अवसाद की छाया में घिरता बचपन

A childhood clouded by depression

डॉ विजय गर्ग

देश में बच्चों और किशोरों से संबंधित आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं कई सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करती हैं। सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर बच्चे इस तरह का जानलेवा कदम उठाने को क्यों मजबूर हो रहे हैं? दूसरा, हम अपने बच्चों को कैसी शिक्षा व्यवस्था और परिवेश में ढाल रहे हैं। तीसरा और सबसे अहम सवाल है कि आखिर बच्चे मानसिक रूप से इतने कमजोर क्यों हो रहे हैं? ये सभी पहलू आपस में एक-दूसरे से गहरे तक जुड़े हुए हैं। असल में आज के दौर में बच्चे मानसिक स्वास्थ्य विकार और अवसाद से ग्रस्त हो रहे हैं। बच्चों में आत्महत्या के प्रयास अक्सर आवेगपूर्ण होते हैं। ये प्रयास उदासी, भ्रम, क्रोध और अति सक्रियता संबंधी समस्याओं से जुड़े हो सकते हैं। उन पर पढ़ाई और परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन का दबाव भी बना रहता है। यह दबाव इतना गहरा हो जाता है कि वे अवसाद का शिकार हो जाते हैं और पढ़ाई का बोझ सहन नहीं कर पाते। यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और आसपास का माहौल नौनिहालों के जीवन पर भारी पड़ रहा है।

पिछले दिनों जयपुर के एक स्कूल की छठी कक्षा की छात्रा ने विद्यालय भवन की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। इसके बाद मध्य प्रदेश के रीवा में एक स्कूली छात्रा ने खुदकुशी कर ली थी। इसी तरह दिल्ली के एक स्कूल के छात्र ने मेट्रो प्लेटफार्म से कूदकर अपनी जान दे दी। इस की घटनाएं समाज को को झकझोर देने वाली हैं। सवाल है कि इन विद्यार्थियों के मन में पनपती पीड़ा को आखिर कोई क्यों नहीं समझ पाया, जो उनकी मौत कारण बन गया। दरअसल, बच्चों से लेकर युवाओं तक में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार, 15 आयु के किशोरों और वयस्कों में आत्महत्या मृत्यु का का एक बड़ा कारण है। खुदकुशी के प्रयास तनाव, आत्म- संदेह, सफलता का दबाव, वित्तीय अनिश्चितता, निराशा और नुकसान की भावनाओं जुड़े हो सकते हैं। इसके अलावा, स्कूल में शिक्षकों या सहपाठियों अनुचित व्यवहार, पारिवारिक कलह, हिंसा के संपर्क में आना, आवेगशीलता, आक्रामकता, अस्वीकृति और लाचारी की भावनाएं भी आत्महत्या के विचार को गहरा कर सकती हैं।

मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, अगर थोड़ी सी सतर्कता बरती जाए तो बच्चों और किशोरों की कुछ खास अभिव्यक्तियों से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके भीतर आत्महत्या के विचार पनप रहे हैं। जैसे- वे अक्सर खुद को नुकसान पहुंचाने वाली टिप्पणियां कर सकते हैं या किसी छोटी-सी बात पर अचानक आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। इसके अलावा चेतावनी के अन्य संकेतों में खाने या सोने की आदतों में बदलाव, उदास मन, दोस्तों परिवार और नियमित गतिविधियों से दूरी तथा शैक्षणिक कार्यों की गुणवत्ता में गिरावट देखी जा सकती है। आत्महत्या के बारे में सोचने वाले भविष्य की योजना बनाने या उसके संबंध में बात करना भी बंद कर सकते हैं। असल में अवसाद और आत्महत्या की भावनाएं मानसिक विकार हैं, जिनका इलाज संभव है। बच्चे या किशोर की बीमारी की पहचान कर उचित उपचार किया जा सकता है। अक्सर देखा गया है कि आत्महत्या के बारे में बात करने में लोग असहज महसूस करते हैं। हालांकि अपने बच्चों से यह पूछना मददगार हो सकता है कि क्या वह अवसादग्रस्त है या आत्महत्या के बारे में सोच है। इस तरह के प्रश्न बच्चे को यह आश्वासन सकते हैं कि कोई उसकी परवाह करता है और ऐसे में बच्चे अपनी समस्याओं के बारे में खुल कर बात कर सकते हैं।

बच्चों के साथ संवाद की कमी भी एक बड़ी समस्या है। असल में आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में माता-पिता अपने बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते हैं। कामकाजी परिवारों में यह समस्या सबसे ज्यादा है, जहां एकल परिवारों में पति और पत्नी दोनों काम कर रहे हैं। ऐसे परिवारों को लगता है कि माता-पिता के पास उनके लिए समय नहीं है। ये बच्चे अपने मन की बात किससे कहें? मनोचिकित्सकों का मानना है कि आजकल छोटे बच्चे भी अवसाद और चिंता का शिकार हो रहे हैं। इसकी दो बड़ी वजह हैं। पहली, बच्चों को लगता है कि दुनिया में उनका कोई नहीं है, उनकी किसी को परवाह नहीं है। है। दूसरी, उन पर पढ़ाई का बोझ सबसे ज्यादा है। बेहतर प्रदर्शन की दौड़ में पिछड़ने का डर उनके मन में इस कदर बैठा दिया गया | गया है कि कि वे किताबों से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते।

राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो। वर्ष 2022। (एनसीआरबी) की एक रपट की एक रपट के मुताबिक, देश में 13,044 बच्चों ने आत्महत्या की। की। इन मामलों में 2,248 विद्यार्थियों ने परीक्षा में में अनुत्तीर्ण होने ने पर ‘यह कदम उठाया। वहीं एनसीआरबी
के वर्ष 2001 के आंकड़े के मुताबिक, देश भर में 5,425 बच्चों ने आत्महत्या की। ये आंकड़े बताते हैं कि विद्यार्थियों की आत्महत्या कितनी तेजी से इजाफा हो रहा है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 1 रहे 40 से 90 फीसद किशोर कई तरह की चुनौतियां अनुसार, देश में अवसाद से जूझ वे मानसिक परेशानियों का सामना कर मादक पदार्थों का सेवन तक करने लगते हैं। आइसीएमआर का सर्वेक्षण बताता कि देश में बारह से तेरह बारह से तेरह फीसद विद्यार्थी मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं ‘द लांसेट पत्रिका का एक अध्ययन बताता है कि दुनिया का हर बारह में से एक बच्चा कभी न कभी आत्महत्या के विचार अपने मन में लाता है।

अवसाद, चिंता, अकेलापन और दोस्तों या घर-परिवार से किसी तरह का समर्थन नहीं मिलने के कारण बच्चों में आत्महत्या के विचार पनपने लगते हैं। बच्चों के काम करने के तरीके, उनके व्यवहार में आ रहा बदलाव, उनकी खामोशी या फिर गुस्सा और चिड़चिड़ापन जैसी व्यवहारगत आदतें सबसे पहले माता-पिता को पता चलती हैं, इसलिए उन्हें सतर्क रहने की जरूरत है।

इसके अलावा स्कूल में शिक्षकों और दोस्तों को भी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। आत्महत्या के विचार या योजना बनाने वाले बच्चे या किशोर को तुरंत किसी अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले जाकर उपचार किया जा सकता है। बच्चों और किशोरों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ना न न केवल हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल है, बल्कि हमारे घर परिवार और समाज की उदासीनता एवं लापरवाही को भी उजागर करता है। आखिर क्यों हम अपने बच्चों को समझ नहीं । रहे हैं? क्यों हम उनके मन को पढ़ नहीं पा रहे हैं? चूक कहां हो रही है? इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि कहीं हमने पैसे कमाने की होड़ में अपने बच्चों को अकेले घुटने के लिए तो नहीं छोड़ दिया है? पढ़ाई में अव्वल आने की दौड़ में उन्हें जीवन जीने या यों कहिए कि बचपन से दूर तो नहीं कर दिया है? हमें सोचना होगा कि आखिर जिंदगी बड़ी है या किताबी सफलता सवाल बहुत हैं, जिनके जवाब हम सबको मिलकर तलाशने होंगे, ताकि बच्चों और किशोरों के जीवन को सुरक्षित और खुशहाल बनाया जा सके।