ललित गर्ग
भारतीय लोकतंत्र के सम्मुख एक ज्वलंत प्रश्न उभर के सामने आया है कि क्या भारतीय राजनीति विपक्ष विहीन हो गई है? आज विपक्ष इतना कमजोर नजर आ रहा है कि सशक्त या ठोस राजनीतिक विकल्प की संभावनाएं समाप्त प्रायः लग रही हैं। इतना ही नहीं, विपक्ष राजनीति ही नहीं, नीति विहीन भी हो गया है? यही कारण है कि आजादी का अमृत महोत्सव के अवसर तक पहुंचते हुए राजनीतिक सफर में विपक्ष की इतनी निस्तेज, बदतर एवं विलोपपूर्ण स्थिति कभी नहीं रही। इस तरह का माहौल लोकतंत्र के लिये एक चुनौती एवं विडम्बना है। भले ही पूर्व दशकों में कांग्रेस भारी बहुमत में आया करती थी परन्तु छोटी-छोटी संख्या में आने वाले राजनीतिक दल लगातार सरकार को अपने तर्कों एवं जागरूकता से दबाव में रखते थे, अपनी जीवंत एवं प्रभावी भूमिका से सत्ता पर दबाव बनाते थे, यही लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण था। लेकिन अब ऐसी स्थिति समाप्त होती जा रही है बल्कि इस कदर बदतर हो चुकी है कि चुनावों से पहले ही स्पष्टता एवं दृढ़ता के साथ भविष्यवाणी की जा सकती है कि सत्ता में फिर से भाजपा ही आयेगी। यह स्थिति अचानक तो नहीं आयी है? इसकी असली वजह क्या हो सकती है? आखिर विपक्ष इतना कमजोर एवं नकारा कैसे हो गया?
विपक्ष की इस कमजोर स्थिति का दोष विपक्षी दल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर लगाते आ रहे हैं मगर इसके लिए स्वयं उनसे बढ़ कर कोई और दोषी नहीं है। बड़ा कारण सभी विपक्षी दलों का पारिवारिक पार्टियों में तब्दील हो जाना भी है। 140 करोड़ की आबादी वाले देश में विपक्ष के पास ‘मोदी’ विरोध के अलावा कोई प्रखर मुद्दा नहीं है, इससे बढ़कर नकारापन क्या होगा? इसकी वजह यही नजर आती है कि समूचे विपक्ष के पास आज प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के कद के आसपास का भी कोई नेता नहीं है। लोकतन्त्र में हालांकि यह कहा जाता है कि व्यक्तियों से बढ़ कर संस्था या राजनीतिक दल का महत्व होता है परन्तु लोकतन्त्र के इस पवित्र व मूल सिद्धान्त को आजादी के बाद लगभग 60 साल तक राज करने वाली पार्टी कांग्रेस ने ही जड़ से समाप्त करने का प्रयास किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन की विरासत के नाम पर एक ही परिवार के नाम सत्ता की चाबी रखने का ठेका छोड़ दिया। यदि भाजपा जैसा राष्ट्रवादी दल एवं नरेन्द्र मोदी जैसा कद्दावर का नेता नहीं उभरता तो जो स्थिति राजपक्षे परिवार ने श्रीलंका की है, वहीं स्थिति गांधी परिवार भारत की कर देता। मगर जब विपक्षी नेताओं ने ठान लिया है कि वे श्री मोदी के शब्दों, योजनाओं एवं नीतियों की बाल की खाल निकालेंगे तो सिर्फ उनकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है। संसद में असंसदीय शब्दावली की जो पुस्तिका प्रकाशित की गई है उस पर सर्वदलीय बैठक बुला कर विचार करने की भी सख्त जरूरत है क्योंकि भाषा का सम्बन्ध लोकतन्त्र में जन अपेक्षाओं से ही होता है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने सांसदों से अपेक्षा की है कि वे मर्यादा के भीतर अपनी बात रखें। उन्होंने कहा है कि संसद की कार्रवाई में किसी शब्द पर प्रतिबंध नहीं है। यही कारण है कि जुमलाजीवी, बाल बुद्धि सांसद, शकुनी, जयचन्द, लॉलीपॉप, चाण्डाल चौकड़ी, गुल खिलाए, तानाशाह, भ्रष्ट, ड्रामा, अक्षम, पिठ्ठू जैसे शब्द लोकसभा में गूंजते रहे हैं।
आज देश में विपक्ष के पास खासकर कांग्रेस या किसी भी दल के पास कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं है, जो देश की ज्वलंत समस्याओं के समाधान के लिये अपनी स्वतंत्र सोच को उभार सकें। भाजपा और संघ परिवार पर वार करने लिए कोई धारधार हथियार भी इनके पास नहीं है। सब ये जानते हैं कि भाजपा को अब हरा पाना इनके बूते की बात है। इस तरह की संभावनाओं को तलाशने के लिये सशक्त विपक्ष का होना जरूरी। आज विपक्ष अस्तित्वविहीन होता जा रहा है। सशक्त विपक्ष के साथ प्रभावी, सक्षम, समर्थ एवं सर्वस्वीकार्य विपक्षी नेता भी लोकतंत्र की मूल आवश्यकता है। जैसाकि आजादी के बाद ताकतवर कांग्रेस पार्टी के शासन में विपक्ष बहुत तेजस्वी एवं प्रभावी रहा है। वही विपक्ष अपनी साफ, पारदर्शी, नैतिक एवं राष्ट्रवादी राजनीतिक मूल्यों के बल पर आज स्पष्ट बहुमत से शासन कर रहा है। आजादी दिलाने वाली पार्टी कांग्रेस को चुनौती देना जटिल था परन्तु उस दौर में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए अधिसंख्य राजनीतिक दलों की कमान भी आजादी के नायकों के पास ही थी अतः संसद में कम संख्या में रहने के बावजूद एक से बढ़ कर एक नेता विपक्षी दलों के पास थे। इनमें से कुछ नाम प्रमुख हैं-आचार्य कृपलानी, डा. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, प्रोफेसर एम.जी. कामथ, नाथ पै तथा जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और वीर सावरकर। उस दौर में विपक्ष ने अपनी सार्थक भूमिका से लोकतंत्र को मजबूती दी। लेकिन आज विपक्ष अपनी सार्थक भूमिका निर्वाह करने में असफल हो रहे हैं। क्योंकि दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं रहा है, देश को बनाने का संकल्प नहीं है, उनके बीच आपस में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो विपक्षी नेतृत्व की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता है। ऐसा लग रहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व की नैतिकता एवं नीतियों को प्रमुख मुद्दा न बनाने के कारण विपक्ष नकारा साबित हो रहा है, अपनी पात्रता को खो रहा है, यही कारण है कि न विपक्ष मोदी को मात दे पा रहे हैं और न ही सार्थक विपक्ष का अहसास करा पा रहे हैं। भाजपा एवं मोदी का कोई ठोस विकल्प पेश करने को लेकर विपक्ष गंभीर नहीं हैैं, वे अवसरवादी राजनीति की आधारशिला रखने के साथ ही जनादेश की मनमानी व्याख्या करने, मतदाता को गुमराह करने की तैयारी में ही लगे हैं। इन्हीं स्थितियों से विपक्ष की भूमिका पर सन्देह एवं शंकाओं के बादल मंडराने लगे।
क्या देश के अंदर विपक्ष को खत्म करने की साजिश हो रही है? क्या इसके लिए सत्ता की ताकत का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है? भाजपा पर लग रहे ये आरोप निराधार एवं भ्रामक हैं। यह कहना बिल्कुल भी उचित नहीं है कि भारत की राजनीति विपक्ष विहीन हो चुकी है, मनोबल अवश्य टूटा है, अतीत के दाग पीछा कर रहे हैं लेकिन विपक्ष विहीन भारतीय राजनीति की स्थिति जब भी बनेगी, संभवतः लोकतंत्र भी समाप्त हो जायेगा। विपक्ष की कमजोर एवं नकारा स्थिति के लिये भाजपा या मोदी को जिम्मेदार ठहराना भी उचित नहीं है। विपक्ष अपनी इस दुर्दशा के लिये खुद जिम्मेदार है। विपक्ष वैचारिक, राजनीतिक और नीतिगत आधार पर सत्तारूढ़ दल का विकल्प प्रस्तुत करने में नाकाम रहा है। उसने सत्तारूढ़ भाजपा की आलोचना की, पर कोई प्रभावी विकल्प नहीं दिया। किसी और को दोष देने के बजाय उसे अपने अंदर झांककर देखना चाहिए। मुद्दा विहीनता उसके लिए इतनी अहम रही है कि कई बार राष्ट्रीय मुद्दों पर उसने जुबान भी नहीं खोली। लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है जब मजबूत विपक्ष होता है। क्यों नहीं विपक्ष सीबीआई, आरबीआई जैसे मुद्दों को उठाता, आम आदमी महंगाई, व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां, बेरोजगारी आदि समस्याओं से परेशान हो चुका है, वह नये विकल्प को खोजने की मानसिकता बना चुका है, जो विपक्षी नेतृत्व के उद्देश्य को नया आयाम दे सकता है, क्यों नहीं विपक्ष इन स्थितियों का लाभ लेने को तत्पर होता। बात केवल विपक्ष की ही न हो, बात केवल मोदी को परास्त करने की भी न हो, बल्कि देश की भी हो तभी विपक्ष अपनी इस दुर्दशा से उपरत हो सकेगा। वह कुछ नयी संभावनाओं के द्वार खोले, देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता दिखाए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी और अपराधों पर अंकुश लगाने का रोडमेप प्रस्तुत करे, सरकार की नयी आर्थिक नीतियों से आम आदमी एवं कारोबारियों को हो रही परेशानियों को उठाए तो उसकी स्वीकार्यता स्वयंमेय बढ़ जायेगी। व्यापार, अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई, ग्रामीण जीवन एवं किसानों की खराब स्थिति की विपक्ष को यदि चिंता है तो इसे दिखना चाहिए। पर विपक्ष केंद्र या राज्य, दोनों ही स्तरों पर सरकार के लिये चुनौती बनने की बजाय केवल खुद को बचाने में लगा हुआ नजर रहा है। वह अपनी अस्मिता की लड़ाई तो लड़ रहा है पर सत्तारूढ़ दल को अपदस्थ करने की दृढ़ इच्छा उसने नहीं दिखाई। कांग्रेस ने भारतीय लोकतन्त्र में धन की महत्ता को ‘जन महत्ता’ से ऊपर प्रतिष्ठापित किये जाने के गंभीर प्रयास किये, जिसके परिणाम उसे भुगतने पड़ रहे हैं। क्या इन विषम एवं अंधकारमय स्थितियों में कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल कोई रोशनी बन सकते हैं, अपनी सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिये तत्पर हो सकते हैं? विपक्ष ने मजबूती से अपनी सार्थक एवं प्रभावी भूमिका का निर्वाह नहीं किया तो उसके सामने आगे अंधेरा ही अंधेरा है।