नीलम महाजन सिंह
ऐसा नहीं है कि भारत सरकार की अभी जजों व न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कोई भूमिका नहीं है। कितने जजों के नामों से हम परिचित है जो लगभग राजनीतिक नियुक्तियां थीं। सच तो ये है कि ‘न्याय के मंदिर’ में जाने से आम जनता बहुत डरती है। जस्टिस सुनंदा भंडारे ने कहा था, “न्यायधीश को मानवीय व सम्वेदनशील होनी चाहिए”। जो न्यायालयों में महिलाओं और वृद्ध-नागरिकों की हालत हो रही है, वह देख कर तरस आता है! भारतीय न्यायिक ‘कॉलेजियम प्रणाली’ में मौजूदा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायधीशों की ही प्रमुख भूमिका है। ‘कॉलेजियम प्रणाली’ की उत्पत्ति, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों द्वारा किए गए अपने स्वयं के ‘तीन निर्णयों’ पर आधारित है, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘तीन न्यायाधीशों के मामलों’ के रूप में जाना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड भी मौलिक अधिकारों और नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध हैं। केंद्रीय कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री; किरण रिजिजू ने भारत की संसद में एक बयान दिया है कि अदालतों में लगभग पांच करोड़ मामले लंबित हैं। किरण रिजिजू ने संसद में कहा, “जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव नहीं किया जाता है, तब तक उच्च न्यायिक रिक्तियां बढ़ती रहेंगी”। इस मामले में संविधान दिवस पर माननीय राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने पहले ही उच्चतम स्तर के न्यायाधीशों को एक ‘भावनात्मक ड्रेसिंग डाउन’ दी है कि, “कैसे निर्दोष लोगों को बिना किसी गलती के जेलों में बंद कर दिया जाता है”। उन्होंने न्यायपालिका से आग्रह किया था कि जेलों में बंद कैदियों को रिहा किया जाए। इससे मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों का उल्लंघन होता है। पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार और न्यायपालिका के बीच विवाद गरमा रहा है। पुलिस द्वारा झूठे और फ़र्जी मामले दर्ज किए जाते हैं। पुलिस बल में भ्रष्टाचार और थर्ड डिग्री टॉर्चर दीमक समान है। अधिवक्ताओं द्वारा बेतरतीब, अवहनीय शुल्क जनता को असहाय बना देता है! फिर रास्ता क्या है? वास्तव में खुफिया एजेंसियों ने, न्याय मांगने में नागरिकों की हताश भावनाओं व नारााज़गी की रिपोर्ट, सरकार को दी है। निश्चित तौर पर भारत की आज़ादी के 76वें साल में नागरिक को सशक्त और संरक्षित करने की ज़रूरत है। क्या हमारा सिस्टम ऐसा कर पाता है? आप इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं! केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजुजू का बयान उच्च न्यायालयों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर; केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच चल रहे मतभेदों के बीच आया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के खिलाफ बेंगलुरु एडवोकेट्स एसोसिएशन द्वारा दायर एक अवमानना याचिका पर सुनवाई की। गौरतलब है कि इस मामले में सुनवाई (28 नवंबर 2022) को दौरान, कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ कानून मंत्री की टिप्पणी पर नाराज़गी जताई थी। यहां भी ध्यान देना चाहिए कि राज्यसभा के सभापति, भारत के उप-राष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी की थी। न्यायाधीशों की नियुक्ति पर, भारत के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश प्राप्त होने के बाद, केंद्रीय कानून मंत्री, संबंधित राज्य सरकार के विचार प्राप्त करते हैैं। जैसे ही नियुक्ति को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित किया जाता है, न्याय विभाग नियुक्ति की घोषणा भारत के राजपत्र में आवश्यक अधिसूचना जारी कर देता है। कई नागरिक (कानूनविद् को छोड़कर) सोच रहे हैं कि किरण रिजिजू और सुप्रीम कोर्ट के बीच यह विवाद क्या है? संक्षेप में इस की व्याख्या करती हूँ।कॉलेजियम वास्तव में क्या है और यह कैसे काम करता है? कॉलेजियम में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। वे राज्य उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की पदोन्नति पर विचार करते हैं। राय की विभिन्नता होने पर, अंतर के मामले में बहुमत का विचार प्रबल होता है। चूंकि नगरपालिका में नियुक्तियों के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श अनिवार्य है, कॉलेजियम मॉडल धीरे-धीरे विकसित हुआ। हालाँकि इन सभी का भारत का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 124 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। मुख्य न्यायाधीश की अपनी नियुक्तियों को छोड़कर, सभी नियुक्तियों में परामर्श किया जाना है। अनुच्छेद 217 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि एक न्यायाधीश की नियुक्ति; राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल के परामर्श के बाद की जानी चाहिए। संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाना चाहिए। कॉलेजियम प्रणाली की उत्पत्ति “तीन निर्णयों की श्रृंखला’ में हुई है जिसे ‘तीन जजों के मामले’ के रूप में जाना जाता है। एस.पी. गुप्ता केस (30 दिसंबर, 1981) को ‘फर्स्ट जज केस’ कहा जाता है; “यह राष्ट्रपति को सी.जे.आई. की सिफारिश की प्रधानता की घोषणा की, जिसे केवल ठोस कारणों से ही अस्वीकार किया जा सकता है।” इसने अगले 12 वर्षों के लिए न्यायिक नियुक्तियों पर कार्यपालिका की प्रधानता के पक्ष में एक बदलाव किया।न्यायपालिका को कैसे प्राप्त हुई अनंत प्रधानता? 06 अक्टूबर, 1993 को, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ मामले में; नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला सुनाया। इसे ‘द्वितीय न्यायाधीश का मामला’ के रूप में जाना जाता है। इसने कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले में कहा गया है कि, “न्यायसंगतता और प्रधानता की आवश्यकता है कि मुख्य न्यायाधीश को ऐसी नियुक्तियों में प्रमुख भूमिका दी जानी चाहिए”। इसने एस.पी. गुप्ता के फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया है, “मुख्य न्यायाधीश की भूमिका प्रकृति में मौलिक है क्योंकि यह न्यायिक परिवार के भीतर एक विषय होने के नाते, कार्यपालिका का इस मामले में समान अधिकार नहीं हो सकता है”। यहाँ परामर्श (कंसल्ट) लघु रूप में सिकुड़ा। न्यायमूर्ति वर्मा के बहुमत के फैसले में चीफ जस्टिस की व्यक्तिगत भूमिका पर बेंच के भीतर ही असंतोष देखा गया। ‘द्वितीय न्यायाधीशों के मामले’ में दिए गए कुल पाँच निर्णयों में, न्यायमूर्ति वर्मा ने केवल अपने और चार अन्य न्यायाधीशों के लिए बात की। न्यायमूर्ति पांडियन और न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने बहुमत के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए व्यक्तिगत निर्णय लिखे। हालाँकि न्यायमूर्ति अहमदी ने असहमति जताई थी और न्यायमूर्ति पूंछी ने विचार किया कि “चीफ जस्टिस केवल दो न्यायाधीशों (जैसा कि फैसले में उल्लेख किया गया है) तक खुद को सीमित करने की नहीं करें और वे चाहे तो कितने भी न्यायाधीशों से परामर्श कर सकते हैैं”। अगले कुछ वर्षों तक सी.जे.आई. की भूमिकाओं पर भ्रम की स्थिति बनी रही। इसके अलावा राष्ट्रपति केवल एक अनुमोदक बन गये। इस भ्रम से निपटने के लिए क्या किया गया? 1998 में, राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 222 (उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का स्थानांतरण) में ‘परामर्श’ शब्द का वास्तव में क्या अर्थ है, इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय को एक प्रेसिडेंशियल संदर्भ जारी किया। सवाल यह था कि क्या सी.जे.आई. की राय बनाने में कई न्यायाधीशों के साथ परामर्श शब्द की आवश्यकता होती है या सी.जे.आई. की एकमात्र राय ने लेखों के अर्थ का गठन किया है? उत्तर में, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्तियों/ स्थानांतरणों के लिए कोरम के कामकाज के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए; जो कॉलेजियम का वर्तमान स्वरूप बन गये। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रस्ताव राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा शुरू किया जाएगा। हालांकि, अगर मुख्यमंत्री किसी व्यक्ति के नाम की सिफारिश करना चाहते हैं तो उन्हें मुख्य न्यायाधीश को उनके विचार के लिए अग्रेषित करना चाहिए। चूँकि राज्यपाल मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करने वाले मुख्यमंत्री की सलाह से बाध्य हैं, इसलिए देरी से बचने के लिए मुख्य न्यायाधीश के प्रस्ताव की एक प्रति कागजात के पूरे सेट के साथ राज्यपाल को भेजी जाती है। इसी तरह, इसकी एक प्रति भारत के मुख्य न्यायाधीश और केंद्रीय कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री को भी पृष्ठांकित की जााती है। यदि छह सप्ताह के भीतर टिप्पणियां प्राप्त नहीं होती हैं, तो केंद्रीय कानून, न्याय मंत्री द्वारा यह मान लिया जाना चाहिए कि राज्यपाल (या मुख्यमंत्री) के पास प्रस्ताव में जोड़ने और तदनुसार आगे बढ़ने के लिए कुछ नहीं है। कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ क्या तर्क हैं? विशेषज्ञ प्रणालीगत त्रुटियों की ओर इशारा करते हैं, जैसे कि, सबसे पहले एक अलग सचिवालय या खुफिया-एकत्रीकरण तंत्र के बिना जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण का प्रशासनिक बोझ, जो भावी नियुक्तियों की व्यक्तिगत और पेशेवर पृष्ठभूमि के संग्रह और जांच के लिए समर्पित है। दूसरा, यह ‘औपचारिक और पारदर्शी प्रणाली के बिना एक बंद-दरवाजे का मामला’ प्रतीत होता है। तीसरा, सर्वोच्च न्यायाल में नियुक्तियों के लिए उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों के लिए कॉलेजियम की पसंद के क्षेत्र की सीमा, कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी आदि। इसे ठीक करने के लिए विधि आयोग (ला आयोग) ने ‘न्यायाधीशों के मामले I, II और III पर पुनर्विचार के प्रस्ताव’ पर अपनी 214वीं रिपोर्ट में दो समाधानों की सिफारिश की: सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ‘तीन निर्णयों’ पर पुनर्विचार की मांग करना। दूसरी, भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रधानता और नियुक्तियों के लिए कार्यपालिका की शक्ति को बहाल करने के लिए एक कानून बनाएं। ऐसे में कोलेजियम का विकल्प क्या है? राष्ट्रीय न्यायिक आयोग केवल एक प्रस्ताव बनकर रह गया है। 2003 में एन.डी.ए. सरकार द्वारा लोकसभा में संविधान (98वां संशोधन) विधेयक पेश किया गया था। सी.जे.आई. की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया था। इसके सदस्यों के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश होंगें। प्रधान मंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा नामित एक प्रतिष्ठित नागरिक के साथ केंद्रीय कानून मंत्री सदस्य होंगे। आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण तय करेगा और उच्चतम न्यायपालिका के न्यायाधीशों सहित न्यायाधीशों द्वारा व्यावहार व अनुशासनिक कार्यवाही के मामलों की जांच करेगा। परामर्श किए गए न्यायाधीशों के विचार लिखित रूप में होने चाहिए और सी.जे.आई. द्वारा भारत सरकार को बताए जाने चाहिए। सी.जे.आई. की सिफारिशें बिना [ऐसे अनुपालन] सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं हैं। मुख्य न्यायाधीश नियुक्ति के लिए अनुशंसित न्यायाधीश की नियुक्ति न करने के लिए सरकार द्वारा दी गई सामग्री और सूचना के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के परामर्श के बिना, केवल अपनी व्यक्तिगत क्षमता में कार्य करने का हकदार नहीं हैैं। यूरोप, अमेरिका व अन्य विकसित देशों में न्यायालय; नागरिक सुरक्षा के लिए तत्पर हैैं। सारांशार्थ ये कहना आवश्यक है कि न्यायपालिका को अब पर्दे के पीछे से नहीं, स्पष्ट रूप से ज़िम्मेदारी उठानी चाहिऐ कि भारत का हर नागरिक, भारतीय संविधान द्वारा दिए मौलिक अधिकारों व कर्तव्यनिष्ठा के लिए सक्षम हो। केवल ‘कनटेेमपट’ – अवमानना का भय दिखा कर मानवाधिकारों, मौलिक अधिकारों क हनन नहीं किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष : यू.पी.एस.सी. द्वारा ‘आल इंडिया जूडिशल परीक्षा’ के द्वारा, हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति होनी चाहिए। सीधा सर्वोच्च न्यायालय में जजों को नियुक्त करना उचित प्रक्रिया नही है। इसमें आयु को नहीं; कुशलता को मानक बनाना होगा। जज भी तनख्वाह तो टैक्स-दाता के सरकारी ख़ज़ाने से ही लेते हैं। संसद द्वारा आर्डिनेन्स ज़ारी कर न्यायविदों का परामर्श लेना चाहिए। इतने वर्षों से भारत के नागरिकों को क्या न्याय मिला? जजों को भी सहजता से जीवनशैली बिताने का प्रयास करना होगा। न्याय प्राप्त करना जनता के लिए सुविधाजनक व सत्यार्थ होना चाहिए। राह कठिन है लेकिन जनहित के लिए आवश्यक।
(वरिष्ठ पत्रकार, विचारक, राजनैतिक समीक्षक, दूरदर्शन व्यक्तित्व, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स संरक्षण व परोपकारक)