आर.के. सिन्हा
कोरोना के कारण लगभग दो वर्षों के घोर निराशा भरे समय के बाद जीवन फिर से लगभग पटरी पा आ सा गया है। चारों तरफ उत्सव और उत्साह का वातावरण है। सकारात्मकता ने हताशा के दौर को पीछे छोड़ दिया सा लगता है। शारदीय नवरात्रि के श्रीगणेश होते ही जगह-जगह रामलीला, दुर्गापूजा और गरबा के आयोजन हो रहे हैं। रामलीलाओं में इस बार जनमानस की भी भारी उपस्थिति दर्ज हो रही है। सारे देश में रामलीला के आयोजन हो रहे हैं। इनमें राम- लक्ष्मण, राम-रावण, राम हनुमान आदि संवाद सुनने के लिए भारी संख्या में दर्शक पहुंच रहे हैं। हरेक रामलीला के साथ एक मेला भी लगा हुआ है। यह स्थिति दुर्गा पूजा की भी है। दुर्गा पूजा के पंडालों में भी भारी संख्या में भक्त पहुंच रहे हैं। रामलीला और दुर्गा पूजा में जनता की अप्रत्याशित भागेदारी को देखकर समझा जा सकता है कि कोरोना के कारण किस कष्ट से लोगों को दो सालों तक उनके पर्वों से दूर रहना पड़ा था। उनमें वे फिर से शामिल होकर अपने को आनंदित और प्रफुल्लित महसूस कर रहे हैं। भारत और भारतीयों को आप पर्वों से दूर तो नहीं रख सकते। तमाम निराशाओं तथा असफलातों पर एक तरह से विजय दिलाने का काम करते हैं ये महान पर्व। ये हरेक इंसान में नई उर्जा और स्फूर्ति पैदा करते हैं। कोरोना काल में दो बातें हो रही थीं। एक तो कोरोना जान लेवा साबित हो रहा था और दूसरा पर्व और त्योहार मनाना अत्यंत ही कठिन हो गया था। यानी कोरोना सामाजिक व्यवस्था पर दोहरी मार कर रहा था।
पिछले कई वर्षों से कुछ ज्ञानी पुरुष ऐसा कहने लगे थे कि रामानंद सागर की दूरदर्शन पर दिखाई गई ‘रामायण’ के बाद देश की जनता की रामलीलाओं को देखने में दिलचस्पी घटी है। जनता ने रामानंद सागर की रामायण में कलाकारों का इतना श्रेष्ठ काम देख लिया है कि अब वे सामान्य मोहल्लों में होने वाली रामलीलाओं को देखने में भागेदारी करने से बचने लगे हैं। इस बाबत और भी तर्क दिए जा रहे थे। पर ये तमाम तर्क इस बार धूल में मिल गए। इस बार की रामलीलाओं के आयोजनों में बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष और बच्चे पहुंच रहे हैं। उन्हें रामलीला देखना पसंद आ रहा है। मैंने खुद कुछ लीलाओं को देखा। मेरे दिल्ली, चड़ीगढ़, लखनऊ आदि के मित्रों ने बताय़ा कि उधर हो रही रामलीलाओं में भीड़ बढ़ती जा रही है। दिल्ली के लाल किला और एतिहासिक रामलीला मैदान में हो रही रामलीलाओं में हर रोज हजारों लोग रामलीला का आनंद लेते हैं। आखिर आप भारतीयों को राम से कैसे दूर ऱख सकते हैं। भारत के कण-कण में राम और रामकथा है। गांधी जी भारत में राम राज्य की कल्पना करते थे। एक आदर्श राष्ट्र जो न्याय और समानता के मूल्यों पर आधारित हो। बापू ने ऐसे रामराज्य का स्वप्न देखा जो पवित्रता और सत्यनिष्ठा पर आधारित हो।
राम तो हर भारतीय के ईश्वर हैं। भारत राम को अपना अराध्य, आदर्श और पूज्नीय मानता रहेगा। डॉ. राम मनोहर लोहिया जी कहते थे कि भारत के तीन सबसे बड़े पौराणिक नाम – राम, कृष्ण और शिव हैं। उनके काम के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी प्राय: सभी को, कम से कम दो में एक को तो होगी ही। उनके विचार व कर्म, या उन्होंने कौन-से शब्द कब कहे, उसे विस्तांरपूर्वक दस में एक तो जानता ही होगा।राम का नाम भारत असंख्य वर्षों से ले रहा है और लेता ही रहेगा।
अपने राम की लीला को देखकर भारतीय प्रसन्न होते हैं। उन्हें लगता है कि मानों कि वे खुद ही राम से संवाद कर रहे हों। राम भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। अल्लमां इक़बाल ने भी राम की शान में एक नज्म लिखी थी। वे भगवान राम को राम-ए-हिंद कहते हैं। उन्होंने लिखा है:,
”है राम के वजूद पर हिन्दोस्ताँ को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उनको इमामे हिन्दयानी।”
एक बात तो सबको समझना ही होगा कि रामलीला या रामकथा सुदूर सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान) में भी होती थी। सिंध प्रांत के दूर-दराज इलाकों में बसे सिंधी हिन्दू अब भी इस्लामिक पाकिस्तान में राम कथा का आयोजन करते हैं। पूरे विश्व के कोने-कोने में बसे सिंधी हिन्दू भी नवरात्रि काल में रामकथा के आयोजन करते हैं। आपको झुलेलाल मंदिरों में रामकथा सुनाते हुए सिंधी कथावाचक मिल जाएंगे। साफ है कि राम सिंधियों के भी अराध्य हैं। सिंधी समाज में ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि ‘राम हिकचयवन पुत हो।’
यानी राम जैसा आज्ञाकारी पुत्र सबको मिले। आपको जानकरी हैरानी होगी कि देश के बंटवारे से पहले रामलीला पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा वाले क्षेत्र में भी होती थी। सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान का संबंध इसी इलाके से था। वहां से 1947 के बाद आए हिन्दू अब भी जो रामलीला करते हैं उसमें कलाकार उर्दू में भी अपने संवाद बोलते हैं। एक संवाद राम-रावण के बीच का पढ़िए पढिए। रावण को ललकारते हुए राम कहते हैं, “रावण, तुम शैतान हो। तुम जुल्म की निशानी हो। तुम्हें जीने का कोई हक नहीं है।” रावण का जवाब। “राम, मैंने मौत पर फतेह पा ली है। पूरी कायनात में मेरे से ज्यादा बड़ा और ताकतवर शख्स कोई नहीं है। मेरे से फलक भी खौफ खाता है। तू जा अपना काम कर।” राजधानी दिल्ली से सटे शहर फरीदाबाद में खैबर पख्तूनख्वा से आकर बसे परिवार में उर्दू में ही रामलीला करते और देखते थे। वे उस परंपरा को कुछ हदतक अभी भी निभा रहे हैं। इसलिए ये रामलीला बाकी से हटकर भी है। रामलीला की बात हो और हनुमान जी सामने न आएं यह असंभव सा है। तो पढ़ लीजिए एक संवाद। हनुमान जी सीता माता के पास पहुंचते हैं। सीता रावण की कैद में हैं। वे सीता के सामने नतमस्तक होकर अपना परिचय देने के बाद कहते है- “ मां, मैं आपको बहिफाजत के साथ भगवान राम के पास ले जाऊंगा। आप कतई फिक्र मत करें। मुझे तो अभी भगवान राम का हुक्म नहीं है,अगर होता तो मैं आपको अभी वापस ले जाता इन शैतानों से दूर।” एक संवाद सीता माता-रा वण का भी। रावण कहता है, ‘अब भूल जा अपने शौहर को। मैं ही हूं तेरा शौहर।’ ये सुनकर गुस्से में सीता कहती हैं- ‘दगा-फरेब से मुझको ले आया तू। जलील शख्स। मनहूस इंसान। तू खाक हो जाएगा।’ दरअसल सिंधी और पख्तून में होने वाली रामकथाओं और रामलीलाओं का उदाहरण देने का उद्देशय यह है ताकि यह जानकरी रहे कि राम लीला सिर्फ उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों तक ही नहीं रही। रामलीला को भारत सदियों से देख रहा है और देखता रहेगा। हां, उसमें कोरोना या किसी अन्य कारण से कुछ समय के लिए व्यवधान आए ज़रूर पर रामलीला से भारत जुड़ा रहा। इसकी पुष्टि इस बार साफ तौर पर होती दिख रही है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)