डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बलात्कार और हत्या के अपराधियों को जिस तरह हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने बरी कर दिया है, उनके इस फैसले ने हमारी न्याय-व्यवस्था, शासन-प्रशासन और देश की इज्जत को काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। 2012 में दिल्ली के छावला क्षेत्र में एक 19 वर्षीय लड़की के साथ तीन लोगों ने मिलकर बलात्कार किया, पीट-पीटकर उसके अंग-भंग किए और उसकी लाश को ठिकाने लगा दिया। वे पकड़े गए। निचली अदालत और दिल्ली उच्च-न्यायालय ने उन्हें मौत की सजा सुनाई। पिछले लगभग नौ साल से वे जेल काट रहे थे, क्योंकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका लगा रखी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें यह कहकर बरी कर दिया है कि उनके विरुद्ध न तो पुलिस ने पर्याप्त प्रमाण जुटाए हैं और न ही निचली अदालतों में गवाहों की परीक्षा ठीक से की गई है। निचली अदालतों के फैसलों को रद्द करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को जरुर है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के लगभग आधा दर्जन ऐसे फैसलों की जानकारी मुझे है, जिन्हें बाद में इसी न्यायालय ने रद्द कर दिया है। इसीलिए इस मामले में इस फैसले को अंतिम और उत्तम मान लेने का कोई कारण नहीं है। इस पर देश के प्रबुद्ध लोगों को सवाल जरुर उठाने चाहिए। पहला सवाल तो यही है कि इस फैसले का निष्कर्ष क्या है? क्या इसका निष्कर्ष यह है कि जब कोई दोषी ही नहीं है तो दोष हुआ है, यह कैसे माना जाए? याने बलात्कार और हत्या जैसे कुकर्म हुए ही नहीं हैं तो क्या उस लड़की को उसके माँ-बाप ने खुद ही मारकर आग के हवाले कर दिया था? क्या उस लड़की ने अपने अंगों और गुप्तांगों को खुद ही भंग कर लिया था? क्या उसने अपनी हत्या भी खुद ही कर ली थी? यदि यह सही है तो फिर पिछले नौ साल से जेलखाने में सड़ रहे उन तीनों सज्जनों की पीड़ा के लिए जिम्मेदार कौन है? उन पुलिसवालों और उन जजों को कौनसी सजा दी गई है, जिन्होंने उनके खिलाफ झूठी जांच की है और गलत फैसला दिया है? क्या सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने भारत की पुलिस और न्यायपालिका की भद्द पीटकर नहीं रख दी है? 10 साल तक कोई मुकदमा चलता रहे और संभावित मुजरिम जेल में मुफ्त के मेहमान बने रहें, क्या यह देश के करदाताओं पर जुल्म नहीं है? यह मामला इतना गंभीर है कि इसकी दुबारा जांच की जानी चाहिए और अदालत को इस पर दुबारा विचार करना चाहिए, जैसे कि जेसिका लाल की हत्या के बारे में हुआ था। इस मुकदमे ने यह बुनियादी सवाल भी हमारे देश के नेताओं के सामने खड़ा कर दिया है कि भारत में कानून की पढ़ाई और अदालती फैसले क्या उसी तरह से अब भी होते रहेंगे, जैसे कि वे गुलामी के ब्रिटिश ज़माने में होते रहे थे? हमें अपनी मौलिक और स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था खड़ी करनी होगी, जिसमें फैसले तुरंत हो और सचमुच न्यायपूर्ण हों।