बदलती दीवाली: दीप नहीं, प्रदर्शन की झिलमिल

A changing Diwali: No lamps, but a flicker of display

सुनील कुमार महला

हमारा देश भारत त्योहारों का देश है, जहां हर पर्व केवल उत्सव ही नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन भी होता है। दीपावली(दीपो की आवलि यानी कि दीप-पंक्ति) उन्हीं में सबसे प्रमुख, बड़ा और पवित्र त्योहार है‌।संस्कृत में दीपावली का अर्थ होता है-‘दीपानाम् आवली’ अर्थात् दीपों की पंक्ति या दीपों की श्रेणी।संक्षेप में कहा जाए तो ‘दीपावलीः इति दीपानां आवली’ अर्थात्-दीपावली वह उत्सव है जिसमें दीपों की पंक्तियाँ सजाई जाती हैं। वास्तव में दीपावली केवल दीपों का ही नहीं, बल्कि यह हमारी आत्मा की रौशनी, सत्य, सद्भावना और आनंद का प्रतीक है। दीपावली का पर्व अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान और बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश देता है। किंतु आज जब हम 20 अक्टूबर(सोमवार) को दीपावली(प्रकाश पर्व) मनाने जा रहे हैं, तो सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान में हमारी दीपावली पहले जैसी रही है ? क्या वह सादगी, अपनापन और हमारे देश की सनातन संस्कृति की सुगंध(सुरभि) अब भी हमारे दीपों में झलकती है?

भारतीय संस्कृति का अनूठे प्रतीक-मिट्टी के दीपक :-

मिट्टी के दीपक भारतीय सनातन संस्कृति और परंपरा का प्रतीक हैं। ये दीपक न केवल दीपावली बल्कि अनेक धार्मिक(व्रत, उपवास, अनुष्ठान) और सामाजिक अवसरों पर उपयोग किए जाते हैं। मिट्टी के दीपक हमारे पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, क्योंकि इनमें कोई हानिकारक पदार्थ नहीं होता। इनको प्रज्ज्वलित करने से धुआं या प्रदूषण नहीं फैलता, बल्कि कीट-पतंगे मर जाते हैं और वायु तथा वातावरण शुद्ध होता है। पाठकों को बताता चलूं कि दीप प्रज्ज्वलन (दीया जलाने) के समय हमारे यहां दीप प्रज्ज्वलन श्लोक बोला जाता है-‘शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसंपदा। शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते॥’ इसका भावार्थ यह है कि ‘हे दीपज्योति! आप शुभ, कल्याण, आरोग्य और धन-संपदा देने वाली हैं।आप शत्रुओं की बुद्धि का विनाश करती हैं-आपको मेरा नमस्कार है।’ इसी प्रकार से एक और श्लोक भी हमारे यहां प्रचलित है—’दीपो ज्योतिः परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तुते॥’ मतलब यह है कि ‘दीपक स्वयं परम ब्रह्म हैं, भगवान जनार्दन के प्रतीक हैं। यह दीप मेरे पापों का नाश करे — उस संध्यादीप को मेरा नमस्कार है।’ अतः दीपावली पर दीप प्रज्ज्वलित करने की परंपरा के महत्व को बखूबी समझा जा सकता है।और तो और दीप(दीपक) कुम्हारों की आजीविका का महत्वपूर्ण साधन भी हैं। मिट्टी के दीपक सादगी, पवित्रता और स्वदेशी भावना का भी संदेश देते हैं। आज के इस आधुनिक युग में भी इनका महत्व कम नहीं हुआ है। चाइनीज़ झालरों और बिजली की रोशनी के बीच ये दीपक अपनी परंपरागत चमक बनाए रखते हैं। मिट्टी के दीप जलाने से वातावरण में सकारात्मक(पाज़िटिव) ऊर्जा फैलती है। ये दीपक अंधकार पर प्रकाश की विजय और आशा का प्रतीक हैं। कभी दीपावली का अर्थ ही था- ‘मिट्टी के दीपक और घर की चौखट पर जगमगाती रौशनी।’ हर घर-आंगन में कुम्हार के हाथों से बने सैकड़ों दीपक सजते थे। मिट्टी के दीपक,तेल-बाती की बात ही कुछ और थी। दिन में बाजार या कुम्हार के घर से मिट्टी के दीपक खरीद कर घर लाना, घर लाकर उन्हें थोड़ी देर के लिए पानी में भिगोकर रखना, बाद में उन्हें सुखाकर तैयार करना, रूई की बातियां बनाना और शाम ढ़लते ही घर-आंगन, दहलीज़, कंगूरे पर दीपक जलाकर सजाना। कितना आनंद,खुशी व सादगी थी दीपावली के त्योहार में ? उन दीपकों की मिट्टी में न केवल मिट्टी की खुशबू होती थी, बल्कि उसमें हमारे देश के किसानों, मजदूरों और कलाकारों की मेहनत का उजाला भी बसता था। कुम्हार परिवार दीपावली से महीनों पहले ही दीप बनाने में जुट जाते थे। यह त्योहार उनके लिए केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक आधार भी था। लेकिन आज के दौर में, जब हम चकाचौंध और चमक-दमक के पीछे भाग रहे हैं, मिट्टी के इन दीपकों की रौशनी धीरे-धीरे धुंधली पड़ती जा रही है।

समय की धार के साथ चाइनीज़ लाइटों का बढ़ता प्रचलन:-

आज के बाजारों में दीपक नहीं, बल्कि ‘झालरें’, ‘एलईडी चेन’, ‘चाइनीज़ लाइटें’ बिकती हैं। ये लाइटें सस्ती, रंगीन और बिजली से चलने वाली हैं। इन्हें जलाना आसान है, संभालना भी। लेकिन यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या ये हमारे घरों में वही आत्मिक उजाला फैलाती हैं, जो मिट्टी के दीपक करते थे?मिट्टी का दीपक जब जलता है तो उसकी लौ में श्रद्धा, शांति और परंपरा की गंध होती है। उसकी रौशनी में ‘संस्कार’ झलकते हैं, जबकि बिजली की झालरें केवल और केवल ‘दिखावा’ या ‘प्रदर्शन’ करती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज के त्योहारों में दिखावे की चमक बढ़ गई है।लोग भक्ति से अधिक भौतिक सजावट पर ध्यान देते हैं।सादगी और आत्मिक शांति तो जैसे कहीं खो सी गई है। पवित्रता का स्थान प्रतिस्पर्धा और आडंबर ने ले लिया है।सच तो यह है कि त्योहार अब आनंद से अधिक प्रदर्शन का माध्यम बन गए हैं। हमारी संस्कृति और हमारी परंपराएं आज पीछे छूटती चलीं जा रहीं हैं।

कुम्हारों की दुर्दशा:-

आज के युग में कुम्हारों की दीपावली फीकी पड़ गई है। दरअसल, आज मिट्टी के दीपकों की जगह इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स ने ले ली है। कुम्हारों की मेहनत का अब उचित मूल्य भी नहीं मिलता है। चाईनीज झालरों, इलैक्ट्रिक आइटम्स ने उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली है। परंपरा और कला धीरे-धीरे मिटती जा रही है। बढ़ते शहरीकरण, आधुनिकीकरण के कारण कुम्हारों के समक्ष मिट्टी की भी समस्या है। महंगाई भी पहले की तुलना में आज काफी बढ़ चुकी है।मिट्टी, तेल, घी, बाती-सब महंगे हो चुके हैं। मिट्टी के दाम बढ़ने से मिट्टी के दीयों और मिट्टी के बर्तनों की लागत बढ़ गई है। ईंधन और रंगों की कीमतें भी बढ़ने से उत्पादन महंगा हो गया है। आज से 10-20 साल पहले गांवों और कस्बों में कुम्हारों के बनाए दीये की मांग इतनी होती थी कि कई बार ऑर्डर पूरे करना भी मुश्किल हो जाता था,लेकिन अब वही कुम्हार अपने बने हुए दीप बेचने के लिए तरस रहे हैं।मिट्टी के दीये अब ऑनलाइन कंपनियों के जरिए बाजार में उतरने लगे हैं। सच तो यह है कि कुम्हारों की मेहनत और कला को अब मशीनें निगल रही हैं।मशीनों से बने दीये सस्ते और जल्दी तैयार हो जाते हैं।महंगाई और मशीनों के इस युग में हाथ से बनी चीजों का मूल्य कम होता जा रहा है। इससे स्थानीय कुम्हारों की बिक्री पर गहरा असर पड़ रहा है और ग्रामीण कलाकारों की आजीविका संकट में है। दूसरे शब्दों में कहें तो मशीनी युग में कुम्हार अपनी पहचान बचाने की जद्दोजहद में हैं।इधर, चाइनीज़ लाइटें सस्ती और आकर्षक दिखती हैं। परिणामस्वरूप, लोग ‘सस्ता और चमकदार’ चुन लेते हैं, जबकि ‘अपना और पारंपरिक'(स्वदेशी) पीछे छूट जाता है।

आज दीपोत्सव पर सादगी नहीं, रह गया है दिखावा:-

पहले दीपावली सादगी और भावनाओं का पर्व थी। लोग अपने घरों की सफाई करते थे, गोबर से लीपकर रंगोली व मांडणे बनाते थे, मिट्टी के दीप जलाते थे और मिठाई घर पर तैयार करते थे। अब वह स्थान रेडीमेड मिठाइयों, चाइनीज़ झालरों और महंगे सजावटी सामान ने ले ली है।आज का दीपोत्सव ‘उत्सव’ कम और ‘प्रदर्शन’ अधिक बन गया है।

मिट्टी के दीपक : पर्यावरण के लिए वरदान:-

मिट्टी के दीपक न केवल हमारी सनातन संस्कृति का प्रतीक है, बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी श्रेष्ठ हैं।ये पूरी तरह प्राकृतिक और जैविक रूप से नष्ट होने योग्य है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें बिजली की खपत नहीं होती तथा किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं फैलता।इनका उपयोग करने से स्थानीय कलाकारों को रोजगार मिलता है। इसके विपरीत, बिजली से चलने वाली लाइटें ऊर्जा की खपत बढ़ाती हैं और उनके तारों में प्रयुक्त प्लास्टिक व धातुएं पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं।

आधुनिकता बनाम परंपरा:-

आधुनिकता का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी परंपराओं व हमारी संस्कृति को भूल जाएं। प्रगति तब सार्थक होती है जब वह अपनी जड़ों से जुड़ी रहे। दीपावली केवल रौशनी का त्योहार नहीं, यह ‘संवेदनाओं का प्रकाश’ है। दीपावली के इस पावन पर्व पर हम अपने भीतर के दीप को प्रकाशमान करें। हमारी युवा पीढ़ी को यह समझाना बहुत ही जरूरी व आवश्यक है कि मिट्टी का दीपक केवल सजावट मात्र ही नहीं है, बल्कि यह एक पवित्र संस्कार है। जब हम दीप जलाते हैं, तो वह हमें हमारी प्रकृति, श्रम और हमारी सनातन संस्कृति से जोड़ता है।

अपनाएं लोकल फॉर वोकल की भावना:-

दीपावली का पर्व(दीपोत्सव) केवल रौशनी और खुशियों का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि यह आत्मनिर्भर भारत का संदेश देने का अवसर भी है। इस दीपावली हमें ‘लोकल फॉर वोकल’ की भावना को अपनाना चाहिए। विदेशी सामानों की बजाय हमें अपने देश में बने उत्पादों को प्राथमिकता देनी चाहिए। मिट्टी के दीये, हस्तनिर्मित सजावट, स्थानीय मिठाइयां और स्वदेशी कपड़ों से त्योहार मनाने से न केवल हमारी परंपरा सशक्त होगी, बल्कि कारीगरों, कुम्हारों और छोटे व्यापारियों की आजीविका भी सुरक्षित रहेगी। जब हर घर में स्वदेशी दीप जलेगा, तभी सच में ‘आत्मनिर्भर भारत’ का प्रकाश फैलेगा।

अंत में यही कहूंगा कि दीपावली की असली रौशनी केवल बिजली की चमक, चकाचौंध में नहीं, बल्कि हमारे देश की मिट्टी की गंध में है, जो हमारी मिट्टी से, हमारे दिलों से मजबूती से जुड़ी है। मिट्टी का दीपक छोटा भले हो, पर उसकी लौ में परंपरा, संस्कृति और अपनत्व की आभा होती है। जब हम अपने घर में मिट्टी का दीप जलाते हैं, तो वह केवल अंधकार नहीं मिटाता, बल्कि हमारी सोच, हमारे समाज और हमारी आत्मा में भी रौशनी भर देता है। तो आइए ! इस दीपावली, हम सभी ये संकल्प लें कि ‘हम मिट्टी के दीप जलाएंगे, संस्कृति का दीप जलाएंगे, और उस सच्ची दीपावली को पुनः जीवित करेंगे, जो सादगी, प्रेम और भारतीयता की प्रतीक है।’