संदीप ठाकुर
प्रजातंत्र में जनता का जागरूक हाेना बेहद जरूरी है। जनता जागरूक हाे ताे
नेताओं काे झुकना ही पड़ता है। मामला दिल्ली नगर निगम चुनाव से जुड़ा है।
तीन नेताओं ने चुनाव में जीत एक पार्टी से दर्ज कराई और सत्ता सुख भोगने
के लिए दूसरी पार्टी में चले गए। फिर क्या था क्षेत्र की जनता एकजुट हाे
गई और नेताओं के घर पर धावा बोल दिया। जनता का कहना था कि जीत के बाद
नेता पार्टी नहीं बदल सकता है क्योंकि उन्होंने वोट पार्टी काे दिया
जिससे प्रत्याशी जीता। जीत के बाद प्रत्याशी का किसी और पार्टी में चला
जाना क्षेत्र के साथ विश्वासघात करना है। यदि पार्टी बदलनी ही है ताे
प्रत्याशी पहले इस्तीफा दे। फिर जिस पार्टी से उसे प्रेम है उससे चुनाव
लड़ जीत कर दिखाए। नहीं तो जिस पार्टी से वह जीता है उस पार्टी में वापस
लाैटे। जनता के गुस्से के सामने नेताओं की एक न चली और उन्हें वापस उस
पार्टी में लौट कर आना पड़ा जिस पार्टी से उन्होंने चुनाव जीता था।
दिल्ली नगर निगम चुनाव परिणाम आने के तत्काल बाद घटित इस घटना काे किसी
ने तवज्जो नहीं दिया। लेकिन इस घटना का संदेश बहुत बड़ा है। दिल्ली नगर
निगम यानी एमसीडी चुनाव के तत्काल बाद कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष और
दो नव निर्वाचित पार्षदों ने पार्टी छोड़ दी और आम आदमी पार्टी में शामिल
हो गए। चूंकि नगर निगम में दल बदल कानून लागू नहीं होता है इसलिए उनके
सामने इस्तीफा देने या संख्या बल की बाध्यता नहीं थी। लेकिन दल बदलना उन
तीनों काे भारी पड़ गया। 7 दिसंबर को दिल्ली नगर निगम के नतीजे आए थे और
9 दिसंबर को प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष अली मेहंदी और दो पार्षद-
सबिला बेगम और नाजिया खातून कांग्रेस छोड़ कर आम आदमी पार्टी में चले गए।
असल में पूर्ण बहुमत हासिल करने के बावजूद आम आदमी पार्टी काे आशंका है
कि मेयर के चुनाव में भाजपा कुछ खेला कर सकती है। इसलिए वह संख्या बढ़ाने
के लिए तोड़ फोड़ कर रही है। तीनों नेताओं के पार्टी छोड़ने की खबर फैलने
के फौरन बाद उनके चुनावी क्षेत्र में विरोध शुरू हो गया। उत्तर पूर्वी
दिल्ली के मुस्तफाबाद इलाके में लोग सड़कों पर उतरे और इन नेताओं के
खिलाफ प्रदर्शन किया। भीड़ का कहना था कि यदि उनको आम आदमी का पार्षद
चाहिए होता तो वे उसी के उम्मीदवार को वोट देते। लेकिन उन्हें कांग्रेस
का पार्षद चाहिए था इसलिए कांग्रेस को वोट दिया था। जनता की मांग थी कि
ये लोग कांग्रेस में लौटे या फिर इस्तीफा दें। जनता के विरोध के सामने
उनकी एक नहीं चला और मजबूरी में तीनों नेताओं को कांग्रेस में लौटना
पड़ा।
जीत के बाद निकाय चुनाव में दल बदल की यह कोई पहली घटना नहीं है। अधिकांश
राज्यों में यह खेल होता है। देश के किसी भी राज्य में ऐसा कोई कानून
नहीं है जो स्थानीय निकायों के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दलबदल करने
से रोकता हाे। प्रत्याशी और पार्टी इसका जम कर फायदा उठाते हैं।
गत अगस्त में मध्यप्रदेश में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनाव के
बाद ऐसे दृश्य बड़ी संख्या में देखने को मिले हैं, जिसमें जीत का प्रमाण
पत्र मिलने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधि ने उस दल को छोड़ दिया, जिसके
सिंबल पर वह चुना गया। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक
दलों को अपने नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधियों को पाले में बनाए रखने के लिए
खासी मशक्कत करनी पड़ी थी।