उमेश जोशी
काँग्रेस और कलह दोनों की एक राशि है इसलिए दोनों हमेशा साथ रहते हैं। काँग्रेसियों को कुर्सी मिली नहीं कि कलह शुरू कर देते है, हाई वॉल्टेज ड्रामा की शैली में। राजस्थान इसका ताजा उदाहरण है। इससे पहले पंजाब और हरियाणा में अंदरूनी कलह सभी ने देखा ही है। काँग्रेस नेता कलह का कलंक वर्षों से ढो रहे हैं; वे कलंक की कालिख धो तो नहीं पाते हैं लेकिन इसको पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र की संज्ञा देकर गर्व की अनुभूति अवश्य करते हैं।
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट वीर योद्धाओं की तरह भिड़े हुए हैं। दोनों ही जानते हैं कि इस रण में वही विजयी होगा जिसके पाले में आलाकमान होगा।
एक योद्धा कुर्सी पर बैठ गया इसलिए छोड़ना नहीं चाहता। दूसरा योद्धा कुर्सी के बहुत नजदीक पहुँच गया था फिर भी नहीं मिली इसलिए वह किसी कीमत पर उसे छोड़ना नहीं चाहता। दोनों के बीच सारा कलह कुर्सी के लिए है। सदियों से कुर्सी के लिए ही कलह रहा है, सभी प्रदेशों में काँग्रेसी उसी ऐतिहासिक लीक पर चल रहे हैं।
सचिन पायलट की मदद के लिए उनके पिता राजेश पायलट का नाम साथ है। वो नाम जिसकी बदौलत सचिन पायलट को चुनाव का टिकट मिला और गूजर बहुल इलाके से चुनाव जीत गए। राजेश पायलट राजीव गाँधी के करीबी थे इसलिए गाँधी परिवार से सचिन पायलट की अपेक्षाएँ भी हैं। गाँधी परिवार पुराने रिश्तों का कर्ज चुकाना भी चाहता है लेकिन राजनीति के सारे दाँवों में पारंगत अशोक गहलोत से कुर्सी खाली नहीं करवा पा रहा है। गाँधी परिवार ने सितंबर 2022 में अशोक गहलोत को काँग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का लालच देकर कुर्सी ख़ाली करवाने का प्रयास किया था लेकिन गहलोत को चाल के पीछे छिपा छल समझ आ गया और अपने समर्थकों को सजग कर दिया। समर्थक 25 सितंबर को बगावत पर उतर आए। दो राज्यों गुजरात और हिमाचल प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनावों और दिल्ली में नगर निगम चुनावों को देखते हुए आलाकमान पीछे हट गया और गहलोत पर अध्यक्ष बनने के लिए दबाव नहीं बनाया। ‘एक व्यक्ति एक पद’ के नियम के अनुसार अशोक गहलोत को अध्यक्ष की कुर्सी सम्हालते ही मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ती। अशोक गहलोत कितने भी बड़े जादूगर हों, अध्यक्ष बनने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने का कोई जादू कारगर नहीं होता।
एक वक्त था जब कांग्रेस आलाकमान का आदेश पार्टी नेताओं को मानना पड़ता था। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से हर चुनावी जंग में पार्टी की करारी शिकस्त के कारण कांग्रेस आलाकमान की ताकत पहले के मुकाबले कम हो गई है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना हैं कि राजस्थान में चाह कर भी बदलाव नहीं होता दिख रहा है। कांग्रेस आलाकमान पहले की तरह ताकतवर नहीं रहा। यही वजह है कि गहलोत-पायलट विवाद में हो रही बयानबाजी पर भी कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। पार्टी किसी भी तरह का खतरा मोल लेने की स्थिति में नहीं है। पायलट को मुख्यमंत्री बनने से रोकने लिए अशोक गहलोत कोई भी कड़ा फैसला लेने से पीछे नहीं हटेंगे। ऐसे हालात में राजस्थान में सरकार काँग्रेस के हाथ से फिसल सकती है। जब तक राहुल गाँधी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के लिए राजस्थान में थे तब तक गहलोत-पायलट शांत रहे। राहुल गाँधी के राजस्थान से निकलते ही ‘वही घोड़े और वही मैदान’ यानी दोनों के बीच वही तीखी बयानबाजी फिर चालू हो गई। हालांकि सचिन पायलट खुद कुछ नहीं कहते, उनके समर्थक अशोक गहलोत पर शब्द बाण चला रहे हैं। उनमें दो विधायक प्रमुख हैं, हरीश चौधरी और दिव्या मदेरणा।
सचिन पायलट को ‘ग़द्दार’ बताने वाले अशोक गहलोत अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी को जिताने के लिए पूरा जोर लगाएंगे, इस पर भी राजनीतिक हलकों में संदेह व्यक्त किया जा रहा है। विधान सभा चुनाव 2023 की अंतिम तिमाही में होंगे। राजस्थान में नौकरियों की परीक्षाओं के अब तक 12 बार पर्चे लीक हो चुके हैं। इससे बेरोजगार युवक और उनके परिवार वाले अशोक गहलोत से बेहद ख़फ़ा हैं। प्रदेश में इस मुद्दे पर गहलोत सरकार की छवि बहुत खराब हो चुकी है। हालांकि हर बार कड़े कदम उठाने और सख्त कार्रवाई करने के बयान दिए जाते हैं लेकिन धरातल पर बयानों की सच्चाई नजर नहीं आती। अभी विधानसभा चुनाव में कई महीने हैं। ऐसे ही मुद्दों पर सरकार की छवि धूमिल होती रहेगी और गहलोत बयान देते रहेंगे।
राजस्थान में बीजेपी और काँग्रेस बारी बारी से सत्ता पर काबिज होती है। इस बार बीजेपी की बारी है। अगले चुनाव में काँग्रेस हार भी गई तो गहलोत हार की जिम्मेदारी से बच निकलेंगे क्योंकि परंपरा के मुताबिक बीजेपी को चांस मिलना ही था। अगले चुनाव में काँग्रेस की हार में गहलोत की विजय छुपी हुई है।
गहलोत बखूबी जानते हैं कि काँग्रेस जीत गई तो सचिन पायलट ही मुख्यमंत्री होंगे। इस बार उनका जादू चल गया लेकिन अगली विधानसभा में उनका कोई पैंतरा नहीं चल पाएगा और सचिन पायलट को कुर्सी मिल जाएगी। राजनीतिक पंडित भले ही कुछ भी कहते रहें लेकिन जनता में यह चर्चा ज़ोरों पर हैं कि गहलोत अपने धुर विरोधी पायलट को उड़ान भरने से रोकने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि हवाई पट्टी में गड्ढे भी कर सकते हैं यानी चुनावी मैदान में योद्धा की तरह ना लड़ें या चुनाव से पहले ऐसा माहौल बना दें कि एंटी इनकंबेंसी फैक्टर सरकार की उपलब्धियों पर हावी हो जाए। काँग्रेस हारेगी तो ही विरोधियों की हार होगी और उस हार के पीछे खुद की विजय छुपी है। राजस्थान में इसे कहते हैं, अपना माथा फोड़ कर दूसरे का अपशकुन करना।
हिमाचल प्रदेश में काँग्रेस की विजय के लिए सचिन पायलट की पीठ थपथपाई जा रही हैं। देखते हैं पायलट अपने प्रदेश में पार्टी को विजय दिलाने में कामयाब होते हैं। हिमाचल में काँग्रेस सत्ता में नहीं थी इसलिए कलह नहीं था। राजस्थान में कलह ही कलह है, ऐसे में पार्टी विजय की सम्भावनाएँ बहुत क्षीण हैं।