केबीसी का चर्चित एपीसोड, अनुशासन के मायने भूलता बचपन! यह कैसा अति आत्मविश्वास?

A popular episode of KBC: A child forgets the meaning of discipline! What kind of overconfidence is this?

आयुषी दवे

भारत के बेहद लोकप्रिय टीवी शो कौन बनेगा करोड़पति का एक चर्चित एपीसोड काफी सुर्खियों में है। इसमें बच्चे का अति आत्मविश्वास शुरू में तो सबको खूब भाया लेकिन शो आगे बढ़ने के साथ, जवाब देने के तरीके ने सबको हैरान किया। बच्चों के एक एपीसोड में 10 साल के बच्चे ने अमिताभ बच्चन को नियम समझाने और विकल्प न बताने की न केवल हिदायत दी बल्कि अपनी अति आत्मविश्वासी छवि पेश कर कुछ देर के लिए बोलती भी बंद कर दी| हालाकि थोड़े ही सवालों के बाद वह खेल से बाहर हो गया लेकिन बच्चा जितनी देर रहा, कई अनसुलझे सवालों को छोड़ गया। शो को नियमित देखने वालों और इस बारे में सुनने वालों में इसकी काफी चर्चा है| कुछ इसे बच्चे के अहम तो कुछ शिष्टाचार से जोड़कर देखते हैं। तमाम तरह की आलोचनाओं के बावजूद बच्चे के समर्थन में भी कुछ सामने आए। हालाकि कई का यह भी मानना है कि ऐसे एपीसोड केबीसी को नहीं दिखाना था। टीआरपी और प्रतिस्पर्धा की होड़ में एक्सीडेण्टली बैठे बिठाए हाथ आए ऐसे मामले भला प्रसारण कंपनी क्यों छोड़े? निश्चित रूप से बच्चे के प्रति तरह-तरह के कमेण्टस आने का सिलसिला जल्द थमने वाला नहीं। लेकिन विचारणनीय यह है कि इसका बच्चे की मनःस्थिति पर कैसा और कितना गहरा असर पड़ेगा? संभव है कि जल्द इस पर डिबेट्स का दौर भी शुरू हो जाए।

लेकिन गंभीरता से सोचना होगा कि आखिर बच्चे ने ऐसा व्यव्हार क्यों किया? शो के दौरान बीच-बीच में बच्चे के जवाब देने के अनुचित तरीके से उसके माता-पिता भी असहज दिखे। ऐसा लगा कि ऐसी वार्तालाप बच्चे की दिनचर्या का अंग ही है। बच्चे के लिए भले यह नया न हो और आम हो लेकिन क्या यह सही है? इस पर मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सकों का ध्यान स्वाभाविक है। इस तरह की प्रवृत्ति कैसे रुके, गहन मंथन का विषय है। टीवी में ऐसे कार्यक्रम आएं न आएं यह नियामकों का जिम्मा है। लेकिन दस साल के बच्चे के व्यव्हार से ढ़ेरों सवाल जरूर उठ खड़े हुए हैं।

आज की आपाधापी और भागदौड़ भरी जिंदगी में बच्चों को अभिभावक कितना वक्त दे पाते हैं? वो संस्कार कहां गुम हो गए जिसके लिए भारत दुनिया में जाना जाता है? पश्चिमी सभ्यता इतना सर चढ़ बोल रही है कि पहले फटी जींस और अब फटे शर्ट की फैशन हमारी आत्ममुग्धता है? बच्चों का बदलता व्यव्हार, उनमें रूखापन और अतिविश्वास क्यों है? इस पर मनोविज्ञानिकों की राय को भी देखना होगा जो बताते हैं कि ऐसे व्यव्हार का कारण कहीं ना कहीं बच्चे का विकासात्मक असंतुलन है| जिस बच्चे को लेकर यह शुरुआत हुई है वह जेन अल्फा से ताल्लुक रखता है। यह सबसे तेज और सबसे हाईटेक पीढ़ी मानी जाती है| 2010 से 2024 के बीच पैदा यह, वह पहली पीढ़ी है जो पूरी तरह से 21वीं सदी में जन्मीं है। जन्म से ही तकनीक, स्मार्टफोन और टैबलेट के साथ पले-बढ़े ये बच्चे पूरी तरह डिजिटल और सायबर परिवेश में रहते हैं। यही नए डिजिटल युग के असल प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं। तेजी और हाजिर जवाबी इनकी पहचान है। इनके लिए, सब कुछ तुरंत होता है जैसे जवाब, खेल, प्रशंसा और ध्यान।

ऐसी प्रवृत्ति के भयावह दुष्परिणामों के बारे में सोचे बिना हम अपनी पीढ़ी को कहां ले जा रहे हैं? इस पर कौन सोचेगा? क्या हम, आप इस गति या तेजी की कीमत समझते हैं? उनके मस्तिष्क का फ्रंटल लोब, जो निर्णय लेने, धैर्य और भावनात्मक नियंत्रण के लिए ज़िम्मेदार है, बहुत धीमा विकसित हो रहा है। इनमें एक स्पष्ट पैटर्न दिखता है। इनमें विचारों में तेजी तो काम पर नियंत्रण कम रहता है। इनके व्यव्हार से मस्तिष्क का असंतुलन भी झलकता है। इसे तंत्रिका-विकासात्मक विकार कहते हैं जो ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, अतिसक्रियता और आवेग जैसी समस्याओं का कारण बनता है। यह मस्तिष्क की वह स्थिति है जो बच्चों और किशोरों में उनके स्कूल, घर, रिश्तों में दैनिक कामकाज को प्रभावित कर सकती है। यह वयस्कता तक बनी रहती है। इसे एडीएचडी यानी अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर कहते हैं। वहीं यह एक तरह का ओडीडी यानी ऑप्जिशनल डिफिएंट डिसऑर्डर है। यह भी व्यवहार संबंधी विकार है जिससे बच्चों में लगातार अवज्ञाकारी, असहयोगी और शत्रुतापूर्ण व्यवहार झलकता है। बच्चे दूसरों के साथ बहस करते हैं, नियमों का पालन करने से इनकार करते हैं और चिड़चिड़े होते हैं। यदि यह व्यवहार लंबे समय तक बना रहता है, तो यह रिश्तों और दैनिक जीवन को गंभीर रूप से बाधित कर सकता है। दूसरों से बात करते समय बीच में बोलना या बीच में ही टोक देना, बेचैनी और इंतज़ार करने में असमर्थता, अतिसक्रियता, आवेग में आकर जवाब देना, अधिकार प्राप्त लोगों से बहस करना या उनका विरोध करना, जिद और मैं हमेशा सही हूँ वाला रवैया अपनाना, गलत होने पर भी गलतियाँ न मानना वो लक्षण हैं जो भावनात्मक असंतुलन दर्शाते हैं। ऐसी स्थितियों में भावनाएँ मस्तिष्क को नियंत्रित करती हैं, न कि मस्तिष्क भावनाओं को। इसमें बुद्धिमान दिखने खातिर आंतरिक दबाव और अपने डर को प्रभुत्व या आज्ञाकारी लहजे से छुपा लेना ठीक नहीं होता।

केबीसी के जिस एपीसोड से यह मुद्दा गर्माया, उसमें एक अहम बातचीत पर भी ध्यान जरूरी है जब बच्चा कहता है कि अगर मैं कम से कम 12 लाख नहीं जीता तो मुझे बताया गया कि आपके साथ फोटो नहीं खिंचवा सकता! यह कहना बेहतर प्रदर्शन के लिए उस पर दबाव और चिंता को बताता है। कहने की जरूरत नहीं कि वजह माता-पिता या सामाजिक अपेक्षाओं से जुड़ा दबाव है। अहम यह कि माता-पिता अपने बच्चे की बुद्धिमत्ता और जीत की तारीफ तो करते हैं लेकिन उसकी भावनाओं को नहीं समझते, शांत या धैर्यवान होना नहीं सिखाते।

वास्तव में आपाधापी और प्रतिस्पर्धा में रात-दिन लगे माता-पिता भी तो उसी दौड़ में शामिल है जिसमें बच्चा है। भला क्या और क्या उम्मीद की जाए? समय से पहले गैर जरूरी मामलों में बच्चों की संलिप्तता और इसके लिए मददगार डिजिटल संसाधन पकड़ाना कितना उचित है? यह सवाल शुरुआत से बहस में रहा। लेकिन सवाल वही कि क्या हम वक्त से पहले अपने बच्चों को बिना सोचे, समझे बड़ा कर रहे हैं?

बचपना, मिट्टी में खेलने की आजादी, गांव, गलियां, गिल्ली डण्डा, गेड़ी चलना, लंगड़ी कूद, बोरा कूद, लुका-छिपी और तमाम पुराने पारंपिक खेल गायब होते जा रहे हैं। सबका स्थान मोबाइल और गेमिंग ने लेकर बच्चों को समय से पहले बड़ा और बूढ़ा जरूर बना दिया है। कितना अच्छा होता कि समय रहते ऐसी उच्छश्रंखलता को रोक पाते? क्या फिर लौट पाएगा बच्चा, बचपन और अनुशासन और बच्चों का झुण्ड, आंगन में किलकारी, दौड़ना, कूदना, लड़ना और एक हो जाना! शायद लंबा इतंजार करना होगा, कितना? यह तो किसी को नहीं पता।
(लेखिका इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन्स में इंजीनियर हैं।)