शिशिर शुक्ला
सन 1930 वह सौभाग्यपूर्ण वर्ष था, जब प्रथम बार किसी भारतीय भौतिकविद ने विश्व के सर्वोच्च माने जाने वाले पुरस्कार ‘नोबेल’ पर अपना अधिकार सिद्ध किया था। वैश्विक पटल पर भौतिकी के क्षेत्र में भारत का डंका बजाने वाला यह महामानव और कोई नहीं बल्कि सर चंद्रशेखर वेंकटरमन थे। विज्ञान की किसी भी शाखा में नोबेल पुरस्कार पाने वाले वे प्रथम एशियाई व्यक्ति थे। 1901 से अब तक भौतिकी का नोबेल पुरस्कार केवल दो बार (वर्ष 1930 एवं 1983) भारतवर्ष के खाते में आया है। सर सी. वी. रमन ने भौतिकी के एक अति महत्वपूर्ण क्षेत्र ‘प्रकाश’ की प्रकृति को अपने प्रयोग के माध्यम से परिभाषित करते हुए नोबेल पुरस्कार को भारत के खाते में खींच लिया।
7 नवंबर 1988 को तिरुचिरापल्ली (ब्रिटिश शासन में मद्रास प्रेसिडेंसी एवं वर्तमान में तमिलनाडु में) में एक गरीब तमिल ब्राह्मण परिवार में जन्मे चंद्रशेखर वेंकटरमन को भौतिकी के प्रति अगाध रुचि विरासत में प्राप्त हुई थी। उनके पिता चंद्रशेखर रामनाथन अय्यर एक स्थानीय हाई स्कूल में भौतिकी एवं गणित के शिक्षक थे। मामूली आय अर्जित करने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति तो बहुत अच्छी नहीं थी किंतु चंद्रशेखर वेंकटरमन की भौतिकी में गहरी रूचि एवं असाधारण मेधा व प्रतिभा उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देने हेतु पर्याप्त थी। यह उनकी असाधारण मेधा का ही परिणाम था कि मात्र 11 वर्ष की आयु में उन्होंने हाईस्कूल एवं 13 वर्ष की आयु में इंटरमीडिएट स्तर की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। 16 वर्ष की उम्र में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक डिग्री की परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान हासिल किया, साथ ही साथ भौतिकी एवं अंग्रेजी विषयों में स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया। स्नातक के दौरान ही 1906 में प्रकाश के विवर्तन का अध्ययन करते हुए उन्होंने अपने शोध को ब्रिटिश जर्नल ‘फिलोसोफिकल मैगजीन’ में प्रकाशित करने में सफलता प्राप्त की। इसी शोधपत्र के माध्यम से उनको परास्नातक की डिग्री भी प्राप्त हुई। 1917 में उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय में भौतिकी का पहला पालित प्रोफेसर नियुक्त किया गया। 19 वर्ष की आयु में रमन, भारतीय वित्त सेवा में चयनोपरांत कोलकाता में महालेखाकार पद पर कार्य करने लगे किंतु उनके मस्तिष्क में तो भौतिकी का कीड़ा लग चुका था। नतीजतन उन्होंने भौतिकी में शोध का प्रयास युद्ध स्तर पर जारी रखा। कुछ समय पश्चात ‘इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस’, जो भारत का प्रथम शोध संस्थान था, के द्वारा रमन को स्वतंत्र शोध की अनुमति प्रदान कर दी गई। ‘इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन आफ साइंस’ का प्रथम लेख ‘न्यूटन रिंग्स इन पोलराइज्ड लाइट’ सर सी. वी. रमन के द्वारा ही लिखित था।
यूरोप की पहली यात्रा के दौरान उन्होंने भूमध्यसागर के जल के नीले रंग को देखा। समुद्र का नीला रंग ही वस्तुतः वह कारण था जिसने रमन को शोध के क्षेत्र में एक नई दिशा की ओर प्रेरित किया। स्वयं के द्वारा विकसित एक स्पेक्ट्रोग्राफ की सहायता से विश्लेषणोपरांत, नवंबर 1921 में ‘नेचर’ जर्नल में ‘द कलर ऑफ द सी’ शीर्षक से उन्होंने एक शोध पत्र प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने बताया कि नीले रंग हेतु प्रकाश का प्रकीर्णन उत्तरदायी है। विभिन्न पारदर्शी माध्यमों द्वारा प्रकीर्णित प्रकाश का अध्ययन करने पर उन्होंने पाया कि प्रकीर्णित प्रकाश में मूल आवृत्ति के साथ-साथ परिवर्तित आवृत्ति भी पाई जाती है। उनके इस शोध ने विश्व स्तर पर तहलका मचा दिया एवं भौतिकी में “रमन प्रभाव” के नाम से प्रसिद्धि पाकर भारत को नोबेल तक पहुंचाया। रमन की रूचि केवल प्रकाश में ही नहीं थी, ध्वनिकी के क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक वैज्ञानिक शोध किए। संगीतमय ध्वनियों का विश्लेषण, तबला एवं मृदंग की ध्वनियों की प्रकृति का सन्नादीय विश्लेषण एवं भारतीय ढोल पर वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे। 28 फरवरी 1928 को रमन प्रभाव के रूप में उनका शोध, प्रकाश की क्वांटम प्रकृति का एक प्रमुख प्रमाण है। रमन प्रभाव की सहायता से विभिन्न पदार्थों की आणविक संरचना का बहुत आसानी से पता लगाया जा सकता है। उनके शोध कार्य एवं उपलब्धियों से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ एवं रॉयल सोसाइटी ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि दी। 1954 में भारत सरकार ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सर सी. वी. रमन को विभूषित किया। 1926 में सर सी. वी. रमन ने ‘इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स’ की स्थापना की एवं 1933 में वे भारतीय विज्ञान संस्थान के पहले भारतीय निदेशक बने। 1948 में उन्होंने ‘रमन शोध संस्थान’ की स्थापना की एवं अपने जीवन के अंत तक वहीं कार्यरत रहे। 21 नवंबर 1970 को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। भारत सरकार के डाकतार विभाग ने उनकी पुण्यतिथि पर एक डाक टिकट जारी किया था। निस्संदेह, सर सी. वी. रमन भौतिकी के लिए किसी दिव्यपुरुष से कम न थे। उनके द्वारा रमन प्रभाव के रूप में भौतिकी जगत को दिया गया शोधवरदान अनंत काल तक हम सब के लिए उपयोगी रहेगा।