अमित कुमार अम्बष्ट ” आमिली “
राजनीति में एक कुशल राजनीतिज्ञ वही होता है जिसमें राज करने हेतु निति निर्धारण का कौशल हो यानी वह जो उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला जानता हो ।अगर सीधे शब्दो में कहें तो नीति विशेष के द्वारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना ही राजनीति कहलाती है और जो ऐसा कर पाता है वही राजनीति का सिकंदर होता है ।
निति निर्धारण में कूटनीति का भी बहुत महत्व है , क्योंकि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें नीति या योजना निर्माण कर विरोधी पक्ष से अपनी बात मनवाई जाती हैं। भारत की राजनीति में कूटनीति के गुरु के रूप में चाणक्य को स्वीकार किया जाता हैं। उन्हें कूटनीति के पिता के रूप में स्वीकार किया जाता हैं। भारतीय कूटनीति के जनक चाणक्य ने कूटनीति के 4 सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था – साम, दाम, दण्ड, भेद अर्थात समझाना, प्रलोभन देना, शक्ति दिखाना तथा फूट डालना , इस दृष्टि से अगर वर्तमान की भारतीय राजनीति पर गौर करें तो भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बड़ा कोई राजनीतिज्ञ नजर नहीं आता है लेकिन अगर विपक्षी दलों की बात करें तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी में वो कूबत दिखती है कि वो नरेन्द्र मोदी को टक्कर दे सके क्योंकि ऐसा पहले भी उन्होंने कई बार साबित किया है । खासकर पश्चिम बंगाल में नरेन्द्र मोदी अपनी राजनीतिक सुझबुझ से कांग्रेस और वामपंथी दलों को हासिए पर भेजकर भाजपा को प्रमुख विपक्षी दल बनाने में सफल जरूर हुए हैं , लेकिन , अब तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की सरकार को पटकनी देने में सफल नहीं हुए हैं , पिछले कई वर्षों से दोनों की बीच रस्साकशी किसी से छुपी नहीं है ,लेकिन जब ये दोनों नेता आपस में मिलते हैं तो अदब और अभिवादन की कमी कभी नहीं झलकती, ऐसे में पिछले कुछ वर्षों के दोनों ही नेताओं के खासकर पश्चिम बंगाल की राजनीतिक उठापटक या कूटनीति पर नजर डाले तो या फिर विश्लेषण करें तो पश्चिम बंगाल की वर्तमान राजनीति को बहुत आसानी से समझा जा सकता है ।
वर्ष 2019 के चुनाव के पहले ही भाजपा की नजर बंगाल पर थी , भाजपा चुकी बंगाल से सटे हुए राज्यों में सत्ता में थी , इसलिए उसे यकीन था कि उसे पश्चिम बंगाल में भी सफलता मिल सकती है , पश्चिम बंगाल में हिन्दी भाषी लोगों का 70 – 80 विधानसभा सीटों पर निर्णायक की भूमिका में होना भी भाजपा को प्रोत्साहित कर रहा था , शायद इसलिए भाजपा के लिए काम करने वाले आर एस एस जैसे संगठन पश्चिम बंगाल में तब से ही काफी सक्रिय थे , जिसका लाभ शुरुआती दौड़ में भाजपा को संगठन निर्माण में मिला , इसका ही परिणाम था कि भाजपा को पहली बार 2019 की लोकसभा चुनाव में 18 सीटें मिली , जो भाजपा को बेहद उत्साहित करने वाला था , इसके बाद भाजपा की नजर अब विधानसभा चुनाव और पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने पर थी , लेकिन विगत विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल में भाजपा ने अपनी संगठनात्मक बुनियाद मजबूत करने और अपने कार्यकर्ताओं को तरजीह देने के बदले तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेताओं को तोड़कर भाजपा में लाने की रणनीति पर काम किया , शुरुआत में बहुत हद तक भाजपा को इसमें सफलता भी मिली लेकिन यह रणनीति बाद में भाजपा के लिए हानिकारक साबित हुई , एक समय में ममता बनर्जी के दाहिने हाथ माने जाने वाले मुकुल राय ने सबसे पहले भाजपा का दामन थामा था , उन्हें भाजपा ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर पार्टी में उनकी महत्ता जाहिर की थी , मुकुल राय के बाद लगातार अर्जुन सिंह , सुभेंदु अधिकारी , पार्थ चटर्जी , बिस्वजीत दास जैसे कई नेता ने तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया , लेकिन भाजपा , तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए नेताओं का भी विश्वास जीतने में असफल रही , खासकर मुकुल राय जैसे चेहरे का जब भाजपा को साथ मिला तो ऐसा महसूस होने लगा कि बंगाल में भाजपा के पास एक ऐसा चेहरा और रणनीतिकार उपलब्ध हो गया है , जिसके दम पर पार्टी बुनियादी संरचना को मजबूत कर पाएगी और जिन मतदाताओं का मोह तृणमूल कांग्रेस से भंग हो रहा था , उसे अपने कैडर वोट में तब्दील कर पाएगी , जिस तरह से 2019 के लोक सभा चुनाव में मुकुल राय को तरजीह दी गयी थी , ऐसा महसूस होता था कि शायद बंगाल में भाजपा मुकुल राय को ही अपना चेहरा बनाएगी ,लेकिन 2021 विधानसभा चुनाव में सीनियर होने के बावजूद शुभेंदु अधिकारी का कद पार्टी में बढता चला गया , राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के बावजूद मुकुल राय कहीं न कहीं खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे , इतना ही नहीं उन्हें साइडलाईन करने हेतु विधायक का चुनाव लड़ने के लिए कहा गया , वहीं दूसरी तरफ पार्टी छोड़ने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस व्यकिगत रूप से मुकुल राय से जुड़ी रही, अपनी आत्म सम्मान को ठेस लगते देख मुकुल राय वापस तृणमूल कांग्रेस में न सिर्फ स्वयं शामिल हुए , उनके साथ भाजपा के चार विधायक ने भी तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया , मुकुल राय का तृणमूल कांग्रेस में यह कहते हुए वापस जाना कि भाजपा में बहुत घुटन महसूस कर रहा था , भाजपा को संगठनात्मक झटका तो दे ही गया साथ ही साथ जनता में भी भाजपा के प्रति इसका बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ा । इतना ही नहीं भाजपा से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करने वाले प्रसिद्ध गायक बाबुल सुप्रियो भी भाजपा का दामन छोड़ तृणमूल कांग्रेस से चुनाव लड़ा और विधायक चुने गए ।
कुल मिलाकर देखे तो पश्चिम बंगाल में भाजपा जहाँ तृणमूल कांग्रेस को तोड़कर अपनी पार्टी मजबूत करने की नकारात्मक राजनीति में उलझी रही वहीं ममता बनर्जी की कोशिश रही कि पार्टी से दूर होते नेताओं को मनाकर फिर से साथ जोड़ा जाए , इस सकारात्मक सोच में ममता बनर्जी न सिर्फ सफल रहीं अपितु भाजपा के संगठनात्मक संरचना पश्चिम बंगाल में बेहद कमजोर हो गयी । अगर पिछले विधान सभा चुनाव से लेकर अब तक की राजनीति पर नजर डाले तो तकरीबन सभी वरिष्ठ तृणमूल कांग्रेस के नेता जो भाजपा में शामिल हुए थे उनकी तृणमूल कांग्रेस में घर वापसी हो चुकी है ।
पश्चिम बंगाल विपक्षी दल के नेता शुभेंदु अधिकारी इकलौते ऐसे नेता है जिसने भाजपा का दामन अब तक थाम के रखा है और ममता बनर्जी विरोध का बिगुल संजीदगी से बजा रहें हैं , ऐसे में कहीं न कहीं कूटनीति की माहिर ममता बनर्जी की नजर शुभेंदु अधिकारी पर ही है , क्योंकि अगर शुभेंदु अधिकारी भी घर वापसी कर लें तो यह पश्चिम बंगाल भाजपा के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा। यही कारण रहा कि शीतकालीन सत्र के दौरान नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चाय का आमंत्रण दिया। सौजन्य और सद्भावना भरे आमंत्रण को नेता प्रतिपक्ष मना नहीं कर पाए और अपने साथ विधायक अग्निमित्रा पॉल, अशोक लाहिड़ी और मनोज टिग्गा को लेकर मुख्यमंत्री के कक्ष में गए , अगर कूटनीति की दृष्टि से देखे तो ममता बनर्जी की यह अद्भुत कोशिश थी , उन्होंने कहा कि वो शुभेंदु अधिकारी को भाई मानती हैं और नंदीग्राम में उनकी लड़ाई व्यक्तिगत नहीं राजनीतिक और वैचारिक थी , ममता बनर्जी के इस कदम से निश्चित रूप से जनता में ममता बनर्जी के प्रति एक सकारात्मक संदेश जरूर गया और निश्चित रूप से शुभेंदु अधिकारी भी व्यक्तिगत तौर पर नरम पड़े जब उन्होंने ममता बनर्जी को पाँव छूकर प्रणाम किया ।
हालांकि शुभेंदु अधिकारी भी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं उनको पता था कि इस मुलाकात के बाद कई कयास लगाए जाएंगे , इसलिए वे आमंत्रण पर अकेले नहीं गए अपितु तीन अन्य विधायकों के साथ गए और मुलाकात के समाप्ति के बाद यह कहकर अपनी मंशा जाहिर कर दी की मुझें मुख्यमंत्री ने चाय पर आमंत्रित किया था लेकिन मैने चाय नहीं पी ।
इतना ही नहीं इस मुलाकात के बाद अपने – अपने जनसभा को संबोधित करते हुए अभिषेक बनर्जी एवं शुभेंदु अधिकारी ने भी एक दूसरे पर भरपूर प्रहार करने से गुरेज नहीं किया । ऐसे मे कुल मिलाकर कह सकते है कि ममता बनर्जी की इस शानदार कोशिश के बावजूद चाय पर अब तक तो बात नहीं बनी है लेकिन यह राजनीति है यहाँ असंभव कुछ भी नहीं होता है ।