हरिहर रघुवंशी
विदेशी आक्रान्ताओं के भारत में प्रवेश के उपरांत देश में लूटपाट और तलवार की नोक पर ज़बरन धर्म परिवर्तन करने के साथ जो सबसे ज़्यादा क्षति पहुँचाई गई वह मंदिरों को तो उड़कर हिन्दू साम्राज्य को चुनौती दी गई। भारत में हिंदुत्व की शुरुआत बंगाल से मानी जाती है जहाँ बंकिम चन्द्र चैटर्जी जैसे लेखक पैदा हुए और देश को बंदे मातरम् दिया, लेकिन मौजूदा हालात में हिंदुत्व की सबसे दयनीय स्थिति बंगाल में ही देखी जा सकती है। हालाँकि आज़ाद भारत में वीर सावरकर को हिन्दुत्वा का जनक माना जाता है क्योंकि आज़ादी से पहले मुस्लिम लीग की स्थापना के 6 वर्ष बाद ही 1915 में वीर सावरकर ने पहली बार हिन्दू महासभा की स्थापना करके हिन्दुओं को जागृत करने का प्रयास किया।वीर सावरकर को लेकर आज तमाम राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों द्वारा अलग अलग तथ्य प्रस्तुत करके राजनीतिक लाभ लेने की होड़ लगी है। लेकिन हिन्दू समाज के लिए पी सावरकर के योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। मौजूदा समय में भारतवंशियों और हिंदुत्व का ढंका दुनिया के बड़े देशों में बजने लगा है। हिन्दुत्व के प्रबल समर्थक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक इसके बड़े उदाहरण कहे जा सकते हैं। यही नहीं अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस, मॉरीशस के प्रधानमंत्री पर प्रविंद जगन्नाथ, सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी जैसे नेताओं ने हिन्दुस्तान का डंका पूरी दुनिया में बचा रखा है। वर्तमान समय में विश्व के दर्जनों बड़े देशों में हिंदुत्व और सनातन संस्कृति को मानने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि होने लगी है जो हिन्दुत्व को स्वर्णिम कालखंड की ओर ले जा रहा है। लेकिन देश से बाहर के हिंदुत्व और देश के अंदर हिन्दुत्व को मानने वालों में एक बेसिक फ़र्क है। दुनिया भर में फैले भारतवंशी हिंदुत्व को आस्था की दृष्टि से देखते हैं और मानते भी हैं लेकिन भारत में अपने हिंदू होने का प्रचार करने वालों की होड़ सी लगी है और जब से राजनीतिक क्षेत्र में हिंदुत्व को एजेंडे के तौर पर लिया जाने लगा है तब से भारत में हिन्दुत्व दिखावा की चीज़ ज़्यादा बनती जा रही है। राजनीतिक दलों से संबंध रखने वाले नेता जब चुनाव आता है तो कभी जनेऊ धारण कर के अपने असली हिन्दू होने का दिखावा करते हैं तो कभी माँ वैष्णव की अस्तुति करते हैं तो कभी हनुमान चालीसा पढ़ने का ढोंग करते हैं। ऐसे नेताओं ने हिन्दुत्व को कमज़ोर करने का काम किया है। क्योंकि इनके लिए हिंदुत्व आस्था का विषय नहीं है।यह तो अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए नक़ली हिंदू बनकर हिंदुत्व का राजनीतिक इस्तेमाल करने की मंशा रखते हैं।यह कितने सफल होते हैं या नहीं होते हैं,यह अलग विषय है, लेकिन इनकी मंशा हिन्दुत्व को लेकर बिलकुल भी साफ़ नहीं है। यही कारण है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी देश में चार लाख से अधिक मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की लड़ाई आज भी विश्व हिन्दू परिषद को लड़नीं पड़ रही है।यह बेहद दिलचस्प है कि जब अंग्रेजों का भारत पर नियंत्रण हुआ तब उन्होंने मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में इसलिए ले लिया जिससे हिन्दू आर्थिक रूप से कमज़ोर रहे और उनके खिलाफ़ कोई आंदोलन शुरू न करें।लेकिन बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के 70 साल गुज़र जाने के बाद भी मंदिरों और मठों को नियंत्रित करने के लिए आज भी 35 क़ानून बनाए गए हैं जो संविधान सम्मत नहीं हैं फिर भी कोई राज्य सरकार मंदिरों और मठों के सरकारी नियंत्रण की पक्षधर इसलिए नहीं रही क्योंकि उनसे उन्हें हज़ारों करोड़ का लाभ होता है। जबकि दूसरी तरफ़ मस्जिदों,मज़ारों, चर्चों दरगाहों को नियंत्रित करने के लिए एक भी क़ानून नही है और न ही इनसे सरकार को कोई पैसा मिलता है। लेकिन कमज़ोर राजनीतिक इच्छा शक्ति के कारण यह दोहरा मापदंड सात दशकों से हिन्दू समाज झेल रहा है।विश्व हिंदू परिषद का तर्क है कि मंदिरों को संचालित करने वाली कमेटियों में ग़ैर हिन्दुओं को रखा जाता है जिसके कारण मंदिरों से होने वाले अनुदान से हिंदुओं के ख़िलाफ़ ही गतिविधियों का संचालन होता है इसलिए मंदिरों और मठों से सरकारी नियंत्रण को ख़त्म किया जाए और इनको संचालित करने वाली समितियों का पुनर्गठन किया जाए।हालाँकि 1950 से मंदिरों और मठों के सरकारीकरण से मुक्ति दिलाने की आवाज़ उठायी जाती रही है लेकिन तत्कालीन सरकारों ने न तो हिन्दुओं की आवाज़ सुनी और ना ही ऐसी माँगों को मुखर होने दिया।क्योंकि इससे राज्य सरकारों को भी फ़ायदा था और राजनीतिज्ञों को भी सीधा लाभ था। कई मंदिरों और मठों में तो बड़े राजनीतिक घरानों की सीधी दख़लअंदाज़ी है इसलिए दोहरे फ़ायदे के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ को किसी ने नहीं सुना। लेकिन केंद्र में जब से नरेन्द्र मोदी सत्ता पर आसीन हुए हैं तब से हिंदुओं में एक विश्वास जागृत हुआ है कि एक दिन लाखों मंदिरों से सरकारी नियंत्रण हट जाएगा और इन मठों और मंदिरों की अकूत संपत्तियों का इस्तेमाल हिंदुत्व को मज़बूत करने पर ख़र्च किया जाएगा और तभी देश सम्पूर्ण हिन्दू राष्ट्र बन पाएगा।
सीता राम गुप्ता ने अपनी किताब “हिन्दू टेम्पल हाव्ट हैपेंड टू देम”में हज़ारों मन्दिरों को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रमाण सहित विवरण दिया गया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दोबारा उसकी पुनरावृत्ति की जाए। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद से धार्मिक आस्थाओं से जुड़े स्थलों को राजनीतिक एजेंडे की कसौटी पर कसे जाने का दौर शुरू हो गया था। इसके बाद हर राजनीतिक दल अपने लाभ और हानि का अंकगणित लगाकर उसका राजनीतिक लाभ लेने का हर संभव प्रयास करने लगा।राजनीति में धर्म की दखलंदाजी लगातार बढ़ती गई। 9 नवंबर 2019 को पाँच जजों की बेंच द्वारा वर्षों से विवादित रामजन्म भूमि का ऐतिहासिक फ़ैसला सुना दिया तो एक बार ऐसा लगा कि देश में भूचाल आ जाएगा।लेकिन राजनीतिक दृढ़ संकल्प के चलते ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर भी काशी,मथुरा जैसे धार्मिक आस्था के स्थलों को राजनीतिक एजेंडे पर लिया जाने लग और ये हिन्दुओं की सैकड़ों साल दबी सोच का नतीजा था, क्योंकि बरसों बाद सनातन संस्कृति में आस्था रखने वाले लोगों को यह लगने लगा कि उनकी पहचान पाने का समय आ गया है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आनेवाले समय में देश में विकास के साथ धार्मिक आस्था के केंद्रों को चुनावी मुद्दा बनाया जाता रहेगा। दक्षिण भारत में मठों और बड़े धार्मिक स्थलों की भूमिका लंबे समय से राजनीति में होती रही है लेकिन उत्तर भारत में यह दखलंदाजी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से ज़ोर पकड़ना शुरू कर दिया। क्योंकि केंद्र की राजनीति में उत्तर भारत हमेशा से देश को प्रधानमंत्री देता रहा है इसलिए पूरे देश में एक ऐसा माहौल निर्मित होने लगा की राजनीति में साधू संतों का वर्चस्व बढ़ रहा है, लेकिन इसे पूरी तरह सही नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ये 2014 के बाद से दिखाई देने लगा है लेकिन इसका राजनीतिक इस्तेमाल आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस ने शुरू कर दिया था। आज़ादी के बाद राजीव गांधी को बाबरी मस्जिद विवाद के जन्मदाता के रूप में देखा जाता रहा है।मौजूदा परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक दलों को ऐसा लगने लगा है कि धर्म की मिट्टी से राजनीतिक उपज को बढ़ाया जा सकता है इसलिए कई राजनीतिक दल के बड़े नेताओं ने जो लगातार राम मंदिर बनाने का विरोध कर रहे थे उन्होंने अपना चोला बदला और चुनावी हिंदू बन कर लोगों को ठगने का काम भी शुरू कर दिया। राहुल गांधी, अखिलेश यादव और केजरीवाल जैसे नेताओं ने अपनी पिच को छोड़कर सॉफ़्ट हिंदू बनकर लोगों को भ्रम जाल में डालने की समय समय पर भरपूर कोशिश करते रहे हैं।ऐसे नेताओं को लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे की मूल पिच पर आकर धुआँधार बैटिंग करने से उनको राजनैतिक लाभ मिलेगा,लेकिन संघ द्वारा निर्मित हिन्दुत्ववादी पिच पर बैटिंग करके कोई राजनीतिक दल अभी तक लाभ नहीं उठा सका है। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद मतदाताओं की मेमोरी को कमज़ोर समझने वाले इन नेताओं की चुनावों में कोई दाल नहीं गली और लौट कर बुद्धू घर को आए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा काशी कॉरिडोर और महाकाल कॉरिडोर के लोकार्पण के बाद राजनीतिक पंडितों ने आगामी रणनीति को लेकर मंथन चिंतन शुरू कर दिया। सबके अपने अपने तर्क हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी बिना इसकी परवाह किए अनवरत अपने मिशन को जारी रखा। हालाँकि मीडिया की सुर्ख़ीयों में यह दो ही कॉरिडोर चमकते रहे हैं,लेकिन प्रधानमंत्री ने संत तुका राम मंदिर का उद्घाटन किया, केदारनाथ धाम का कायाकल्प किया। केदारनाथ-बद्रीनाथ की यमुनोत्री-गंगोत्री की चारधाम यात्रा को अमली जामा पहनाकर सनातन संस्कृति में आस्था रखने वालों को बड़ा संदेश देने का काम किया।मोदी जी यहीं नहीं रुके, गुजरात के पंचमहल ज़िले की प्रसिद्ध पावागढ़ काली मंदिर पर पताका फ़हरा कर मंदिर को पुनः विकसित करके उसका उद्घाटन भी किया।ऐसा लगता है कि यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में आम धारणा रही है कि भारतीय जनता पार्टी ने अयोध्या मुद्दे का राजनीतिकरण कर इसका राजनीतिक लाभ लेती रही है। समय गुज़रता गया, चुनाव होते रहे और भाजपा की राजनीतिक ताक़त बढ़ती रही। इसी के साथ भारतीय जनता पार्टी के ऊपर हिन्दुत्ववादी होने का ठप्पा गहरा होता गया, लेकिन यदि यही पूरी तरह से सही होता तो शिवसेना जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने ख़ुद को हिंदू वादी घोषित करने का पुरज़ोर प्रयास किया लेकिन उनका कोई भी राजनीतिक बिस्तार नहीं हो सका।समय-समय पर कई नेताओं ने भी ख़ुद को हिन्दूवादी और राष्ट्रवादी होने की चादर ओढ़कर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की लेकिन किसी को भी कामयाबी नहीं मिल सकी।आज भी भारतीय जनता पार्टी के विरोधी दलों का यह दुष्प्रचार करने की कोशिश रहती है कि भारतीय जनता पार्टी मंदिरों और राष्ट्रवाद के सहारे आगे बढ़ रही है लेकिन इन विरोधियों को यह दिखाई नहीं देता कि भारतीय जनता पार्टी 18 करोड़ लोगों को संगठन से जोड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी यूँ ही नहीं बन गई।बल्कि उसने ख़ुद को लोगों से जोड़ने के साथ उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए धरातल पर जाकर काम भी किया और दक्षिण भारत में अपने विस्तार में दिन रात एक किए हुए है। ख़ुद में सिमट रहे इन राजनीतिक दलों के प्रबंधकों को आलोचना की हठधर्मिता छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी की कार्यप्रणाली से सीखने की ज़रूरत है।