोई योजना नहीं थी | हाईकमान की अदूरदर्शिता ने पार्टी को उसी खाईं में धकेल दिया था जिस खाईं में साल भर पहले पंजाब में कांग्रेस को गहरी खाईं में धकेला गया था जहां से उसके निकलने की सम्भावनाये रोज व रोज कम पड़ती जा रही हैं ।

पार्टी हाईकमान ने गांधी परिवार के वफादार माने जाने वाले अशोक गहलोत को सत्ता परिवर्तन से पहले यदि विश्वास में लेकर सलाह ली होती तो मुद्दा बंद कमरे में सुलझाया जा सकता था | बात तब और बिगड़ी जब एक पद , एक व्यक्ति का हवाला देकर गलत से इस्तीफ़ा मांगा जाने लगा | गहलोत इस्तीफे के लिए राजी नहीं थे और गांधी परिवार से उस पर तत्काल इस्तीफ़ा देने का दबाब पड़ने लगा | यह जरूरी नहीं था | इस्तीफ़ा अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद भी हो सकता था | गहलोत खेमे के विधायकों का कहना था कि इस्तीफे की आखिर इतनी जल्दी क्यों ? हाईकमान के लिए यह अधिक सुविधाजनक होता कि वह चुनाव तक इस्तीफ़ा न मांगता और इस दौरान सचिन पायलट के पक्ष में माहौल तैयार किया जाता | ऐसा न करने के ही परिणाम हैं कि वफादार को विद्रोहात्मक स्थिति से गुजरना पड़ा और गांधी परिवार को अपने ही विधायकों का निशाना बनना पड़ा |

चुनाव से ठीक साल भर पहले राजस्थान की बगावत सड़कों पर आने के बाद भी कोई ऐसा फार्मूला हाईकमान निकाल सकेगा जिससे यह ब्लैक होल पाटा जा सके , इसमें संदेह की भारी गुंजाइश है | इसलिए भी गुंजाइश है कि अभी भी जो तरीका अपनाया जा रहा ही उससे पार्टीगत दोनों धड़ों में एक दुसरे को लेकर नापसंदगी पसंदगी में बदलने के फ़िलहाल कोई आसार नहीं दीखते | असावधान नेतृत्व राजनीति में विष है | फिर ऐसे समय में जब सामने खड़ा विपक्षी ताकतवर होता जा रहा है और कांग्रेस कमजोर | गोवा में नौ में से आठ विधायकों का कांग्रेस छोड़ कर भाजपा ज्वॉइन कर लेने के बाद भी जिस नेतृत्व की आँखें नहीं खुलीं उसकी अगुआई में पार्टी के भीतर उठा इतना बड़ा बबंडर शांत हो पाना असम्भव की हद तक मुश्किल लगता है |

फिर भी मान लेते हैं कि गांधी परिवार अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके दोनों खेमों को समझा कर कोई बीच की राह निकाल लेगा लेकिन इससे समस्या समाप्त हो जायेगी इसकी गारंटी किसी के पास नहीं है | रहीमदास कहते हैं कि प्रेम का धागा यदि एक बार तोड़ दिया तो फिर कितना भी जोड़ों , गांठ पड़ना तय है | हालांकि गांठ चार साल से पड़ी हुई है जो कि अब और बड़ी तथा और मजबूत हो गयी है | इसका खुलना और बंधे रहना दोनों ही पार्टी के हितों के लिए घातक है | खुलने पर धागा अलग -अलग हो जायेगा और बंधे रहने पर जहां बंधेगा वहां कष्ट पहुंचायेगा | कुल मिला कर पंजाब जैसे हालात राजस्थान में भी हैं और इनका अंजाम भी पार्टी को पंजाब जैसा भुगतना पड़ सकता है क्योंकि पार्टी के अंदर चलने वाली पार्टी विपक्षी दल से भी खतरनाक है । जबकि राजस्थान में तो पार्टी के अंदर तीन पार्टियां चल रही हैं | एक पायलट की एक गहलोत की और एक सोनिया गांधी की | विचारणीय प्रश्न यह भी है कि वर्तमान हालात में किसी भी पार्टी के लिए चुनावी साल में बगावत से लड़ना शुभ परिणाम देने वाला कैसे हो सकता है ?