ललित गर्ग
रामनवमी एवं हनुमान जयन्ती पर एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों ने जो हिंसा, नफरत एवं द्वेष को हथियार बनाकर अशांति फैलायी, वह भारत की एकता, अखण्डता एवं भाईचारे की संस्कृति को क्षति पहुंचाने का माध्यम बनी है। क्या इससे बुरी बात और कोई हो सकती है कि क्यों शांति एवं सद्भाव का संदेश देने वाले पर्व और उनसे जुड़े आयोजन हिंसा का शिकार हों? ध्यान रहे कि जब ऐसा होता है तो बैर बढ़ने के साथ देश की छवि पर भी बुरा असर पड़ता है। निःसंदेह इस सम्प्रदाय विशेष को भी यह समझने की आवश्यकता है कि जब देश कई चुनौतियों से दो-चार है, तब राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव को बल देना सबकी पहली और साझी प्राथमिकता बननी चाहिए। ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। एक विभाजित और वैमनस्यग्रस्त समाज न तो अपना भला कर सकता है और न ही देश को आगे ले जा सकता है। समय आ गया है कि उन मूल कारणों पर विचार किया जाए, जिनके चलते तनाव बढ़ाने वाली घटनाएं थम नहीं रही हैं।
विडंबना यह है कि हिंसा, असहिष्णुता और घृणा की ये घटनाएं भगवान श्रीराम के जन्मदिन पर हुईं, जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं, जो भारतीयता के प्रतीक है और नीतिपरायणता की साक्षात मिसाल हैं। ऐसी दिव्यआत्मा की जन्मजयन्ती पर देश के विभिन्न भागों में शोभायात्राओं पर हमले होना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि यह राष्ट्रीय एकता को आघात पहुंचाने की कुचेष्टा भी है। अभी रामनवमी पर हमलों एवं अशांति फैलाने की घटनाओं की चर्चा जारी ही थी कि दिल्ली में हनुमान जन्मोत्सव पर निकाली गई एक शोभायात्रा भी हिंसा की चपेट में आ गई। इसी तरह की हिंसा हरिद्वार में भी हुई और आंध्र एवं कर्नाटक के शहरों में भी। इसके पहले हिंदू नववर्ष के अवसर पर भी हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें राजस्थान के करौली की घटना की गूंज तो अभी तक सुनाई दे रही है। ऐसी घटनाएं सामाजिक तानेबाने को क्षति पहुंचाने के साथ कानून एवं व्यवस्था के समक्ष चुनौती भी खड़ी करती हैं। यह चिंता की बात है कि यह एक चलन सा बनता जा रहा है कि जब सार्वजनिक स्थलों पर कोई धार्मिक आयोजन होता है तो प्रायः पहले किसी बात को लेकर विवाद होता है और फिर हिंसा शुरू हो जाती है। कई बार तो यह हिंसा बड़े पैमाने पर और किसी सुनियोजित साजिश के तहत होती दिखती है। मध्य प्रदेश के खरगोन और गुजरात के हिम्मतनगर एवं खंभात में हुई भीषण हिंसा यही संकेत करती है कि उसे लेकर पूरी तैयारी की गई थी। दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके की हिंसा भी इसी ओर इशारा कर रही है।
देश का चरित्र बनाना है तथा स्वस्थ, सौहार्दपूर्ण एवं शांतिपूर्ण समाज की रचना करनी है तो हमें एक ऐसी आचार संहिता को स्वीकार करना होगा जो जीवन में पवित्रता दे। राष्ट्रीय प्रेम व स्वस्थ समाज की रचना की दृष्टि दे। कदाचार के इस अंधेरे कुएँ से निकाले। बिना इसके देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं। व्यक्ति, परिवार और राष्ट्रीय स्तर पर हमारे इरादों की शुद्धता महत्व रखती है, जबकि हमने इसका राजनीतिकरण कर परिणाम को महत्व दे दिया। घटिया उत्पादन के पर्याय के रूप में जाना जाने वाला जापान आज अपनी जीवन शैली को बदल कर उत्कृष्ट उत्पादन का प्रतीक बन विश्वविख्यात हो गया। यह राष्ट्रीय जीवन शैली की पवित्रता का प्रतीक है। इसी तरह भारत भी आज विश्वविख्यात होने की दिशा में अग्रसर हो रहा है, तो उसकी बढ़ती साख एवं समझ को खण्डित करने वाली शक्तियों को सावधान करना ही होगा। भारत जैसी माटी में जन्म लेना बड़ी मुश्किल से मिलता है। विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम की विचारधारा वाला यह राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों एवं सम्प्रदायों को अपने में समेटे है तो यह यहां के बहुसंख्यक समुदाय की उदार सोच का ही परिणाम रहा है, इसी बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को आखिर कब तक कमजोर किया जाता रहेगा? क्यों किया जायेगा? कल पर कुछ मत छोड़िए। कल जो बीत गया और कल जो आने वाला है- दोनों ही हमारी पीठ के समान हैं, जिसे हम देख नहीं सकते। आज हमारी हथेली है, जिसकी रेखाओं को हम देख सकते हैं। अब हथेली की रेखाओं को कमजोर करने एवं उसे लहूलुहान होते हुए नहीं देखा जा सकता?
ताजा घटनाओं के मूल में भड़काऊ नारे एवं संकीर्ण राजनीति के मनसूंबे सामने आये हैं। इन आरोपों की जांच होने के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या कुछ राजनीतिक दल किसी भी बहाने भड़कने और हिंसा करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं? वास्तव में जैसे यह एक सवाल है कि क्या भारतीय संस्कृति के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़े इन धार्मिक आयोजनों पर पथराव, तोड़फोड़ और आगजनी करना जरूरी समझ लिया गया है? इन प्रश्नों पर दलगत राजनीति से परे होकर गंभीरता के साथ विचार होना चाहिए। इसी तरह पुलिस प्रशासन को भी यह देखना होगा कि वैमनस्य बढ़ाने वाली घटनाएं क्यों बढ़ती चली जा रही हैं?
हिजाब, हलाल और अजान के नाम पर साम्प्रदायिक शक्तियों को संगठित करने एवं दूसरे धर्मों के आयोजनों पर हिंसक हमलों ने आज तेजी के साथ हिंसा, असहिष्णुता, नफरत, बिखराव और घृणा की साम्प्रदायिक जीवन शैली का रूप ग्रहण कर लिया है। यह खतरनाक स्थिति है, कारण सबको अपनी-अपनी पहचान समाप्त होेने का खतरा दिख रहा है। भारत मुस्लिम सम्प्रदायवाद से आतंकित रहा है। जब इस्लामवाद भारत की मूल संस्कृति को लहूलुहान करने पर आमादा दिख रहा है और प्रतिक्रिया स्वरूप यदि उदार हिन्दू भी इसी आधार पर गोल बन्द हो रहे हैं तो गलती किनकी मानी जायेगी। आवश्यकता है धर्म को प्रतिष्ठापित करने के बहाने राजनीति का खेल न खेला जाए। धर्म और सम्प्रदाय के भेद को गड्मड् न करें। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है। राजनीति में सम्प्रदाय न आये, नैतिकता आए, आदर्श आए, श्रेष्ठ मूल्य आएँ, सहिष्णुता आये, सह-अस्तित्व के प्राचीन मूल्य एवं जीवनशैली आये। नैतिकता मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। ”कर्तव्य“ और ”त्याग“ भावना पूर्ति करने वाली है। अतः न ही इनका विरोध हो और न ही इनकी तरफ से दृष्टि मोड़ लेना उचित है। अतः सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर सार्वभौम धर्म का साक्षात्कार ही हममें नवीन आत्मविश्वास, सशक्त भारत-विकसित भारत का संचार करेगा। जो समाज को धारण करे, उसे धर्म कहते हैं। लेकिन आज के युग में इसका सीधा अर्थ हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन आदि में से किसी एक को लिया जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि सभी मनुष्य सुखी हों, सभी भयमुक्त हों, सभी एक-दूसरे को भाई समान समझें। यह भारतीय धर्म चिन्तन का निचोड़ है और यही हिन्दू धर्म का निचोड़ है। जहां विश्व एक ही नीड़-सा लगे।
प्रश्न उठता है, आखिर सार्वभौम मानव धर्म क्या है? भारतीय दृष्टि में पाश्चात्य मत ही धर्म की अवधारणा एकांगी और सम्प्रदाय की अवधारणा के अधिक नजदीक है। जबकि धर्म शब्द ”रिलिजन“ से ज्यादा व्यापक है। भारतीयों ने इस शब्द का प्रयोग कभी सम्प्रदाय या पंथ के लिए नहीं किया, अपितु सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्यों, अहिंसा, सत्य, दया, प्रेम, करुणा, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता तथा मानवता के लिए किया। अन्याय का प्रतिकार करना आत्मा का गुण-धर्म है। असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से जीवन की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर तथा भोग से त्याग की ओर जाना ही धर्म है। यह धर्म देश, काल की सीमा तक सीमित न रहकर देशकालातीत है।
धर्म की विशालता के आगे सम्प्रदाय छोटे-छोटे द्वीप दिखाई देते हैं। सबकी पूजा, प्रार्थना, उपासना की स्वतंत्रता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यही सबको भयमुक्त रखता है। किसी का कोई विरोध नहीं। सम्प्रदाय नहीं लड़ता है सम्प्रदायवाद लड़ता है। यह सम्प्रदायवाद तब बनता है जब इसका प्रयोग किसी दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध राजनीतिक या सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। दरअसल साम्प्रदायिक विद्वेष के बीज वहीं जन्म लेते हैं जहां एक सम्प्रदाय का हित दूसरे सम्प्रदाय के हितों से टकराता है। भारत में हिन्दू-मुस्लिम हित परस्पर टकरा रहे हैं, इसलिए साम्प्रदायिकता बढ़ रही है। धार्मिकता नष्ट हो रही है। साम्प्रदायिकता का जन्म अनेक जटिल तत्वों से जुड़ा है – आर्थिक, धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक। इसमें मनोवैज्ञानिक ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमारा जीवन दिशासूचक बने। गिरजे पर लगा दिशा-सूचक नहीं, वह तो जिधर की हवा होती है उधर ही घूम जाता है। कुतुबनुमा बने, जो हर स्थिति मे ंसही दिशा बताता है।