मुलायम का जाना : समाजवाद का एक युग खत्म होने जैसा

 अजय कुमार

मुलायम सिंह यादव राजनीति के चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे. कहने को तो वह समाजवादी विचारधारा से जुड़े हुए थे लेकिन उन्होंने अपने आप को किसी बंधन में नहीं रखा.इसीलिए तो उनका नाम कई विवादित और विपरित विचारधारा वाले नेताओं के साथ ही जुड़ा रहा. बसपा सुप्रीमो मायावती से मुलायम का हमेशा 36 का आंकड़ा रहा. मायावती अक्सर आरोप लगाया करती थी कि मुलायम सिंह ने उनको 90 के दशक में लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस मेरा जान से मारने की कोशिश की थी. मुलायम को न दबंगों से परहेज था ना ही दस्यु सम्राटों से. उनके आंगन में फिल्मी कलाकारों को ठुमके लगाते भी देखा जाता था, जबकि समाजवाद में इससे परहेज रखा जाता है. मुलायम की गुड लिस्ट में कई माफियाओं के भी नाम जुड़े रहते.इसमें मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद से लेकर पश्चिमी यूपी के डीपी यादव और लखनऊ का अरुण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना जैसे कई अपराधी शामिल थे. मुलायम के सत्ता में रहते हैं अन्ना को तो मिनी मुख्यमंत्री तक की उपाधि मिली हुई थी. मुलायम के दस्यु परिवारों से भी संबंध अच्छे रहे. कुछ दस्यु सम्राटों के बच्चे तो सपा से चुनाव भी लड़े.मुलायम ने अयोध्या के विवादित ढांचा जिसे हिंदू रामलला का जन्म स्थान बताते थे, वही मुसलमान बाबरी मस्जिद बताया करते थे. में मुसलमानों के पक्ष में खुलकर राजनीति की. कारसेवकों पर गोली चलाने से भी परहेज नहीं किया और यहां तक कहा करते थे कि 16 क्या यदि 1600 कारसेवकों को भी गोली चलाना पड़ती तो हम बाबरी मस्जिद बचाने के लिए इससे परहेज नहीं करते. लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने अयोध्या मंदिर के सबसे बड़े पैरोकार समझे जाने वाले हिंदू हृदय सम्राट पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को भी गले लगा लिया. इसी तरह से मुलायम ने प्रधानमंत्री मोदी को भी अपना करीबी बना रखा था. वह मोदी से अपने दिल की बात खुलकर कहते थे, जबकि यह बात अखिलेश यादव को भी पसंद नहीं आती थी, क्योंकि मोदी के कारण ही समाजवादी पार्टी यूपी में हाशिए पर चली गई थी. करीब 15 वर्ष पूर्व मुलायम सिंह ने आगरा में सपा अधिवेशन के दौरान जब कल्याण सिंह को अपने साथ मंच पर बैठाया तो पार्टी में बगावत के सुर की सुनाई पढ़ने लगे थे.नाराज होकर आजम खान ने पार्टी से किनारा कर लिया था. इससे मुसलमानों के बीच मुलायम की छवि भी खराब हुई थी जो सपा का सबसे मजबूत वोट बैंक हुआ करता था. समाजवाद के नाम पर मुलायम ने परिवारवाद को खूब पाला पोसा. एक समय तो उनके परिवार के करीब दो दर्जन सदस्य राजनीति में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से दखलअंदाजी रखते थे,इसमें कोई सांसद था तो कोई विधायक कई परिवार के सदस्य तमाम बोर्डो और निगमों के अध्यक्ष बने हुए थे. लाइजनर अमर सिंह के साथ भी मुलायम ने कई साल तक दोस्ती की. लेकिन इसके बाद भी मुलायम के चाहने वालों की कभी कमी नहीं रही. वह यूपी ही नहीं दिल्ली में भी अच्छी खासी दखलअंदाजी रखते थे. एक समय ऐसा भी था, जब सोनिया गांधी 2004 में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही थी तो मुलायम ने उनको विदेशी बताकर पीएम की कुर्सी से पीछे धकेल दिया था. इसके साथ साथ वह पल भी नहीं भूला जा सकता है जब लालू के चलते मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री नहीं बन पाए थे.यह और बात है कि यूपी और बिहार की राजनीति की यह दो सियासी परिवार बाद में पारिवारिक रिश्तो में बन गए थे. इसी तरह मुलायमन पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को अपना राजनीतिक गुरु बताते थे, लेकिन उनके पुत्र अजीत सिंह से उनके संबंध कई बार बने बिगड़े.

खैर, इतना सब कुछ होने के बाद भी मुलायम की अपने वोटरों पर हमेशा अच्छी पकड़ नहीं. सभी पार्टियों के नेताओं से उनके मजबूत रिश्ते थे. मुलायम सब के सुख दुख में खड़े रहते थे जिसके सहारे वे जनता से जुड़ाव बनाते थे. समाजवादी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की मृत्यु सपा के लिए बड़ा झटका है. पार्टी जब विधानसभा चुनावों की हार को भूलकर 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी थी.अपने को दोबारा उबारने की कोशिश कर रही थी, उस समय नेता जी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. करीब 6 दशकों से समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में लगे नेताजी हमेशा कहा करते थे राजनीति में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए चर्चा, पर्चा और खर्चा तीन चीजों की बहुत जरूरत है. वह कहते थे किसी भी नेता के लिए हर समय चर्चा में बना रहना चाहिए. कोई चुनाव आए तो पर्चा भरने में देरी नहीं करना चाहिए और खर्चे के लिए पैसा जुटाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहिए नेताजी’1 तक का भी चंदा लेते थे. जब पहली बार चुनाव लड़े थे तो एक नोट, एक वोट उनका नारा था. अखाड़े से निकलकर मुलायम सिंह यादव ने पहला कदम टीचर के रूप में मैनपुरी के एक स्कूल में रखा था लेकिन यहां उनका मन ज्यादा दिन तक रम नहीं पाया और वे राजनीति में आ गए । उस दौर में मुलायम के पास साइकिल के अलावा कुछ नहीं था। उन्हें जिताने के लिए पूरे गांव ने उपवास रखा। जिसके बाद मुलायम विधायक ही नहीं तीन बार सूबे के सीएम बने और केंद्र में रक्षा मंत्री तक का सफर तय किया.मुलायम सिंह इटावा से बीए की पढ़ाई करके टीचिंग कोर्स के लिए शिकोहाबाद चले गए। बात 1965 की है, उनकी करहल के जैन इंटर कॉलेज में मास्टर की नौकरी लग गई।

नौकरी लगे दो साल ही हुए थे मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरू नत्थू सिंह ने 1967 विधानसभा चुनाव में अपनी सीट जसवंतनगर से मुलायम सिंह यादव को उतारने का फैसला लिया। राम मनोहर लोहिया से वकालत की और नाम पर औपचारिक मुहर भी लग गई। सिंह ने खुद के लिए करहल सीट चुनी थी। मुलायम को जब मालूम हुआ कि उन्हें जसवंतनगर से सोशलिस्ट पार्टी के लिए चुनाव लड़ना है तो वह प्रचार के लिए जुट गए। उनके दोस्त दर्शन सिंह के पास साइकिल थी। वह दर्शन सिंह के साथ उनके पीछे बैठकर चुनाव प्रचार के लिए जाते थे। पैसे उन्होंने एक वोट, एक नोट का नारा दिया। मुलायम चंदे में एक रुपया मांगते और ब्याज सहित लौटाने का वादा करते।जसवंतनगर में मुलायम सिंह यादव की लड़ाई हेमवती नंदन बहुगुणा के करीबी और कांग्रेस प्रत्याशी एडवोकेट लाखन सिंह से था। मुलायम ने पहली लड़ाई में ही मैदान फतह किया। वह 28 साल की उम्र में विधायक बन गए।मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री रहे। पहली बार पांच दिसंबर 1989 से 24 जून 1991 तक, दूसरी बार पांच दिसंबर 1993 से 3 जून 1995 तक और तीसरी बार 29 अगस्त 2003 से 13 मई 2007 तक मुख्यमंत्री रहे। जून 1996 से 19 मार्च 1998 तक भारत के रक्षा मंत्री रहे।एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने वाले मुलायम सिंह ने अपना राजनीतिक जीवन उत्तर प्रदेश में विधायक के रूप में शुरू किया। बहुत कम समय में ही मुलायम सिंह का प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में नज़र आने लगा। मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग समाज का सामाजिक स्तर को ऊपर करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। सामाजिक चेतना के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग का महत्वपूर्ण स्थान हैं। समाजवादी नेता रामसेवक यादव के प्रमुख अनुयायी थे तथा इन्हीं के आशीर्वाद से मुलायम सिंह 1967 में पहली बार विधान सभा के सदस्य चुने गये और मन्त्री बने। 1992में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। उत्तर प्रदेश में यादव समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में मुलायम सिंह की पहचान है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने में मुलायम सिंह ने साहसिक योगदान किया। मुलायम सिंह की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष नेता की थी।

चर्चा, पर्चा और खर्चा था मुलायम की राजनीति का मूल मंत्र
समाजवादी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की मृत्यु सपा के लिए बड़ा झटका है. पार्टी जब विधानसभा चुनावों की हार को भूलकर 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी थी.अपने को दोबारा उबारने की कोशिश कर रही थी, उस समय नेता जी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. करीब 6 दशकों से समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में लगे नेताजी हमेशा कहा करते थे राजनीति में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए चर्चा, पर्चा और खर्चा तीन चीजों की बहुत जरूरत है. वह कहते थे किसी भी नेता के लिए हर समय चर्चा में बना रहना चाहिए. कोई चुनाव आए तो पर्चा भरने में देरी नहीं करना चाहिए और खर्चे के लिए पैसा जुटाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहिए नेताजी ₹1 तक का भी चंदा लेते थे. जब पहली बार चुनाव लड़े थे तो एक नोट, एक वोट उनका नारा था. अखाड़े से निकलकर मुलायम सिंह यादव ने पहला कदम टीचर के रूप में मैनपुरी के एक स्कूल में रखा था लेकिन यहां उनका मन ज्यादा दिन तक रम नहीं पाया और वे राजनीति में आ गए । उस दौर में मुलायम के पास साइकिल के अलावा कुछ नहीं था। उन्हें जिताने के लिए पूरे गांव ने उपवास रखा। जिसके बाद मुलायम विधायक ही नहीं तीन बार सूबे के सीएम बने और केंद्र में रक्षा मंत्री तक का सफर तय किया.मुलायम सिंह इटावा से बीए की पढ़ाई करके टीचिंग कोर्स के लिए शिकोहाबाद चले गए। बात 1965 की है, उनकी करहल के जैन इंटर कॉलेज में मास्टर की नौकरी लग गई।

नौकरी लगे दो साल ही हुए थे मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरू नत्थू सिंह ने 1967 विधानसभा चुनाव में अपनी सीट जसवंतनगर से मुलायम सिंह यादव को उतारने का फैसला लिया। राम मनोहर लोहिया से वकालत की और नाम पर औपचारिक मुहर भी लग गई। सिंह ने खुद के लिए करहल सीट चुनी थी। मुलायम को जब मालूम हुआ कि उन्हें जसवंतनगर से सोशलिस्ट पार्टी के लिए चुनाव लड़ना है तो वह प्रचार के लिए जुट गए। उनके दोस्त दर्शन सिंह के पास साइकिल थी। वह दर्शन सिंह के साथ उनके पीछे बैठकर चुनाव प्रचार के लिए जाते थे। पैसे उन्होंने एक वोट, एक नोट का नारा दिया। मुलायम चंदे में एक रुपया मांगते और ब्याज सहित लौटाने का वादा करते।जसवंतनगर में मुलायम सिंह यादव की लड़ाई हेमवती नंदन बहुगुणा के करीबी और कांग्रेस प्रत्याशी एडवोकेट लाखन सिंह से था। मुलायम ने पहली लड़ाई में ही मैदान फतह किया। वह 28 साल की उम्र में विधायक बन गए।मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री रहे। पहली बार पांच दिसंबर 1989 से 24 जून 1991 तक, दूसरी बार पांच दिसंबर 1993 से 3 जून 1995 तक और तीसरी बार 29 अगस्त 2003 से 13 मई 2007 तक मुख्यमंत्री रहे। जून 1996 से 19 मार्च 1998 तक भारत के रक्षा मंत्री रहे।एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने वाले मुलायम सिंह ने अपना राजनीतिक जीवन उत्तर प्रदेश में विधायक के रूप में शुरू किया। बहुत कम समय में ही मुलायम सिंह का प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में नज़र आने लगा। मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग समाज का सामाजिक स्तर को ऊपर करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। सामाजिक चेतना के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग का महत्वपूर्ण स्थान हैं। समाजवादी नेता रामसेवक यादव के प्रमुख अनुयायी थे तथा इन्हीं के आशीर्वाद से मुलायम सिंह 1967 में पहली बार विधान सभा के सदस्य चुने गये और मन्त्री बने। 1992में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। उत्तर प्रदेश में यादव समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में मुलायम सिंह की पहचान है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने में मुलायम सिंह ने साहसिक योगदान किया। मुलायम सिंह की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष नेता की थी। अजय कुमार लखनऊ से समाजवादी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की मृत्यु सपा के लिए बड़ा झटका है. पार्टी जब विधानसभा चुनावों की हार को भूलकर 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी थी.अपने को दोबारा उबारने की कोशिश कर रही थी, उस समय नेता जी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. करीब 6 दशकों से समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में लगे नेताजी हमेशा कहा करते थे राजनीति में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए चर्चा, पर्चा और खर्चा तीन चीजों की बहुत जरूरत है. वह कहते थे किसी भी नेता के लिए हर समय चर्चा में बना रहना चाहिए. कोई चुनाव आए तो पर्चा भरने में देरी नहीं करना चाहिए और खर्चे के लिए पैसा जुटाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहिए नेताजी ₹1 तक का भी चंदा लेते थे. जब पहली बार चुनाव लड़े थे तो एक नोट, एक वोट उनका नारा था. अखाड़े से निकलकर मुलायम सिंह यादव ने पहला कदम टीचर के रूप में मैनपुरी के एक स्कूल में रखा था लेकिन यहां उनका मन ज्यादा दिन तक रम नहीं पाया और वे राजनीति में आ गए । उस दौर में मुलायम के पास साइकिल के अलावा कुछ नहीं था। उन्हें जिताने के लिए पूरे गांव ने उपवास रखा। जिसके बाद मुलायम विधायक ही नहीं तीन बार सूबे के सीएम बने और केंद्र में रक्षा मंत्री तक का सफर तय किया.मुलायम सिंह इटावा से बीए की पढ़ाई करके टीचिंग कोर्स के लिए शिकोहाबाद चले गए। बात 1965 की है, उनकी करहल के जैन इंटर कॉलेज में मास्टर की नौकरी लग गई।

नौकरी लगे दो साल ही हुए थे मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरू नत्थू सिंह ने 1967 विधानसभा चुनाव में अपनी सीट जसवंतनगर से मुलायम सिंह यादव को उतारने का फैसला लिया। राम मनोहर लोहिया से वकालत की और नाम पर औपचारिक मुहर भी लग गई। सिंह ने खुद के लिए करहल सीट चुनी थी। मुलायम को जब मालूम हुआ कि उन्हें जसवंतनगर से सोशलिस्ट पार्टी के लिए चुनाव लड़ना है तो वह प्रचार के लिए जुट गए। उनके दोस्त दर्शन सिंह के पास साइकिल थी। वह दर्शन सिंह के साथ उनके पीछे बैठकर चुनाव प्रचार के लिए जाते थे। पैसे उन्होंने एक वोट, एक नोट का नारा दिया। मुलायम चंदे में एक रुपया मांगते और ब्याज सहित लौटाने का वादा करते।जसवंतनगर में मुलायम सिंह यादव की लड़ाई हेमवती नंदन बहुगुणा के करीबी और कांग्रेस प्रत्याशी एडवोकेट लाखन सिंह से था। मुलायम ने पहली लड़ाई में ही मैदान फतह किया। वह 28 साल की उम्र में विधायक बन गए।मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री रहे। पहली बार पांच दिसंबर 1989 से 24 जून 1991 तक, दूसरी बार पांच दिसंबर 1993 से 3 जून 1995 तक और तीसरी बार 29 अगस्त 2003 से 13 मई 2007 तक मुख्यमंत्री रहे। जून 1996 से 19 मार्च 1998 तक भारत के रक्षा मंत्री रहे।एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने वाले मुलायम सिंह ने अपना राजनीतिक जीवन उत्तर प्रदेश में विधायक के रूप में शुरू किया। बहुत कम समय में ही मुलायम सिंह का प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में नज़र आने लगा। मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग समाज का सामाजिक स्तर को ऊपर करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। सामाजिक चेतना के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग का महत्वपूर्ण स्थान हैं। समाजवादी नेता रामसेवक यादव के प्रमुख अनुयायी थे तथा इन्हीं के आशीर्वाद से मुलायम सिंह 1967 में पहली बार विधान सभा के सदस्य चुने गये और मन्त्री बने। 1992में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। उत्तर प्रदेश में यादव समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में मुलायम सिंह की पहचान है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने में मुलायम सिंह ने साहसिक योगदान किया। मुलायम सिंह की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष नेता की थी।