गोविन्द ठाकुर
‘अध्यक्ष खड़गे से साथ कार्यकारी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को लगाना कांग्रेस के हित में होगा.. सवाल है,..क्या इससे पार्टी में पावर सेंटर नहीं बनेंगे….अगर कार्यकारी या उपाध्यक्ष नही होंगे तो क्या 80 साल के खड़गे इतनी बड़ी चुनौति को सफल कर पायेंगे…क्या कांग्रेस को 2024 में सत्ता के दहलीज तक ले जायेंगे.. तो क्या कांग्रेस दोधारी तलवार पर चलेगी…”
मल्लिकार्जून खड़गे ने कांग्रेस की कमान संभाल ली है और अब वे पार्टी को नई दिशा देने के लिए नये प्रयोगों पर विचार करना भी शुरु कर दिया है। जिसमें संगठन की मजबूती के लिए फेरबदल, चुनावी रणनीति और विपक्षी दलों को अपने खेमे में लाना प्रमुख है। संगठन में मजबूती के लिए केन्द्रीय टीम जिसमें महासचिवों , सचिवों, प्रभारियों के काम काजों की समिक्षा के साथ उनके पदों में बदलाव लाना है। यही सिलसिला राज्यों में भी लागू हो सकता है जो जिला स्तरों तक जायेगा। खड़गे ने अपनी शुरुआती भाषण में भी कहा था कि वे युवाओं को संगठन में 50 फीसदी जगह देंगे तो मना जा रहा है कि राहुल गांधी के ही नक्से कदम पर खड़गे अपनी कार्यसीमा तय करेंगे।
चुनावी रणनीति के तौर पर देखें तो सबसे बड़ा मुददा है- क्या कांग्रेस 2024 में अकेले ही चुनाव लड़ेगी या फिर अपने साझेदारों के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी या फिर समुचे संभावित विपक्ष को अपने साथ जोर कर चुनाव लड़ेगी। सूत्रों की माने तो कांग्रेस खड़गे के आने के बाद अपनी पुरानी वोट बैंक की ओर लौटना चाह रही है जिसमें अगड़ी जाति खासकर ब्रम्हण, दलित और मुस्लिम होगा। कांग्रेस इसे देखते हुए ही विपक्षी दलों को साथ करेगी। जिसमें अभी जो यूपीए है वह शामिल है। मगर मात्र इसी से काम नहीं चलेगा, खड़गे को दुसरे जो अभी साथ नहीं हो उसे भी जोड़ना पड़ेगा जिसमें ममता बनर्जी, केसी राव होंगे। हां आरविंद केजरीवाल को कांग्रेस अलग करके ही चलेगी क्योंकि उनकी नीति कांग्रेस को ही नुकसान करने की है। वैसे नुकसान तो ममता बनर्जी भी कर रही है मगर वह बंगाल तक ही सीमित हैं केजरीवाल अखिल भारतीय स्तर पर नुकसान दायक हैं। फिर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का चेहरा भी विपक्ष से मनमाना है।
अब इतने सारे चुनौतियां है क्या एक 80 साल का बृद्ध इसे अंजाम दे सकते हैं- मुश्किल होगा इसके लिए खड़गे के साथ दो उपाध्यक्ष या कार्यकारी अध्यक्ष साथ देना ही चाहिए। सूत्र बताते हैं कि पार्टी खड़गे के साथ यह फार्मूला लागी कर सकती है। इससे पहले राहुल गांधी भी सोनिया गांधी के साथ उपाध्यक्ष का पद निभा चुके हैं। अर्जून सिंह और जितेंद्र सिंह भी उपाध्यक्ष रह चुके हैं। वैसे हाल फिलहाल में देखें तो राज्यों में भी अध्यक्ष के साथ साथ दो या अधिक कार्यकारी अध्यक्ष काम कर रहे हैं। मगर खड़गे के साथ यह फार्मूला कितना कारगर होगा यह कहना जल्दबाजी होगा। पार्टी के लिए जोखिम भरा कदम हो सकता है कि कई सारे पावर सेंटर बन जायेंगे। वैसे भी पहले से चार पावर सेंटर काम कर रहे हैं पहला सोनिया गांधी भले ही अध्यक्ष नहीं रहे मगर कांग्रेस के वही आलाकमान की भूमिका में होंगी। दुसरा राहुल गांधी पार्टी के अब सर्वोच्य नेता बन गये हैं इनका सबसे बड़ा पावर सेंटर है, वैसे भा सारे तामझाम राहुल के लिए ही तो है। तीसरा प्रिंयका गाधी बाडरा की है तो चौथा खुद खड़गे का होनेवाला है। कमसे कम राज्यों में तो जरुर रहेगा।
राजनीति को समझने वालों में कानाफूसी हो रही है कि खड़ेगे के साथ अगर दिग्यविजय सिंह या फिर चिदांबरम या फिर आनंद शर्मा को कार्यकारी बना दिया जाये तो क्या खड़गे खुद को सहज महशुश करेंगे एक सवाल तो है। क्या ये गांधी परिवार के नजदीकी का हवाला देकर अपना पावर सेंटर नहीं बना लेंगे। इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो यही इशारा कर रही है । पार्टी के हितैषियों का कहना है कि अगर कार्यकारी या उपाध्यक्ष की जरुरत पड़े भी तो किसी युवाओं को मौका देना चाहिए अन्ययथा गांधी परिवार पर उंगली उठेगी कि खड़गे रबर स्टॉप हैं।