नीति गोपेंद्र भट्ट
नई दिल्ली।राजस्थान के सुदूर दक्षिणी हिस्से में मेवाड़ गुजरातऔर मध्य प्रदेश से सटे आदिवासी बहुल वागड़ अंचल मेंदीपावली की कई ऐसी बेजोड़ परम्पराएँ है जो देश में अन्य कहीनही देखी जाती है। इनमें ‘दीवाली आणा’ (गौना) और ‘मेरिया’ की अनूठी परम्पराएं हर किसी को रोमांचित करती हैं।
वागड़ अंचल में मेवाड़ गुजरात और मालवा की मिली जुलीआदिवासी लोक संस्कृतियों के दर्शन होते है।वैसे तो जनवरी सेकलेंडर वर्ष की शुरुआत होती है वैसे ही वागड़ में दिवाली को हीनया वर्ष माना जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृह प्रदेश वागड़के निकटवर्ती गुजरात में दीपावली के दूसरे दिन लोग एक दूसरेको जिस प्रकार साल मुबारक से सम्बोधित करते है वैसे ही वागड़में “जुहार सा” कहा जाता है।दीपावली के दिन रतन (मिट्टी केबर्तन और खिलोनें)लेकर आना नए साल में सबसे पहलेसीकन(विशेष प्रकार का खीरा)खाकर राजा बनने की परम्परा केसाथ ही मुल्ला गणेश का मेला गोवर्धन पूजा अन्नकूट प्रसाद औरभाई दूज पर दाल बाटी चूरमा खाने की परम्परायें भी प्रचलित हैं।
दिवालीआणे (गौना) की परंपरा
वागड़ में दिवाली पर दीवाली आणा (गौना) एवं मेरिया की पारंपरिक झलक पूरे यौवन पर होती है। वागड़अंचल में यह खास परंपरा विशेष कर नवविवाहित युवाओं से जुड़ी हुई है। दीपावली से कुछ दिन पहलेनवविवाहिता को ससुराल लाने की परंपरा को दिवाली आणा कहा जाता है। जिसमें शादी के बाद की पहलीदिवाली के पर्व को ससुराल में मनाने के लिए उसके मायके से लाने के लिए दूल्हे के साथ ही उसके भाई मित्रजाते हैं। दुल्हन उनके साथ अपने ससुराल आती है। पीहर से बहू को पहली बार हमेशा के लिए पीहर से लिवालाने के लिए किसी प्रकार के खास मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती है।यहाँ यह प्रथा सदियों से चली आ रही है।
दीवाली आणा दीपावली से देव दिवाली के मध्य 10-15 दिन में कभी भी हो सकता है। इसमें वर के साथ जानेवाले उसके भाई गरासिया मित्र बंधु सगे-सम्बंधियों एवं उनके परिवार वालों का वधू पक्ष द्वारा पूरी मान-मनुहारके साथ स्वागत किया जाता है। इन पामणों (मेहमानों) को स्वादिष्ट भोजन जिमाने के साथ ही वस्त्र और अन्यवस्तुएँ उपहार भेंट दिए जाते हैं।
मेरिया की परम्परा
दीवाली आणा के साथ ही मेरिया की परम्परा भी प्राचीनकाल से चली आ रही है। मेरियू दीपक का ही एकअलग रूप है. मेरीयू बनाने के लिए गन्ने के छोटे टुकड़े करते हैं. फिर सूखा नारियल लेकर उसके पैंदे में छेद करगन्ने को ऊपरी हिस्से में लगाया जाता है. इन दोनों को गोबर से लीप कर सुखाते हैं. इसके बाद मेरीयू में रुई कीबत्ती लगा कर तेल भर कर जलाया जाता है. इसे बनाने में नारियल के अलावा मिट्टी के दीपक का उपयोग भीहोता है. मेरिया गन्ने के डंठल, तोमड़ा (लौकी की प्रजाति एवं आकार का
बर्तन), रूई एवं कपड़े तथा मिट्टी से बनाया जाता है। तोमड़ा के ऊपरी भाग पर कपड़े एवं रूई की बत्तियों परतेल डालकर इसे मशाल की तरह प्रज्वलित किया जाता है। इसी मशाल को ‘मेरिया’ (विशेष प्रकार कापंचमुखी दीपक) कहा जाता है।
दीपावली के दिन कहीं रात को और कहीं अगले दिन सुबह यह मशाल भगवान के साथ ही गायों को दिखायीजाती है।साथ ही घर के हर कोने में इसकी परिक्रमा की जाती है। मान्यता है कि इससे घर के तमाम अंधेरे एवंअनिष्ट समाप्त हो जाते हैं तथा गृहस्थी को नई रोशनी मिलती है। दीवाली के अगले दिन दीपावली के अगलेदिन कार्तिक सुदी एकम को नववर्ष की शुभ वेला में अल सुबह भोर में मेरिया की परम्परा का निर्वाह कियाजाता है। इनमें छोटे बच्चे और नव वर वधु अपने अपने स्वयं के घर के साथ ही रिश्तेदारों और पड़ोसियों के घरोंमें जाते है । जहां उनके मशाल नुमा मेरिया में रिश्तेदार और पड़ोसी तेल भरते है । तेल पूरते वक्त “आजदीवाली काल दीवाली परम दाIड़े मेरयूँ” गीत गाया जाता है।
बाद में सभी महिलाएं भगवान राम के आगमन के गीत गाती हैं।साथ ही दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद दिया जाताहैं।इसके पीछे यह मन्तव्य है कि दूल्हा-दुल्हन का जीवन प्रकाशित रहे, दुल्हन के तेल पुरवाने का मतलब कीदोनों जीवन को सफल बनाने में एक दूसरे के पूरक बने और समाज मे भेदभाव खत्म हो।इस परम्परा का एकविशेष संदेश यह भी है कि समाज मे एकजुटता और समरसता रहे।
मेरियू का एक अलग अर्थ भी निकलता है । मेह शब्द एयर रियू से मिलकर बना है।मेह यानी बारिश और रियूमतलब थम गई। इस प्रकार इसे बारिश का मौसम जाने का सूचक भी माना जाता है।
आदिवासी अंचल में दूल्हा पंचमुखी अथवा एक मुखी मेरियू लेकर दरवाजे पर खड़ा रहता है तथा घर कीमहिलाएं तेल लेकर आती है और दुल्हन के हाथों से मेरियू में तेल पुरवाती है। इस दौरान दूल्हा दुल्हन दोनों पक्षोंके परिजन इष्ट मित्र साथ रहते हैं।साथ ही विवाहित वर दिवाली आणा के बाद मेरिया की मशाल को हाथ मेंलेता है एवं इस जलते हुए मेरिये पर वधू तेल पूरती है। फिर वधू के हाथ में मेरिया थमाकर वर तेल पूरता है।इसके बाद नव दम्पति वर-वधू के हाथ में थामे हुए मेरिया में नाते-रिश्तेदार भी तेल पूरते हैं। नव विवाहित युगलमेरिया लिये सगे-संबंधियों के वहां जाते हैं जहाँ इसमें तेल पूरा जाता है। यह तेल स्नेह धार के साथ ही उजियारेका प्रतीक माना जाता है।
इसी तरह नवविवाहित युवतियों के दीवाली आणा पर गाँव जाति-बिरादरी के लोग नव विवाहिता युगल (जिनकेवहाँ दीवाली आणा होता है) के वहाँ जाते हैं। गाँव में जितने भी घरों में दीवाली आणा होता है वहां ये पहुँचते है।गाँवों में लोग दीवाली के अगले दिन तड़के स्नान करके नए कपड़े पहनकर दीवाली आणा वाले दुल्हे के घर कीओर प्रस्थान करते है। गाँव के लोग इकट्ठे होकर गाँव में जितने भी दुल्हे हैं उनके घर-घर जाकर मेरिया (मेरजू) पूरते हैं और सामाजिक-पारिवारिक उत्सव के इस माहौल में लोग थिरकने भी लगते है।इस दौरान् सभी कीनिगाहें दुल्हन की झलक पाने को भी उत्सुक रहती हैं। दुल्हा पाँच दिवण वाला मेरिया लेकर आँगन के मध्य खड़ाहो जाता है और उसके चारो ओर अन्य आदमी खड़े रहते हैं। इसके बाद दुल्हन को लेकर युवतियां एवं औरतेंदुल्हन को घर के बाहर लेकर आती है। बाहर आते ही गाँव के युवक-युवतियां पटाखों की बौछार चालू कर देतेहैं। लजायी दुल्हन पाँच बार तेल पूरती है। इसके बाद भाग कर घर में चली जाती है। इस तरह से सुबह छहसात बजे से दस- बारह बजे तक पूरे गाँव में जितने भी दुल्हे हैं उनके घर जाकर गांव वाले तथा नाते-रिश्तेदारगीत गाते हुए मेरजू पूरते हैं।
इसके बाद अपराह्न में गांव के मुखिया या सरपंच के घर ग्रामीणों का हुजूम इकट्ठा होता है। इस स्नेह सम्मेलनमें सभी ग्रामीण एकत्र होते हैं इसमें दीवाली आणा वाले परिवार पाँच नारियल, ढाई सौ ग्राम गुड़, दो सौ ग्रामशुद्ध घी, एक किलो गेहूँ का आटा लेकर आते हैं। इन सबको मिलाकर एक बड़े तावड़े में पापड़ी तैयार की जातीहै। गाँव की सभी नई बहूएं अपनी ननदों के साथ इसमें आती हैं एवं गाँव के सभी लोगों के पगे लगती (पाँव छूती) हैं। इन बहूओं को ग्रामीण आशीर्वाद देते हैं। इसमें मेहमान भी हिस्सा लेते हैं। सभी का आदर-सत्कार होता है।स्नेह सम्मेलन में गांव के बुजुर्ग, मुखिया या सरपंच आदि के ग्रामीणों को दीवाली की शुभकामनाएं देते हुए सुख-समृद्धि भरे वर्ष की कामना करते हैं और गांव की एकता, नशामुक्ति, दहेज निषेध, फिजूलखर्ची पर अंकुश, सामुदायिक सहभागिता और सर्वसम्मत विकास का संकल्प ग्रहण किया जाता है। इस दौरान् गीत भी होते हैंइनमें ‘पोर आ दाड़ा वेला आवजु, सब नी सुखी राखजु/ढाण्डी-सोपी, कुटूम्ब-परिवारी शांति रेजु/पोर आ दाड़ावेला आवजु….की पंक्तियां दोहरायी जाती हैं। इसके बाद सभी लोगों को पापड़ी का प्रसाद दिया जाता है।पापड़ी खाकर कर राम-राम कहते हुए सभी अपने अपने घरों पर चले जाते हैं। घरों में गाय-बैल, भैंस एवं अन्यपशुओं के कडवे बांधकर रमजी की जाती है।
वागड़ में दीवाली आणे और मेरिया का उल्लास देखने लायक़ होता हैं। इनमें मेरिया पूरते वक्त गीत ‘आजदीवाली काल दीवाली परम दाड़े भाई-भाभी ने घेर दीवाली मेरजू’, हई रे काका खेखड़ी आवे घी नो दिवो लागतोआवे घी नो लाडू खाती आवे मेरजू, डूंगरपुर नो डूंगरो पूलो हगवाड़ा नो हागड़ो पूलो, वांहवारा नो वाड़ो पूलो, टामटिया नी तोड़ी ने वरदा नी ढाकणी मेरजू, घेर मय है पण बोलती नती, कपडं ही पण पेरती नती, तेल है पणपूरती नती आदि श्रृंगार गीत भी गायें जाते हैं। इस आयोजन में चारों ओर प्रकाश और आतिशबाजी के साथ हीघर और गांव का वातावरण हंसी-ठिठोली से चहकने लगता है।
वागड़ अंचल की दीवाली रस्में दाम्पत्य संबंधों की प्रगाढ़ता का संकेत तो देती ही हैं सामुदायिक सौहार्द के साथउत्सवी उल्लास का ज्वार भी उमेड़ती हैं।
बदलते समय के साथ कालान्तर में शहरों और देहातों में पर्वों को मनाने के पारंपरिक तरीकों में भी कई बदलावआए है , लेकिन वागड़ अंचल में दीपावली का त्यौहार मनाने की विशिष्ट और अनूठी परंपराएं और रवायतें आजभी कायम हैं, जो जगमग ज्योति पर्व को खास बना देती हैं। इस प्रकार डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिलों में फैलेवागड़ क्षेत्र में दीपावली के पर्व पर दिवाली आणा (गौना) और मेरियू पुराने (विशेष प्रकार के मिट्टी से बने दीपकमें तेल पुरवाना) की विशिष्ट परंपरा है, जो वागड़ की दिवाली को देश के अन्य हिस्सों से अलग पहचान देती है।